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‘एक फ़ैशनेबल बहस है आइडिया ऑफ़ इंडिया’

शिव विश्वनाथन समाजशास्त्री आइडिया ऑफ़ इंडिया असल में खो गया है. लेफ़्ट विंग का आइडिया ऑफ़ इंडिया असल में पश्चिमी आइडिया ऑफ़ इंडिया है. भाजपा का आइडिया ऑफ़ इंडिया भी पश्चिमी ही है, जो देखने में भारतीय लगता है, पर है नहीं. मैं हाल ही में भारतीय इतिहास और उसकी श्रेणियों को लेकर गांधीवादी धर्मपाल […]

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आइडिया ऑफ़ इंडिया असल में खो गया है. लेफ़्ट विंग का आइडिया ऑफ़ इंडिया असल में पश्चिमी आइडिया ऑफ़ इंडिया है. भाजपा का आइडिया ऑफ़ इंडिया भी पश्चिमी ही है, जो देखने में भारतीय लगता है, पर है नहीं.

मैं हाल ही में भारतीय इतिहास और उसकी श्रेणियों को लेकर गांधीवादी धर्मपाल की पड़ताल के बारे में पढ़ रहा था. अगर आप उसे देखें, तो दक्षिणपंथी और वामपंथी दोनों ही एक तरह से वो श्रेणियां हैं, जो हमारी परिकल्पना में नहीं थीं.

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जब आप आइडिया ऑफ़ इंडिया के बारे में बात करते हैं, तो असल में नेशन स्टेट की बात करते हैं न कि सभ्यता की. एक सभ्यता के रूप में आइडिया ऑफ़ इंडिया पुराना है, एक नेशन स्टेट के रूप में आइडिया ऑफ़ इंडिया बाद में आया. तो जब आप आज आइडिया ऑफ़ इंडिया की बात करते हैं, तो असल में अमूमन राष्ट्र राज्य के रूप में आइडिया ऑफ़ इंडिया की बात करते हैं.

यह एक सभ्यता के रूप में आइडिया ऑफ़ इंडिया की बात नहीं है.

एक स्तर पर आपने दक्षिण और वाम दोनों से ही सभ्यता के पक्ष को निकाल दिया है और ऐसा करने से तो भारत और इंडिया का विचार ही ग़लत साबित हो जाता है. मिसाल के लिए, पश्चिम के मुक़ाबले भारत में ईसाइयत ज़्यादा पुरानी है. दूसरे, जिस तरह धर्मों की विविधता यहां है, वह ग़ज़ब की बात है. तो इसमें सभ्यता की पूरी बहस ही ख़त्म हो जाती है.

वामपंथ और दक्षिणपंथ के आइडिया ऑफ़ इंडिया असल में राष्ट्र राज्य के दो अलग-अलग रूप हैं. ऐसे में नागरिक समाज, समुदाय, राजनीति और प्रकृति का विचार ही ग़लत साबित हो जाता है.

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और एक बात समझने वाली है. आज लेफ़्ट और राइट के बीच विरोध को खड़ा करने की जो कोशिश हो रही है, वह कोई उपयोगी चीज़ नहीं क्योंकि वाम के ही बहुत से पक्ष हैं, जैसे गांधीवादी वामपंथ, लोहिया का वामपंथ, जयप्रकाश नारायण का वामपंथ और धर्मपाल का वामपंथ. इन सबको कौन समझ रहा है? आइडिया ऑफ़ इंडिया का सरलीकरण करना ग़लत है. असल में ये विविधताओं के भारत का आइडिया है.

आइडिया ऑफ़ इंडिया ठोस विचार था, पर यह बिल्कुल अलग सोच थी, जो आज किसी भी बहस का हिस्सा नहीं है. ये पूरी तरह समसामयिक और आधुनिक विचार हैं, जो काफ़ी सीमित, अज्ञानतापूर्ण और तक़रीबन आधुनिक हैं. ये काफ़ी बाद के समय के हैं.

जब आप वामपंथ और दक्षिणपंथ की बहस की बात करते हैं, तो मैं आपको एक उदाहरण देना चाहूँगा. हर कोई कहता है कि वामपंथ का मतलब है वैज्ञानिक सोच और दक्षिणपंथ का मतलब है पुरातन सोच.

मगर दोनों में से कोई भी भारत के स्वदेशी विज्ञान की ताक़त के बारे में बात नहीं करता जो आधुनिक है और उतनी ही समसामयिक है. तो बहुत से मुद्दे इस विभाजन में नष्ट हो जाते हैं. जब आप विभाजन को विरोध की तरह तैयार करते हैं, तो समझ लीजिए कि आप पहले ही आइडिया ऑफ़ इंडिया खो चुके हैं, जो काफ़ी जटिल, बहुलतावादी और विविधतापूर्ण है.

मैं कहूँगा कि भारत का वह ख़्याल अब लोकप्रिय नहीं है क्योंकि आपने आइडिया ऑफ़ इंडिया को एक अज्ञानता के स्तर तक खींच लिया है. वामपंथ बनाम दक्षिणपंथ.. तो कौन सा वाम?

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अगर आप राष्ट्र राज्य पर ज़ोर देंगे, तो नतीजे में आपको एक ख़ास किस्म की बहस मिलेगी. अगर आप विचारधारा पर ज़ोर देंगे, तो दूसरे किस्म की बहस मिलेगी. अगर आप भारतीय सभ्यता और देशी विचार की नज़र से आइडिया ऑफ़ इंडिया को देखेंगे, तो आपको तीसरे किस्म की बहस मिलेगी. तो आइडिया ऑफ़ इंडिया की बहस के तीन स्तर मिलेंगे. दुर्भाग्य से हम विचारधारा और राष्ट्र राज्य पर ज़ोर देते हैं, न कि सभ्यता पर.

स्वदेशी आइडिया ऑफ़ इंडिया वह है, जो सभी किस्म के आक्रामकों के असर को सोखता रहा है और लंबे समय से आत्मसात कर रहा है. तो फ़िलहाल जो आइडिया ऑफ़ इंडिया की बहस चल रही है, वह काफ़ी छिछली है और बहुत हद तक अज्ञानता से भरी है.

जब मैं यह कहता हूँ, तो लोगों को इससे सदमा लगता है. मगर जिसने भी विज्ञान का इतिहास पढ़ा है, जिसने भी अभिलेख देखे हैं, वो बताएगा कि आइडिया ऑफ़ इंडिया उससे कहीं ज़्यादा समृद्ध है, जितना बताया जा रहा है.

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अगर आप पूछें कि आइडिया ऑफ़ इंडिया क्या है, तो दोनों पक्ष चाहते हैं कि विकास हो. मगर विकास का ख़्याल तो 1947 में शुरू हुआ, जो काफ़ी बाद की बात है.

वामपंथी और दक्षिणपंथी दोनों ही विज्ञान की बात करते हैं. मगर आधुनिक विज्ञान की कोई आलोचना नहीं होती. पश्चिम में विज्ञान को लेकर होने वाली महान बहसों को लेकर कोई सोच नहीं है.

आइडिया ऑफ़ इंडिया को लेकर दोनों पक्षों में जो सोच है वह पश्चिम की और एक सभ्यता के बतौर भारत के बारे में बहुत ख़राब समझ का नतीजा है. वास्तव में यह बहुत ही सामान्य बहस है और इससे कुछ नहीं निकलता. मुझे बताएं कि इसने किसी एक भी विचार को जन्म दिया हो? मुझे यह बहस आगे जाते नहीं दिखती. एक दिन कोई दूसरी गहरी बहस इसकी जगह लेगी ही.

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इसे यूँ देखें कि दोनों ही पक्ष विविधता की बात करते हैं. भारत में अनेक विविधताएं हैं. मुझे बताएं कि वामपंथ या दक्षिणपंथ में से किसने इसे बचाने के लिए कुछ किया है? दोनों इसकी समझ भी नहीं रखते. क्योंकि विविधता को लेकर उनकी सोच एक झूठे इतिहास पर आधारित है. आप विविधता के किसी भी विचार को किसी चीज़ से जोड़े बिना नहीं देख सकते. वामपंथ और दक्षिणपंथ दोनों को ही इसका कोई ख़्याल नहीं है.

दक्षिणपंथ नागरिक समाज का दमन करता है. वामपंथ एक मज़बूत राज्य चाहता है. वामपंथ ने कई आपातकालों का समर्थन किया. तो हम किस पर समय ख़र्च कर रहे हैं? यह एक फ़ैशनेबल बहस है, जिसे मीडिया ने उठाई है. मगर कोई अकादमिक होमवर्क नहीं हुआ है. यह सिर्फ़ झूठा विरोध खड़ा करती है.

इंडिया और भारत क्या हैं? इंडिया एक राष्ट्र राज्य है तो भारत एक सभ्यता है. आधुनिक भारत बनाम पारंपरिक भारत. अंग्रेज़ी भारत बनाम विविध भाषाओं वाला देश भारत. मेरे ख्याल से वामपंथ और दक्षिणपंथ अज्ञानता के दो रूप हैं और मैं इस पर किसी से भी बहस करने को तैयार हूँ.

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क्या आपको लगता है कि भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी, भारतीय जनता पार्टी से ज़्यादा शिक्षित है? आइडिया ऑफ़ इंडिया बोलियों का विचार है. बोलियों में तमाम तरह की बहुलताएं भरी हैं, जो आज की भाषा नहीं कर सकती, क्योंकि वह दो हिस्सों में बँटी हैं.

असल में आइडिया ऑफ़ इंडिया, इंडिया बनाम भारत, डिजिटल डिवाइड, ग़रीबी विभाजन और अंग्रेज़ी विभाजन सब बकवास है. आइडिया ऑफ़ इंडिया एक ग़ैर कॉस्मोपॉलिटन बहस है. आइडिया ऑफ़ इंडिया में लोकतंत्र का विचार भी नहीं है. लोकतंत्र माने क्या?

वामपंथ और दक्षिणपंथ दोनों ही पश्चिमी भाव हैं और वो भी पश्चिम के सबसे ख़राब विचार पर आधारित हैं. उन्होंने पश्चिम के इतिहास को ही ठीक से नहीं पढ़ा. आइडिया ऑफ़ इंडिया ऐसी बहस है जो न तो पश्चिम का इतिहास जानती है और न भारत का. अगर उन्होंने पढ़ा होता, तो शायद ऐसे विरोध देखने को न मिलते. आपको एक अलग ही परिभाषा दिखाई देती.

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अगर अभिव्यक्ति की आज़ादी और जेएनयू विवाद की बात करें तो जेएनयू एक राष्ट्रीय विश्वविद्यालय है. इसमें सभी राज्यों के लोग मौजूद हैं जिनके अपने-अपने विचार हैं. और अगर आप इसे असहमति के एक ख़ास फ्रेम में देखेंगे, तो वह सही नहीं होगा.

देशद्रोह का हमारा ख़्याल पश्चिमी राज्यों से उधार लिया गया है, जिन्होंने इसे दबाने का काम किया है. यह बहुत कुछ औपनिवेशिक मॉडलों से लिया गया है. और देशद्रोह के एक्सपर्ट कौन हैं – गांधी और टैगोर. तो राजनाथ सिंह और दूसरे लोग किस देशद्रोह की बात कर रहे हैं?

अभिव्यक्ति की आज़ादी असल में अपनी भावनाएं साफ़ तौर पर दूसरे नागरिकों और राज्य तक पहुँचाना है, जिससे वो विरोध, शिकायत या तर्क का जवाब दे सकें. तो ये लड़के कह रहे हैं कि कश्मीर में समस्याएं हैं और सेना ने दुर्व्यवहार किया है.

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मणिपुर ने भी यही बात पहले कही है. खालिस्तान समर्थकों ने भी यही बात कही है. मिज़ोरम के लोगों ने भी यह बात कही है. और ये लोग किस भारत को नष्ट करने की बात कर रहे हैं? राष्ट्र राज्य को या सभ्यता को? वो जिस चीज़ की बात कर रहे हैं, वह है एक ख़ास किस्म की सरकार.

वैसे भी किसी के नारे लगाने से क्या सरकार गिर जाएगी. जिस तरह की ताक़त इस सरकार के पास है, उससे तो लगता है कि कतई नहीं. वो इससे कहीं अधिक कुछ अभिव्यक्त कर रहे हैं. वो इस तथ्य को बता रहे हैं कि राज्य उनकी मांगों और मुद्दों को लेकर गंभीर नहीं है.

अगर कश्मीरी पंडित यही बात कहते, तो क्या आप उन्हें राष्ट्रविरोधी कहते? नहीं. क्योंकि उन्होंने वाकई काफ़ी मुश्किलें झेली हैं. दोनों तरफ़ उन्होंने वाकई मुश्किलें झेली हैं. तो हमें सिर्फ़ देशद्रोह का विचार नहीं चाहिए, बल्कि हमें यह जानना है कि कैसे हम अपने लोगों के कष्टों का समाधान खोजें. लोकतंत्र में समाधान खोजना चाहिए. और हम विश्वविद्यालय की मीडिया बहसों को क्यों उठा रहे हैं?

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मैं पूछना चाहता हूँ कि क्या इरोम शर्मिला भी देशद्रोही हैं? मुझे तो लगता है कि उन्होंने देश के बारे में ज़्यादा अहम मुद्दे उठाए हैं. अगर गफ़्फ़ार ख़ान आज आ जाएं, तो वह भी देशद्रोही साबित हो जाएंगे.

यह भारत बनाम पाकिस्तान की बहस नहीं है. चूंकि ज़्यादा ज़ोर राज्य पर है न कि विविधता और लोगों के राष्ट्र पर. और राज्य लोगों की इस विविधता को एक ख़ास सीमाओं में बांध देता है. तो मैं इन बहसों से कोई प्रभावित नहीं हूँ. ये फ़ैशनेबल बहसें हैं.

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क्या अभिव्यक्ति की आज़ादी में दूसरे या अपने धर्म की आलोचना करना शामिल है? हां, बिल्कुल है. एक समय सभी पंडित एक दूसरे से काफ़ी बहस करते थे. धार्मिक आधार पर बनी दवा को लेकर डॉक्टर बहस किया करते थे. तीसरे, आपको पहले इस्लाम और हिंदू धर्म, हिंदू धर्म और ईसाइयत के बीच मेल देखने को मिलता है.

भारतीय सृजनात्मकता का स्रोत यही सिंथीसिस था. तो जेएनयू में होने वाली ये फ़ैशनेबल बहसें फ़ैशनेबल प्रोफ़ेसर चला रहे हैं, जो अलग-अलग कमेटियां चलाते हैं. वो शायद मुझे मूर्ख कहेंगे. मगर मैं उनका यह अवॉर्ड लेने को तैयार हूँ.

(बीबीसी संवाददाता अनुराग शर्मा से बातचीत पर आधारित. ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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