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नुकसान की जिम्मेवारी

अपनी मांगों को मुखर करने के लिए धरना-प्रदर्शन या आंदोलन के अधिकार को कोई लोकतांत्रिक व्यवस्था किस सीमा तक स्वीकार कर सकती है? क्या इस अधिकार को उस स्थिति में भी स्वीकार किया जा सकता है जब लोकतंत्र को स्थिर रूप देनेवाली संस्थाओं का कामकाज या फिर जन-सामान्य के रोजमर्रा के जीवन को संभव बनानेवाली […]

अपनी मांगों को मुखर करने के लिए धरना-प्रदर्शन या आंदोलन के अधिकार को कोई लोकतांत्रिक व्यवस्था किस सीमा तक स्वीकार कर सकती है? क्या इस अधिकार को उस स्थिति में भी स्वीकार किया जा सकता है जब लोकतंत्र को स्थिर रूप देनेवाली संस्थाओं का कामकाज या फिर जन-सामान्य के रोजमर्रा के जीवन को संभव बनानेवाली सेवा-सुविधाएं, जैसे कि अस्पताल, स्कूल, पानी, आवागमन आदि बाधित हो जायें और किसी स्थान-विशेष में लोगों के जान के ही लाले पड़ जायें?
लोकतंत्र को विधि-आधारित व्यवस्था इसी वजह से तो कहा जाता है कि वह हर समूह को शेष समूहों के बराबर मानती है. समता की यह दृष्टि सुनिश्चित करती है कि किसी व्यक्ति या समूह के हितों के संवर्धन में उठनेवाली मांग को इतना उग्र होने की छूट नहीं दी जा सकती कि वह अन्य के लिए आफत बन जाये.
इस समय हरियाणा में आरक्षण के लिए संघर्षरत जाट समुदाय हो या कूचबिहार को तरजीही श्रेणी देने की मांग या फिर पिछले साल गुजरात में चला पाटीदार आंदोलन, अपनी आक्रामकता के चलते ये लोकतंत्र की मूल भावना का अपहरण करते दिखते हैं. जान-माल के नुकसान की भयावह खबरों के बीच इसी कारण सुप्रीम कोर्ट ने विधि-व्यवस्था की बहाली और समान भाव से न्याय के तकाजे से कहा है कि धरना-प्रदर्शन या आंदोलनों के उग्र होने पर यदि नुकसान होता है, तो उसकी जवाबदेही तय की जानी चाहिए.
निजी संपत्ति के नुकसान की भरपाई और पीड़ित के घायल होने या मृत्यु की स्थिति में मुआवजा देने जैसी बातें तो सरकारें करती रही हैं, पर असल बात आंदोलन की आक्रामकता के लिए किसी व्यक्ति या समूह को जिम्मेवार ठहराने और दंडित करने की है. सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात के हार्दिक पटेल से संबंधित मामले में यह जता कर कि राजनीतिक पार्टियों को प्राथमिक रूप से आंदोलनों, धरना-प्रदर्शनों में होनेवाले नुकसान का जवाबदेह ठहराया जा सकता है, एक तरह से भारतीय राजनीति में समूह-शक्ति का हिंसक रूप दिखा कर भयादोहन करने और स्वयं दंडभय मुक्त बने रहने के चलन पर ही टिप्पणी की है.
जनवरी में भी कोर्ट ने कहा था कि विरोध, बंद, धरना-प्रदर्शन के कारण अगर निजी या सार्वजनिक संपदा का नुकसान होता है, तो जिस व्यक्ति, राजनीतिक दल या संगठन ने लोगों का आह्वान किया है, उसे जिम्मेवार मानते हुए हर्जाने की वसूली की जाये. उम्मीद की जानी चाहिए कि देश के लोकतंत्र को ज्यादा जवाबदेह बनाने की दिशा में कोर्ट का यह प्रयास अपनी वांछित स्थिति को पाने में कामयाब होगा.

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