नयी दिल्ली : उच्चतम न्यायालय समलैंगिक यौनाचार को अपराध बताने वाले शीर्ष अदालत के फैसले के खिलाफ दायर सुधारात्मक याचिका पर खुले न्यायालय में सुनवाई करने पर आज सहमत हो गया. न्यायालय के इस कदम से समलैंगिक रिश्तों के पक्षधरों में उम्मीद जगी है कि शायद शीर्ष अदालत के विवादास्पद निर्णय पर पुनर्विचार करके उसमें सुधार हो सकेगा.
सुधारात्मक याचिका न्यायालय में समस्या के निदान का अंतिम न्यायिक तरीका है जिस पर सामान्यतया न्यायाधीशों के चैंबर में ही किसी भी पक्ष को बहस का अवसर दिये बगैर ही विचार होता है बहुत कम मामलों में ही ऐसी याचिकाओं पर न्यायालय में सुनवाई होती है. प्रधान न्यायाधीश पी सदाशिवम, न्यायमूर्ति आर एम लोढा, न्यायमूर्ति एच एल दत्तू और न्यायमूर्ति एसजे मुखोपाध्याय की चार सदस्यीय पीठ ने गैर सरकारी संगठन नाज फाउण्डेशन और प्रख्यात फिल्म निर्माता श्याम बेनेगल सहित दूसरे व्यक्तियों की याचिकाओं पर न्यायालय में सुनवाई करने के लिये आज सहमति दे दी. पीठ ने संक्षिप्त आदेश में कहा, ‘‘इसे अगले सप्ताह न्यायालय में सूचीबद्ध किया जाये.’’
नाज फाउण्डेशन सहित सारे याचिकाकर्ता समलैंगिक समुदाय की ओर से कानूनी लडाई लड रहे हैं. इन याचिकाओं में भारतीय दंड संहिता की धारा 377 को वैध ठहराने वाले शीर्ष अदालत के 11 दिसंबर, 2013 के निर्णय को चुनौती दी गयी है. धारा 377 के तहत समलैंगिक यौनाचार दंडनीय अपराध है जिसके लिये उम्र कैद तक की सजा हो सकती है. याचिकाकर्ताओं का तर्क है कि 11 दिसंबर, 2013 का फैसला त्रुटिपूर्ण है क्यांेकि यह पुराने कानून पर आधारित है. शीर्ष अदालत ने इससे पहले इस निर्णय पर पुनर्विचार के लिये केंद्र तथा दूसरे याचिकाकर्ताओं की याचिकायें खारिज कर दी थीं.
न्यायालय ने कहा था कि उसे 11 दिसंबर, 2013 के फैसले में हस्तक्षेप का कोई कारण नजर नहीं आता है. न्यायालय ने पुनर्विचार याचिकाओं पर मौखिक सुनवाई कराने का अनुरोध भी ठुकरा दिया था. आमतौर पर पुनर्विचार याचिकाओं पर न्यायाधीशों के चैंबर में ही विचार होता है.
शीर्ष अदालत ने 11 दिसंबर, 2013 के फैसले में समलैंगिक यौन संबंधों को अपराध के दायरे से बाहर रखने संबंधी दिल्ली उच्च न्यायालय का दो जुलाई, 2009 का निर्णय निरस्त करते हुये संबंधित कानून में संशोधन के लिये यह मामला संसद के पाले में डाल दिया था. न्यायालय ने कहा था कि भारतीय दंड संहिता की धारा 377 में किसी भी प्रकार की असंवैधानिकता नहीं है और उच्च न्यायालय की व्यवस्था का कानूनी दृष्टि से बचाव नहीं किया जा सकता है.