Bihar First Assembly Election 1951: 1951 का साल भारतीय लोकतंत्र के लिए एक नई सुबह लेकर आया. यह वह दौर था जब संविधान बन चुका था और आम लोगों को पहली बार यह हक मिला था कि वे अपनी सरकार खुद चुन सकें. बिहार, जो हमेशा से राजनीति की प्रयोगशाला माना जाता रहा है, ने भी इस ऐतिहासिक चुनाव में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया. यही से शुरू हुआ वह सिलसिला जिसने आगे चलकर देश की सियासत को दिशा दी.
बिहार जैसे बड़े राज्य में यह काम किसी चुनौती से कम नहीं था. बंटवारे ने सामाजिक ढांचे को हिला दिया था. लाखों लोग विस्थापित थे, कई के पास पहचान पत्र या दस्तावेज नहीं थे. फिर भी चुनाव आयोग ने यह सुनिश्चित किया कि हर व्यक्ति,चाहे वह किसान हो या पहली बार वोट डालने जा रही महिला,लोकतंत्र की कतार में खड़ा हो सके. उस वक्त के मुख्य चुनाव आयुक्त सुकुमार सेन ने जब पहली मतदाता सूची तैयार करवाई. लोगों के पास न पहचान पत्र थे, न कोई रिकॉर्ड. फिर भी मार्च 1951 तक भारत का पहला चुनावी रजिस्टर तैयार हुआ. एक अरब लोगों के सपनों की पहली सूची बनी.
जब कौन वोट देगा थी सबसे बड़ी चुनौती
चुनाव आयोग के सामने सबसे बड़ी चुनौती थी—कौन वोट देगा? ब्रिटिश काल में वोट का अधिकार सबके पास नहीं था. धर्म, संपत्ति, शिक्षा और लिंग के आधार पर लोगों को वोट से वंचित रखा गया था. उस समय वोट डालना मात्र एक औपचारिकता नहीं बल्कि आत्म-साक्षात्कार था.
महिलाएं पहली बार खुले तौर पर लोकतंत्र में अपनी पहचान बना रही थीं. ब्रिटिश काल में वोटर लिस्ट में महिलाओं के नाम “फलां की पत्नी” या “फलां की बेटी” के रूप में दर्ज होते थे. लेकिन सुकुमार सेन ने दिशा बदल दी — उन्होंने कहा, “लोकतंत्र में पहचान किसी और के सहारे नहीं, अपने नाम से होती है.” यह सोच भारत में महिला मताधिकार की दिशा में मील का पत्थर साबित हुई.
लेकिन आजाद भारत ने तय किया—अब हर वयस्क को समान अधिकार मिलेगा. जब सुकुमार सेन ने कहा कि “लोकतंत्र में पहचान छिपाई नहीं जा सकती”, तब महिला मतदाताओं को अपने नाम से पंजीकृत करने के लिए विशेष अभियान चलाया गया.

पहले चुनाव के आयोजन में प्रशासन के हाथ-पाँव फूल गए थे. कई राज्यों में मतदाता सूची तैयार करने का अनुभव ही नहीं था. पंजाब के चुनाव अधिकारी ने केंद्र को लिखा — “हमारे प्रेस तो पाकिस्तान में रह गए हैं, वोटर लिस्ट कैसे छपेगी?” तब चुनाव आयोग ने हाथ से तैयार की गई एक ‘इलेक्शन मैनुअल’ भेजी, जिसमें चरण-दर-चरण प्रक्रिया समझाई गई थी. कुछ राज्यों में ‘मॉक इलेक्शन’ तक कराए गए ताकि अधिकारी प्रक्रिया सीख सकें.
आज तकनीकी साधनों के बावजूद मतदाता सूची पर विवाद हो जाता है, तब उस दौर के अधिकारी बिना कंप्यूटर, बिना डेटा, सिर्फ कागज़, कलम और जज़्बे से इस लोकतांत्रिक बुनियाद की इमारत बना रहे थे.
चुनौती भरी शुरुआत, मगर भरोसे का माहौल
बिहार विधानसभा की पहली चुनावी जंग 276 सीटों पर लड़ी गई. दिलचस्प बात यह थी कि इनमें से 54 सीटें दोहरी सदस्यता वाली थीं, यानी एक ही सीट से दो प्रतिनिधि चुने जाते थे. उस समय यह व्यवस्था इसलिए थी ताकि समाज के हर वर्ग की भागीदारी सुनिश्चित हो सके. बाद में, 1957 के चुनाव से यह प्रावधान समाप्त किया गया.
बिहार में पहला विधानसभा चुनाव 1951 में हुआ था. तब राज्य में कुल 1 करोड़ 81 लाख 38 हजार मतदाता थे. इनमें से 95 लाख 48 हजार लोगों ने वोट डाले — यानी करीब 52% मतदान हुआ, जो उस दौर के लिहाज से बेहद उत्साहजनक था।
राज्य में कुल 276 विधानसभा सीटों पर चुनाव हुआ. दिलचस्प बात यह थी कि इनमें से 54 सीटें दोहरी सदस्यता वाली थीं, यानी एक ही क्षेत्र से दो विधायक चुने जाते थे — एक सामान्य और एक अनुसूचित जाति के लिए. यह व्यवस्था 1957 के चुनाव तक जारी रही.
कांग्रेस की लहर और समाजवाद की गूंज
इस पहले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने बिहार में लगभग एकतरफा जीत हासिल की. पार्टी को 42.16 प्रतिशत वोट मिले और उसने 239 सीटें अपने नाम कीं. यानी आज़ादी की अगुवाई करने वाली पार्टी ने बिहार में भी ‘जनादेश’ को पूरी तरह अपने पक्ष में लिया.
दूसरी सबसे मजबूत ताकत बनी सोशलिस्ट पार्टी, जिसे 22.18 प्रतिशत वोट और 23 सीटें मिलीं. कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (CPI) को 11 प्रतिशत वोट के साथ तीसरा स्थान मिला. यह वही दौर था जब समाजवादी आंदोलन बिहार की धरती से आकार ले रहा था और राजनीति वैचारिक धरातल पर चलती थी.
लेकिन यह चुनाव सिर्फ कांग्रेस की जीत का प्रतीक नहीं था — यह लोकतंत्र के जीवंत होने का प्रतीक था. पहली बार एक किसान, एक महिला, एक मजदूर और एक छात्र सब एक ही कतार में खड़े होकर वोट दे रहे थे. यह अनुभव ही नया भारत था.

यह वही समय था जब कांग्रेस का चेहरा श्री बाबू बिहार के पहले मुख्यमंत्री बने और उन्होंने राज्य में प्रशासनिक व्यवस्था की नींव रखी. बिहार का पहला चुनाव इस मायने में भी खास रहा कि यहां से क्षेत्रीय दलों का स्वर पहली बार गूंजा. झारखंड पार्टी ने 32 सीटें, छोटानागपुर और संथाल परगना जनता पार्टी ने 11 सीटें, लोक सेवक संघ ने 7 सीटें और ऑल इंडिया गण परिषद ने 1 सीट जीती. यह संकेत था कि बिहार की जमीन पर स्थानीय आकांक्षाओं की राजनीति भी अपना स्थान पा चुकी है — एक ऐसी राजनीति जो आगे चलकर देश के विमर्श में बड़ा रूप लेने वाली थी.
वोट से बनी पहचान
आज जब हम 2025 के चुनाव में जाति, गठबंधन, या सोशल मीडिया के प्रचार में उलझे दिखाई देते हैं, तब यह याद करना ज़रूरी है कि लोकतंत्र की पहली सीढ़ी कितनी सादगी और संकल्प से रखी गई थी.
1951 के चुनाव ने देश को केवल विधायिका ही नहीं दी — उसने यह भरोसा भी दिया कि हर वोट की कीमत होती है. यही कारण है कि बाद में कई चुनावों में कुछ ही वोटों ने सरकारों का भविष्य तय कर दिया. राजस्थान में एक वोट से पराजय, बिहार में सैकड़ों वोटों से पलटते परिणाम — ये सब इस लोकतांत्रिक संस्कृति की स्वाभाविक परिणति हैं.
बिहार सिर्फ एक राज्य नहीं, राजनीति की प्रयोगशाला रहा है. इसी धरती से महात्मा गांधी का चंपारण आंदोलन शुरू हुआ, यहीं से जेपी आंदोलन ने देश में आपातकाल विरोध की जनक्रांति खड़ी की. यही वह राज्य है जिसने बी.पी. मंडल आयोग जैसी ऐतिहासिक सिफारिशें देकर सामाजिक न्याय की धारा को नया रूप दिया.
पहले चुनाव के बाद बिहार की राजनीति कई उतार-चढ़ाव से गुज़री, मगर इसकी एक और पहचान रही — यहां की जनता हमेशा जागरूक रही. पार्टी बदलीं, नेता बदले, नारे बदले, लेकिन मतदान की भागीदारी में जनता कभी पीछे नहीं हटी.
आज का बिहार और तब का संदेश
2025 के बिहार में जहां महागठबंधन और एनडीए आमने सामने हैं, वहां हवा में वही लोकतांत्रिक उत्सुकता है जो 1951 के भारत में थी. तब कांग्रेस ने अपना झंडा फहराया था, आज एनडीए और विपक्ष अपने-अपने झंडों के साथ मैदान में हैं. फर्क बस इतना है कि तब लोग पहली बार वोट डाल रहे थे और आज उसी वोट के हक की रक्षा के लिए चौकन्ने हैं.
लोकतंत्र के इस लंबे सफर में बिहार ने साबित किया है कि सत्ता बदलना उसकी फितरत में है, लेकिन लोकतंत्र को बचाए रखना उसकी आदत में.
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