संतोष उत्सुक
वरिष्ठ व्यंग्यकार
santoshutsuk@gmail.com
देश की मिली-जुली संस्कृति में गन्ना, रस, गुड़, नींबू, नीम, करेला और शहद सब मिल-जुल कर रहते हैं. कभी मीठा ज्यादा हो जाये, तो कहने लगते हैं कि जीवन में कड़वा भी होना चाहिए, ताकि मीठे के महत्व से वाबस्ता रहें. फीकी चाय पीने की आदत डाल लो, तो सेहत के लिए वही अच्छी लगने लगती है.
अस्वस्थता का मजा लेनेवाले सुबह शुगर की गोली खा लेते हैं और दिनभर मीठा चबाते रहते हैं. दूसरों को सुबह उठने के लिए समझाते हैं और खुद देर तक सोये रहते हैं. दूसरा तीसरे को पीट रहा हो, तो पहला और चौथा भी हाथ धो लेता है. पहला पाप सफल हो जाये, तो दूसरा अधिकार जैसा लगने लगता है. लूट अधिकृत हो जाये, तो पाप एक तरह से पुण्य में तब्दील हो जाता है.
बदलते वक्त में एक-दूसरे से प्रेरित हो अनगिनत व्यक्ति, मैं भी, मैं भी करने लगते हैं. जब चाहे बदल दिये जानेवाले इतिहास के अनुसार सफलता, शोहरत और माया ने मिलकर यही गीत तो गाया है. नर और नारी इस समानांतर रास्ते पर निरंतर धंसते जा रहे हैं.
भारत में आज शरीर के लिए रोटी से भी अधिक जरूरी चीज हो चुके मनोरंजन को नये सफल रास्तों पर ले जाने के लिए मैं भी, मैं भी की बड़ी होड़ मची हुई है. कुछ नया रचना कितना आसान हो गया है, ढेर सारे रास्ते हैं और आराम से चौबीस घंटे उपलब्ध भी.
आज की प्रतिभा ने पर्यावरण के तीन सिद्धांत रियूज, रिसाइकिल व रिपेयर में रिमिक्स और रिक्रिएट भी मिलाकर मनोरंजन का नया पर्यावरण संभाल लिया है.
आदम और हव्वा द्वारा कंधे से कंधा मिलाकर मां, बेटी, बहन, प्रेमिका, पत्नी व दोस्त और असंख्य रूपों में पूजी जानेवाली देवी के प्रतिरूप को कोका कोला से लेकर शराब तक बताते गाने हिट होने के बाद, अन्य आदम और हव्वाओं के बीच, मैं भी, मीटू, मैं भी, करते हुए सफलता हड़पने में देर न लगाने के लिए लालच प्रतियोगिता चल रही है.
इस प्रतियोगिता को जीतनेवाली हर टीम में मां, बेटी, बहन, प्रेमिका, पत्नी व दोस्त बराबर सक्रिय हैं. वे भी इस सफलता में बराबर की हिस्सेदार हैं. लेकिन, क्या वे केवल पैसा और प्रसिद्धि के लिए कुछ भी कर गुजरने के लिए जिम्मेदार नहीं?
पूरी दुनिया में मनोरंजन का जाल बुन चुके पंजाबी के तो हर दूसरे गाने में सस्ते ‘मैंभी’ उपलब्ध है. असामाजिक सुरक्षा के मौसम में कुड़ी दारू वरगी, नितरी शराब वरगी, निकली शराब वरगी, कबूतर वरगी, ह्विस्की की बोतल वरगी और भी कितने ही वर्गीकरण संभावित हैं. इन गानों में कुड़ियां खुद भी शामिल होकर ‘निर्भय मनोरंजन नीति’ स्थापित कर रही हैं.
कहीं कुड़ियां ही कुड़ियों की यानी खुद अपनी दुश्मन तो नहीं होती जा रही हैं! क्या बेरोजगारी और सांस्कृतिक अकाल से, मनोरंजन समाज में आसानी से जगह दिलाऊ ‘मैं भी वही करूं की प्रतियोगिता’ चल रही है? सोचना होगा बॉस! समाज को बेहतर बनाने की जिम्मेदारी हम सबकी है, इसलिए हम सभी को ही इसके बारे में गंभीरता से सोचना होगा.