डॉ भास्कर बालाकृष्णन पूर्व एंबेसडर
विंग कमांडर अभिनंदन को पाकिस्तान हर हाल में लौटाता, चाहे कुछ दिन बाद ही क्यों न लौटाता. पाकिस्तान के पास कोई और विकल्प नहीं था. हालांकि, यहां कुछ बातें समझनेवाली हो सकती हैं. अभिनंदन को पाकिस्तान ने जितनी जल्दी रिहा किया है, इस संबंध में हम यह समझ सकते हैं कि यह भारत सरकार की कूटनीतिक जीत मानी जा सकती है. लेकिन, इसके भी दो पहलू हैं.
एक तरफ हम यह कह सकते हैं कि सरकार ने अपनी कूटनीति दिखायी और दूसरी तरफ अंतरराष्ट्रीय संधि के अंतर्गत पाकिस्तान की मजबूरी भी थी. चाहे युद्धबंदी का मसला हो या फिर एक देश के किसी सैनिक का दूसरे देश में पकड़े जाने का मसला हो, इन सब पर जेनेवा कन्वेंशन के तहत ही फैसले होते हैं. अब लोग तरह-तरह के सवाल उठा रहे हैं कि कुलभूषण जाधव के मामले में यह सरकार तत्परता क्यों नहीं दिखाती. दरअसल, ये दोनों मामले अलग-अलग हैं, इसलिए इन दोनों को एक ही स्तर पर नहीं देखा जा सकता है.
अभिनंदन का मामला एक सैनिक का है, तो कुलभूषण का मामला जासूसी का है. जासूसी पर जेनेवा कन्वेंशन के तहत फैसले नहीं हो सकते. दो देशों के बीच में या तो जब युद्ध होता है तब, या फिर युद्ध की घोषणा भी न हुई हो उस सूरत में भी अगर सैन्य झड़प होती है तब, इन दोनों परिस्थितियों में जब कोई सैनिक लड़ते-लड़ते दूसरे देश की सीमा में पकड़ लिया जाता है, तब जेनेवा कन्वेंशन के तहत ही उसे रिहा किया जाता है. अभिनंदन के मामले में यही हुआ है. यह एक अंतरराष्ट्रीय मामला है, जिस पर अंतरराष्ट्रीय नियमों के आधार पर ही निर्णय लिया जाना था और लिया भी गया.