विराग गुप्ता
एडवोकेट, सुप्रीम कोर्ट
जजों के सिस्टम को मजबूत करें
देश के विभिन्न न्यायालयों में करोड़ों मामले लंबित चल रहे हैं, वहीं अदालतों में जजों की कमी भी बनी हुई है. ऐसे आंकड़े न्याय-प्रक्रिया में व्यवधान की स्थिति पैदा करते हैं. हाल में चीफ जस्टिस ने भी इन आंकड़ों पर चिंता जतायी थी और बदलाव की दिशा में कदम बढ़ाने की बात की थी. देश की न्याय-प्रणाली के सुचारू रूप से चलते रहने के लिए जरूरी है कि जल्द-से-जल्द इन चुनौतियों को दूर किया जाए, जिससे लोकतंत्र के इस महत्वपूर्ण स्तंभ को और मजबूत किया जा सके. इन्हीं बातों के आलोक में आज के इन डेप्थ की प्रस्तुति…
सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई ने अमरावती में हाइकोर्ट की नयी इमारत के शिलान्यास के दौरान कहा था कि लंबित मुकदमों में बहुत सारे मामले बेवजह ही लंबित हैं. अयोध्या विवाद देश का सबसे पुराना मुकदमा है, जिसके दस्तावेजों के अनुवाद में ही तीन साल लग गये और मामले की सुनवाई अभी शुरू नहीं हुई.
विलंब से न्याय मिलना सबसे बड़ा अन्याय है और जिसके लिए सरकार से ज्यादा न्यायपालिका की जवाबदेही है. भारतीय संविधान के अनुसार, न्यायपालिका स्वतंत्र है परंतु संसाधनों के लिए अदालतें राज्य सरकारों पर निर्भर हैं. इसीलिए जजों की संख्या बढ़ाने के शॉर्टकट से लंबित मामलों की समस्या का समाधान नहीं होगा. अदालतों में सामने बैठे जजों के पीछे बड़ी व्यवस्था होती है, जिसके आधुनिकीकरण के साथ उसको दुरुस्त करने की भी बड़ी जरूरत है.
क्लर्क, स्टेनो, टाइपिस्ट, कंप्यूटर और प्रिंटर्स की भारी कमी की वजह से मुकदमों की सुनवाई और फैसलों में बेवजह विलंब होता है. जजों को बैठने के लिए पर्याप्त संख्या में कमरे और चैंबरों की भी जरूरत है, जिससे वे अदालतों में पढ़ाई के साथ सही ढंग से फैसले लिखवा सकें. अदालतों में बेवजह भीड़ रहने से भी मुकदमों की सही सुनवाई नहीं हो पाती.
इक्कीसवीं शताब्दी के डिजिटल इंडिया में तकनीक के इस्तेमाल से लोगों को जल्द न्याय देने की मुहिम को सफल बनाया जा सकता है. सुप्रीम कोर्ट ने सेंटर फॉर एकांउटेबिलिटी एंड सिस्टेमिक चेंज (सीएएससी) की याचिका पर अदालतों की कार्यवाही के सीधे प्रसारण की सैद्धांतिक अनुमति दे दी, परंतु उस पर अभी तक अमल शुरू नहीं हुआ है.
देश में तीन करोड़ मुकदमों में 25 करोड़ से ज्यादा लोग पीड़ित होकर अदालतों के चक्कर लगाते हैं, जिनकी समस्या को जजों की संख्या में बढ़ोत्तरी से ही ठीक नहीं किया जा सकता. अदालतों में ‘तारीख पर तारीख’ के सिस्टम में सुधार के लिए सिविल प्रोसीजर कोड, क्रिमिनल प्रोसीजर कोड और अन्य प्रक्रियागत कानूनों में बदलाव के लिए संसद और सरकारों को तुरंत पहल करनी चाहिए.
देश की कई अदालतों में जजों को सर उठाने की फुर्सत नहीं है, तो कुछ जजों के पास सार्थक काम की कमी है. देश में छोटे मुकदमों के त्वरित निष्पादन हेतु कानून में बदलाव करके मुकदमों की संख्या में भारी कमी की जा सकती है.
भिक्षावृत्ति को अपराध नहीं मानने के नये फैसले के बाद दिल्ली में इससे संबंधित कई अदालतों को बंद करके जजों की दूसरी अदालतों में तैनाती कर दी गयी, जिससे उनकी क्षमताओं का बेहतर इस्तेमाल हो रहा है. सुप्रीम कोर्ट के एक जज ने अपने व्याख्यान में विधि छात्रों की तारीफ करते हुए कहा था कि मूट कोर्ट का सिस्टम यदि अदालत में लागू हो जाये, तो मामलों में व्यवस्थित और तार्किक बहस हो सकती है.
संसद की कार्यवाही में अरबों रुपये खर्च होने के बावजूद कानून निर्माण के बारे में स्वस्थ बहस नहीं हो पाती. इसी तरह से अदालतों में भी शताब्दियों पुराने सिस्टम की वजह से लोगों को जल्द और सही न्याय नहीं मिलता.
केंद्र सरकार ने जजों की कार्यक्षमता के मूल्यांकन के लिए नेशनल कोर्ट मैंनेजमेंट सिस्टम के कार्यक्रम का खाका पेश किया था, जिस पर अब प्रभावी तरीके से पूरे देश में अमल की जरूरत है. गरीब लोग अपने मुकदमों के लिए वकीलों की भारी फीस नहीं दे सकते, लेकिन संविधान के अनुच्छेद-21 के तहत उन्हें भी समयबद्ध तरीके से सार्थक न्याय पाने का मौलिक अधिकार है. इसके लिए जजों की संख्या बढ़ाने के साथ उन्हें ब्रिटिश कालीन मानसिकता से मुक्त कराने के अभियान की भी जरूरत है.
उच्च न्यायालयों में जजों की संख्या
उच्च न्यायालय स्वीकृत पद कार्यरत संख्या रिक्त पद
इलाहाबाद 160 108 52
आंध्र प्रदेश 37 13 24
बॉम्बे 94 70 24
कलकत्ता 72 36 36
छत्तीसगढ़ 22 15 7
दिल्ली 60 38 22
गुवाहाटी 24 20 4
गुजरात 52 28 24
हिमाचल 1 8 5
जम्मू-कश्मीर 17 9 8
झारखंड 25 18 7
कर्नाटक 62 31 31
केरल 47 37 10
मध्य प्रदेश 53 34 19
मद्रास 75 60 15
मणिपुर 5 3 2
मेघालय 4 3 1
उड़ीसा 27 15 12
पटना 53 27 26
पंजाब-हरियाणा 85 53 32
राजस्थान 50 25 25
सिक्किम 3 3 0
तेलंगाना 24 13 11
त्रिपुरा 4 3 1
उत्तराखंड 11 9 2
नोट : आंध्र प्रदेश, कलकत्ता, गुजरात और कर्नाटक में कार्यकारी मुख्य न्यायाधीश कार्यरत हैं.
स्रोत : न्याय विभाग, विधि व न्याय मंत्रालय, भारत सरकार
(1 फरवरी, 2019 के अनुसार)
ऐसे होती है न्यायाधीशों की नियुक्ति
जिला/अधीनस्थ न्यायालयों में न्यायाधीश की नियुक्ति संबंधित राज्य के राज्यपाल द्वारा राज्य के उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के साथ सलाह-मशविरा के बाद की जाती है. इस नियुक्ति के लिए जरूरी है कि व्यक्ति ने कम से कम सात वर्ष तक बतौर वकील अदालत में कार्य किया हो. उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश व न्यायाधीशों की नियुक्ति संविधान के अनुच्छेद 217 की धारा (1) और उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति संविधान के अनुच्छेद 124 की धारा (2) के तहत राष्ट्रपति द्वारा की जाती है.
सुप्रीम कोर्ट में मात्र छह महिला जज नियुक्त
आजादी के बाद से उच्च न्यायालय में केवल छह महिलायें बतौर न्यायाधीश नियुक्त की गयी हैं. सुप्रीम कोर्ट में पहली महिला जज की नियुक्ति फातिमा बीवी के रूप में साल 1989 में हुई थी. हाल में ही, पेश कार्मिक, लोक शिकायत, विधि एवं न्याय संबंधी स्थायी समिति की शीतकालीन सत्र के दौरान लोकसभा और राज्यसभा में पेश की गयी रिपोर्ट में कहा गया था कि मार्च 2018 तक के आंकड़ों के अनुसार, देश के विभिन्न उच्च न्यायालयों में मात्र 73 महिला न्यायाधीश कार्यरत हैं.
इस प्रकार, उच्च न्यायालयों में कुल न्यायाधीशों की संख्या के लिहाज से महिला जजों की भागीदारी महज 10.89 प्रतिशत ही है. भारत के संविधान के अनुच्छेद 124 और 217 के अनुसार ही सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जजों की नियुक्ति की जाती है, जिसमें किसी भी तरह का आरक्षण नहीं दिया जाता है . हालांकि, कुछ राज्य ऐसे हैं, जिन्होंने अधीनस्थ न्यायपालिका में महिलाओं को आरक्षण दिया है.
अगर आंकड़ों पर नजर डाली जाये, तो बिहार में 35 प्रतिशत, आंध्रप्रदेश, ओड़िशा व तेलंगाना में 33.33 प्रतिशत, राजस्थान, तमिलनाडु, कर्नाटक व उत्तराखंड में 30 प्रतिशत, उत्तरप्रदेश में 20 प्रतिशत तथा झारखंड में 5 प्रतिशत महिला आरक्षण प्रदान किया गया है.
जजों की कमी से जूझते न्यायालय
पिछले सप्ताह कानून राज्य मंत्री पीपी चौधरी ने अपने लिखित उत्तर में लोकसभा को बताया था कि देश में प्रति 10 लाख व्यक्ति पर महज 19.78 न्यायाधीश हैं, जबकि वर्ष 2014 में इनकी संख्या प्रति 10 लाख पर 17.48 थी.
मंत्री ने यह भी बताया कि उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के लिए स्वीकृत पद जून 2014 के 906 से बढ़कर दिसंबर 2018 में 1,079 हो गये हैं और जिला/ अधीनस्थ न्यायालयों के न्यायाधीशों के स्वीकृत पद 2014 के 20,214 से बढ़कर 2018 में 22,833 हो गये हैं. हालांकि, वर्तमान में उच्च न्यायालय में काम कर रहे न्यायाधीशों की संख्या 679 है, जबकि उच्चतम न्यायालय के लिए स्वीकृत 31 के मुकाबले यहां महज 28 न्यायाधीश ही कार्यरत हैं.
हाइकोर्ट में न्यायाधीश के 400 पद रिक्त
उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के लिए कुल स्वीकृत पद 1,079 हैं, जिनमें 771 पद स्थायी (परमानेंट) और 308 पद अतिरिक्त (एडिशनल) न्यायाधीश के लिए स्वीकृत हैं. लेकिन, वर्तमान में देशभर के कुल 25 उच्च न्यायालयों में केवल 679 न्यायाधीश ही कार्यरत हैं. इसका अर्थ है कि उच्च न्यायालय में न्यायाधीशों के अभी 400 पद भरे जाने हैं, जिनमें 244 परमानेंट और 156 एडिशनल जजों के हैं.
अदालतों में लंबित मामले
3.93 मिलियन लंबित मामले थे उच्चतम व उच्च न्यायालय में वर्ष 2015 में, सरकारी आंकड़े के अनुसार.
2.91 करोड़ मामले लंबित थे जिला और अधीनस्थ अदालतों में साल 2018 के अंत में, वहीं 47.68 लाख मामले 24 उच्च न्यायालयों में लंबित थे, राष्ट्रीय न्यायिक डाटा ग्रिड के मुताबिक.
3.8 प्रतिशत की मामूली कमी आयी है उच्चतम न्यायालय में लंबित मामलों में वर्ष 2015 से जनवरी 2019 के बीच. इसी अवधि में देशभर के 24 उच्च न्यायालयों में आउटस्टैंडिंग केस की संख्या बढ़कर 3,75,402 हो गयी.
7,26,000 लंबित मामलों के साथ इलाहाबाद उच्च न्यायालय शीर्ष पर है, जबकि 4,49,000 लंबित मामलों के साथ राजस्थान उच्च न्यायालय दूसरे स्थान पर है, वर्ष 2015 से जनवरी 2019 की अवधि में.
4,419 लंबित मामले हैं उच्च न्यायालय के प्रत्येक जज के सामने, वहीं अधीनस्थ न्यायपालिका के प्रत्येक जज के जिम्मे 1,288 लंबित मामलों का निपटारा करना है.
140 मामले लंबित हैं निचली अदालतों में, विगत 60 साल से ज्यादा समय से.
1800 मामले लंबित हैं निचली अदालतों में, पिछले 48-58 साल से.
66,000 लगभग मामले लंबित हैं निचली अदालतों में 30 वर्ष से ज्यादा समय से.
22,90,364 मामले लंबित थे सितंबर 2018 तक निचली अदालतों में, एक दशक से ज्यादा समय से. यह आंकड़ा कुल लंबित मामलों का 8.29 प्रतिशत है.
कुल 4,071 अदालती कमरों की कमी
देश में करोड़ों मामले विभिन्न अदालतों में लंबित हैं. इसके अतिरिक्त, जजों की कमी से भी अदालतें जूझ रही हैं. देश में जिला व अधीनस्थ न्यायालय मिलाकर 18,403 अदालतें मौजूद हैं.
यदि सभी रिक्त पदों पर न्यायाधीशों की नियुक्ति कर दी जाती है, उसके बाद देश में 4,071 अदालतों की कमी से भी रूबरू होना पड़ेगा. इस आवश्यकता की पूर्ति करना भी आनेवाले वर्षों में न्याय प्रक्रिया की अहम चुनौती होगी. हालांकि, वित्त वर्ष 2018-19 के दौरान सरकार ने 2730 अदालतों का निर्माण शुरू किया है. इनका निर्माण पूरा होने के बाद भी 1341 अदालतों की कमी बरकरार रहेगी.