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#Budget2019 : डूबते को तिनके का सहारा, पढ़ें स्वराज इंडिया के अध्यक्ष योगेंद्र यादव का लेख

योगेंद्र यादव, अध्यक्ष, स्वराज इंडिया हर साल की तरह इस बार भी मैं किसानों और किसान कार्यकर्ता साथियों के साथ बजट सुनने और अपनी प्रतिक्रिया सुनाने के लिए एक गांव में बैठा था. गांव की महिला जानना चाहती थी कि सरकार ने ऐसी क्या घोषणा कर दी है, जिस पर टीवी वाले मुझसे सवाल पूछ […]

योगेंद्र यादव, अध्यक्ष, स्वराज इंडिया

हर साल की तरह इस बार भी मैं किसानों और किसान कार्यकर्ता साथियों के साथ बजट सुनने और अपनी प्रतिक्रिया सुनाने के लिए एक गांव में बैठा था. गांव की महिला जानना चाहती थी कि सरकार ने ऐसी क्या घोषणा कर दी है, जिस पर टीवी वाले मुझसे सवाल पूछ रहे हैं? मैंने बताया कि सरकार उनके परिवार को सम्मान के लिए सालाना ₹6,000 यानी हर महीने ₹500 रुपये देगी.
शॉल के कोने को मुंह में दबाये वह हंसी और सरकार को ही ₹500 देने के उसके प्रस्ताव ने सरकारी दावे की कलई खोल दी. उस महिला ने कहा था- ‘भाई 500 रुपये की पिनाल्टी तो सरकार हम पर लगा दे, हम ही भर देंगे.’ यह थी मोदी सरकार की नवीनतम व एक और ‘ऐतिहासिक’ ‘प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि योजना’ पर एक किसान महिला की पहली प्रतिक्रिया.
टीवी एंकर पूछ रहे थे ‘चलिये कुछ तो किसान को मिला. क्या इसे सही दिशा में छोटा कदम ही माने? और कुछ नहीं तो डूबते को तिनके का सहारा ही सही.’ काश मैं उनसे सहमत हो पाता. अगर सरकार ने यह कदम अपने आप पहले एक-दो साल में उठा लिया होता, धीरे-धीरे राशि बढ़ाने का वादा किया होता, तो यही मेरी प्रतिक्रिया होती.
लेकिन, पांच साल के छठे बजट में चुनावी हार का सामना कर रही सरकार द्वारा फेंके अंतिम पासे के बारे में यह राय नहीं बनायी जा सकती, आखिर पूजा में मिली धोती और भागते भूत की लंगोटी में अंतर तो है ना. डूबते को तिनके का सहारा वाली बात कुछ सही है, लेकिन यहां डूबते का मतलब किसान नहीं, बल्कि मोदी सरकार है.
इस घोषणा में सम्मान से ज्यादा अपमान सिर्फ इसलिए नहीं है कि इसकी राशि ऊंट के मुंह में जीरा है. असली बात इसकी राजनीतिक नीयत है. मोदी जी को लगता है कि चला-चली की बेला में किसान परिवार की झोली में कुछ फेंककर उसका वोट झटका जा सकता है. इसलिए इस योजना को किसी सामान्य बजट कि योजना की तरह नये वित्तीय वर्ष में मार्च से नहीं, बल्कि पिछले दिसंबर से लागू किया जायेगा.
इरादा साफ है कि अप्रैल-मई में चुनाव से पहले किसी तरह देश के कुछ करोड़ किसान परिवारों के बैंक के अकाउंट में ₹2,000 रुपये की पहली किस्त पहुंचा दी जाये. प्रधानमंत्री आश्वस्त हैं कि किसान का वोट खरीदा जा सकता है.
‘चलिये सौदा ही मान लीजिए, सवाल यह है कि किसान पट जायेगा या नहीं. आखिर तेलंगाना सरकार ने भी तो ऐसा ही सौदे के बल पर चुनाव जीत लिया था?’ मैंने समझाया कि तेलंगाना का मामला दूसरा था. वहां सरकार ने ‘रायतु बंधु’ योजना के तहत किसानों को ₹8,000 रुपये प्रति एकड़ के हिसाब से सहायता दी थी, जिसे बढ़ाकर अब ₹10,000 प्रति एकड़ प्रतिवर्ष कर दिया गया है यानी कि पांच एकड़ वाले किसान को ₹50,000 सरकारी सहायता मिलती.
दूसरा, वहां सरकार ने इस योजना को चुनाव से डेढ़ साल पहले लागू करना शुरू कर दिया था. लेकिन, सबसे बड़ा अंतर यह है कि यह सौदा वह सरकार कर रही है, जिसकी छवि पहले से ही किसान विरोधी होने की बन चुकी है. चार साल तक किसानों की उपेक्षा, प्राकृतिक आपदा के समय बेरुखी, फसल की बिक्री में किसान की लूट और ऊपर से नोट बंदी की मार के लिए जिम्मेदार मोदी सरकार जब सौदा करने की कोशिश करती है, तो वह किसान को अपने सम्मान का सौदा लगता है.
अब आखिरी सवाल मेरा इंतजार कर रहा था. ‘तो फिर आप के हिसाब से सरकार को इस बजट में किसान के लिए क्या घोषणा करनी चाहिए थी?’ मेरे हिसाब से सरकार को इस बजट में कोई नयी घोषणा करनी ही नहीं चाहिए थी. लोकतंत्र का कायदा है कि सरकार को पांच साल का राज मिला है. वह पांच बजट पेश कर चुकी है. छठवां बजट केवल लेखानुदान का बजट होता है. इसलिए कायदे से इस साल सरकार को लेखानुदान के साथ अपने पिछले पांच साल के काम का विस्तृत आउटकम बजट पेश करना चाहिए था.
ईमानदार होती तो सरकार को उन सवालों का जवाब देना चाहिए था, जो देशभर के किसान पूछ रहे हैं: सरकार ने घोषणा की थी कि छह साल में किसान की आमदनी को दोगुना कर दिया जायेगा. अब उसकी आधी अवधि बीतने पर किसान की आमदनी कितनी बढ़ी है? ताम-झाम के साथ प्रधानमंत्री आशा के नाम से शुरू हुई योजना के तहत किसानों के दाने-दाने को न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदने के वादे का क्या हुआ? प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के तहत आनेवाले किसानों की संख्या बढ़ने के बजाय घट क्यों रही है
प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना का फायदा किसानों को मिला या प्राइवेट बीमा कंपनियों को? सरकार को सिर्फ गौमाता की चिंता है या की गोपालक किसान की भी? आवारा पशुओं की समस्या से पीड़ित किसान के लिए भी कोई योजना क्यों नहीं? पिछले दो साल से सरकार किसान आत्महत्या के आंकड़ों को दबाकर क्यों बैठी हुई है? इनमें से एक भी सवाल का जवाब वित्त मंत्री ने क्यों नहीं दिया?
मैं सवाल पूछते जा रहा था कि पीछे से हमारे साथी नारा लगा रहे थे- ‘जुमले नहीं जवाब चाहिए, पांच साल का हिसाब चाहिए!’

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