समकालीन कविता के प्रमुख हस्ताक्षर अरुण शीतांश का यह तीसरा काव्य संग्रह है. देशज संवेदना, लोक संस्कृति और प्रकृति के कैनवास पर उकेरी गयी इनकी कविताओं में हर छोटी-बड़ी चीज और घटनाएं नये और व्यापक रूप में पाठकों से संवाद करती नजर आतीं हैं.
इसमें प्रेम की स्मृतियां हैं , कश्मीर के युवाओं के मुख्य धारा से भटकने की बात है, पूंजीवादी व्यवस्था में मूल्यों का क्षरण है और साथ ही लगातार विलुप्त होते जीव जंतुओं की सजग -गंभीर चिंता है. मारजिनलाइज्ड सेक्सन की बात को भी पूरी शिद्दत के साथ उठाया गया है. कह सकते हैं कि इस कविता संग्रह को एक ही बैठक में पूरी तन्मयता के साथ पढ़ा जा सकता है..
2005 से 2017 तक की 72 कविताएं इस संग्रह में हैं, जिनमें सामाजिक–राजनीतिक मुद्दों पर वे रचनात्मक हस्तक्षेप की मुद्रा में नजर आते हैं.
पहली कविता, पत्थरबाज में सामाजिक मुख्यधारा से कटे युवकों की बात है, जो ऊर्जा और संभावनाओं को दरकिनार कर अपने ही लोगों पर पत्थर फेंकते हैं, छद्म आजादी और जिहाद के नाम पर. वे इतिहास और वर्तमान को साथ रखते हैं– जो तुम्हें पत्थरों पर पोसा/जो तुम्हें नदी में नहाना सिखाया/ सूर्य ने अपनी तेज रोशनी दी/ उसी देश के असभ्य पत्थरबाज बन जाते हो यार/पूरी दुनिया की निगाहें टिकीं हैं/स्वर्ग पर. (पत्थरबाज, पृष्ट संख्या-9)
इनकी कविताओं में प्रेम की स्मृतियां हैं, प्रार्थनाओं का वितान है. लड़कियां खानाबदोश नहीं हैं, वे छत पर हैं, खुली आंखों से आसमान देखती हैं, लिखती हैं.
उनके पास विचार हैं , अपने अस्तित्व- वजूद को बचाये रखने के—-अनकी आंखों में खरगोश सी कहानी है/ वाणी में सबूत/नए इलाके में ब्रुनों की बेटियां/या छत पर लड़कियां/ सबसे बड़ी बात है/कि वे लिखती ही हैं/ बोल-बोल कर कभी-कभार मौन होकर/ प्रेम-पत्र/ लेकिन उन्हें चिंता है / कि विचार आते हैं.(छत से छत पर बातें करती लड़कियां पृष्ठ संख्या 88) गांव की गोबर पाथती औरत अपने अनथक परिश्रम से परिवार को संवार रहीं हैं.
क्या उनका श्रम सम्मान के योग्य नहीं है? वे लिखते हैं—-गोबर पाथती स्त्री/ अब रोती नहीं/ गोबर गैस परा खाना बनाने का इंतजार कर रही है/ हल्की मुस्कान के साथ/ और उसके बच्चे पीट रहे/ बर्तन टन टन टन.( ब्लाॅग स्पाॅट, पृष्ठ संख्या-78) पूंजीवादी व्यवस्था ने न केवल हमारे संसाधनों पर कब्जा किया, बल्कि हमारी लोक-संस्कृति और लोक- परंपराओं को भी खत्म किया.
नीम के पेड़ों का अमेरिका ने पेटेंट किया और उससे जुड़े देवी स्थान और परिछावन के गीतों को खत्म किया. पेड़ कटे तो उसके नीचे बैठने और सुख-दुख बांटने की परंपरा भी खत्म हो गयी. वे लिखते हैं- यह नीम का पेड़/ जिसके पत्तों से रस चुवा कर पीते हैं/ रोगों को दूर करने के लिए/उसी नीम पर नजर लग गयी अमेरिका की/ गांव- गांव काटे गए नीम". वे आगे लिखते हैं- नीम तले / कितने गले से फूंटे होंगे / निमिया के डाली मइया लावेली हिलोरवा की झूली-झूली ना. ( निमिया न के डाली मैया वालेरी न हिलोरा की झूली झूली ना, पृष्ठ संख्या 22) अब ये गीत गायब हो चले हैं. दरअसल यह त्रासदी वैश्विक स्तर की है जिनमें मध्य एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के तमाम मुल्क शामिल हैं.
कीनयायी लेखक न्गुगी वा थ्योंगो ने अपनी पुस्तक ‘भाषा, संस्कृति और राष्ट्रीय अस्मिता’ में इन्हीं बातों का विस्तारपूर्वक जिक्र किया है. कविताएं मरती नहीं , जिंदा रहतीं हैं, आनेवाली पीढ़ियों की आंखों में जीवन-राग बनकर. कवि की कोशिश है कि सुंदर, मुलायम चीजें हर हाल में धरती पर बची रहें.
यही कवि के लिए पंचामृत की तरह है. वे लिखते हैं- मारे जाने के बाद क्या बचेगा/ जिंदा रहेगी कविता/सुनहले अक्षरों में/ जब कवि छोड़ जायेगा कोई पंक्ति/ पंचामृत की तरह.( कवि छोड़ जायेगा पंक्ति, पृष्ठ संख्या 68) शेक्सपियर ने भी ‘ नाॅट मार्बल नाॅर द गिल्डेड माॅन्यूमेंट्स’ (साॅनेट नंबर 55) में कविता की शाश्वतता पर लिखा है कि इसे न तो युद्ध की ज्वाला नष्ट कर सकती है, न ही युद्ध के देवता की तलवार. यह अमर है. कस्बाई रचनाकार मनुष्यता के साथ एक नई दुनिया समानांतर रचने का साहस उठाते हैं. केंद्र के रचनाकारों के लिए यह नागवार है. इस कविता- संग्रह की सभी कविताएं इसी तरह की हैं.
—अविनाश रंजन
पुस्तक: पत्थरबाज लेखक: अरुण शीतांश
प्रकाशक: साहित्य भंडार मूल्य:२५० पृष्ठ संख्या:१२०