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”कांग्रेस का ट्रंप कार्ड प्रियंका गांधी” : कल्याणकारी मुद्दों का ईंधन हो तो चल सकती है वंशवाद की भी गाड़ी

सुरेंद्र किशोर राजनीतिक विश्लेषक प्रियंका गांधी को महासचिव बनाकर कांग्रेस ने महत्वपूर्ण कदम उठाया है. इसे कांग्रेस का ट्रंप कार्ड भी कहा जा रहा है. शायद यह एक हद तक वैसा साबित भी हो! पर, इसके साथ ही कुछ सवाल भी हैं. सबसे बड़ा सवाल यह है कि कांग्रेस को मौजूदा संकट से उबारने का […]

सुरेंद्र किशोर
राजनीतिक विश्लेषक
प्रियंका गांधी को महासचिव बनाकर कांग्रेस ने महत्वपूर्ण कदम उठाया है. इसे कांग्रेस का ट्रंप कार्ड भी कहा जा रहा है. शायद यह एक हद तक वैसा साबित भी हो! पर, इसके साथ ही कुछ सवाल भी हैं. सबसे बड़ा सवाल यह है कि कांग्रेस को मौजूदा संकट से उबारने का काम सिर्फ कोई एक चेहरा कर सकता है या मजबूत मुद्दे भी उसके लिए जरूरी होंगे?
अब तक का इतिहास तो यही कहता है कि मुद्दों के ईंधन से ही राजनीति में वंशवाद की गाड़ी आगे बढ़ती रही है. या फिर तेज दौड़ती रही है. सवाल है कि प्रियंका गांधी के पास कौन से मुद्दे हैं, जो जनता को उनकी ओर आकर्षित करेंगे? यह तो आने वाले महीने बतायेंगे. दरअसल, सत्ता में रहने पर राष्ट्रव्यापी मुद्दे खड़े करने में सुविधा होती है. उसके पास जनता को कुछ देने के लिए अपनी सरकार होती है. पर, कांग्रेस तो अब केंद्र की सत्ता में है नहीं. जब थी, तब तो उसकी प्राथमिकताएं दूसरी ही थीं. ऐसी स्थिति में अब क्या हो सकता है!
पता नहीं। पर अब तक क्या होता रहा है, उसे याद कर लेना मौजूं होगा. सन 1966 में इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनी थीं. आज की प्रियंका गांधी की अपेक्षा इंदिरा गांधी का चेहरा तब अधिक चमकदार था. वह योग्य पिता के साथ काम कर चुकी थीं. राजनीतिक अनुभव भी अधिक था. पर, सिर्फ उनके चेहरे से ही फिर भी काम नहीं चल पाया था. सन 1967 के आम चुनाव में लोकसभा में कांग्रेस का बहुमत घट गया और नौ राज्यों से कांग्रेस की सत्ता छिन गयी. तब तक लोकसभा चुनाव के साथ ही विधानसभाओं के भी चुनाव होते थे.
सन 1969 में कांग्रेस में महाविभाजन हो गया. इस बीच प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने ‘गरीबी हटाओ’ जैसा लोक लुभावन नारा दे दिया. उसे वास्तविक नारा साबित करने के लिए उन्होंने 14 निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया. राजाओं के प्रिवी पर्स व विशेषाधिकार समाप्त किये. गरीब लोग प्रभावित हुए. नतीजतन 1971 का लोकसभा चुनाव वह अकेले अपने बूते भारी बहुमत से जीत गयीं. याद रहे कि कांग्रेस के विभाजन के बाद लोकसभा में इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस का बहुमत समाप्त हो गया था. उनकी सरकार सीपीआई और द्रमुक जैसी पार्टियों के बाहरी समर्थन से चल रही थी.
मिस्टर क्लिन राजीव : संजय गांधी के विमान दुर्घटना में असामयिक निधन के बाद सन 1980 में राजीव गांधी कांग्रेस महासचिव बनाये गये. प्रारंभिक दौर में राजीव गांधी की छवि ‘मिस्टर क्लिन’ की थी. उन्होंने तीन कथित भ्रष्ट कांग्रेसी मुख्य मंत्रियों को हटवाया था. ‘सत्ता के दलालों’ के खिलाफ आवाज उठाई थी. नतीजतन सन 1984 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को अभूतपूर्व सफलता मिली. हालांकि, उस चुनाव में इंदिरा गांधी की हत्या से उपजी आम सहानुभूति का भी बड़ा योगदान था. पर जब बोफर्स विवाद आया तो राजीव फेल कर गये. हालांकि, वही अर्जुन, वही वाण थे.
चुनाव प्रचार में अशोभनीय बोल : कई दशक पहले की बात है. लोक दल के रामेश्वर सिंह एक दिन प्याज की माला पहन कर सदन में पहुंच गये. वे प्याज की महंगी की ओर सदन का ध्यान आकृृष्ट कर रहे थे.
सत्तापक्ष के अदमनीय सदस्य कल्पनाथ राय ने जूते को अपने हाथ में ले लिया और उसे वे रामेश्वर सिंह को दिखाने लगे. इस पर हंसोड़ सदस्य पीलू मोदी ने कहा कि ‘प्याज खाने वाला प्याज दिखा रहा है और जूते खाने वाला जूता दिखा रहा है.’ इस पर सदन ठहाकों से गूंज उठा. अब जरा आज कल के चुनाव प्रचारों के दौरान एक दूसरे के खिलाफ हो रहे अपशब्दों के इस्तेमाल पर गौर करें. जिसके पास जो होता है, वही तो दूसरे को देता है! जिन नेताओं ने सिर्फ गालियां सीखी हैं या खाई हैं, वे अपने विरोधियों को गालियां देते हैं. जिसने अच्छे संस्कार सीखे हैं, वह अपने विरोधियों के साथ शालीनता से व्यवहार करते रहे हैं.
1988 में इलाहाबाद लोकसभा उपचुनाव में जन मोर्चा के वीपी सिंह और कांग्रेस के सुनील शास्त्री आमने-सामने थे. लाल बहादुर शास्त्री के पुत्र सुनील शास्त्री ने पूरे उपचुनाव के दौरान एक बार भी वीपी सिंह का नाम तक नहीं लिया, आलोचना की बात कौन कहे! वीपी सिंह ने भी वैसा ही किया. प्रचार में कोई कटुता नहीं आयी. जबकि, वह उपचुनाव ऐतिहासिक था. उस उपचुनाव में वीपी सिंह की जीत से यह तय माना गया कि अगले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस हारेगी.
भूली-बिसरी याद : सक्रिय राजनीति में आने में प्रियंका ने ही थोड़ी देर कर दी अन्यथा नेहरू वंश के अन्य सबकी सक्रियता अपेक्षाकृत कम ही उम्र में शुरू हो गयी थी. जवाहर लाल नेहरू 40 साल की उम्र में ही कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष बन गये थे. यह सन 1929 की बात है. उससे ठीक पहले मोती लाल नेहरू अध्यक्ष थे. इंदिरा गांधी ने 42 साल की उम्र में कांग्रेस अध्यक्ष का पद संभाल लिया था. उससे एक साल पहले वह कार्य समिति की सदस्य थीं. तब जवाहर लाल नेहरू प्रधानमंत्री थे. राजीव गांधी 37 साल की उम्र में कांग्रेस में सक्रिय हो गये थे.
तब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं. संजय गांधी 34 साल की उम्र में अमेठी से सांसद बने थे. राहुल गांधी भी 34 साल की उम्र में 2004 में सांसद बने. प्रियंका गांधी ने 47 साल की उम्र में कांग्रेस में पद संभाला. हालांकि, इसकी मांग पहले से थी. 2004 में राहुल गांधी के सांसद बनने पर एक पत्रकार ने लिखा था कि ‘राहुल की इस ताजपोशी से यह स्पष्ट संकेत मिलता है कि गांधी परिवार के ठप्पे के बिना कांग्रेस का कोई बाजार मूल्य नहीं है.’ पर, इस बार जब राहुल गांधी के अध्यक्ष रहते प्रियंका को महासचिव बनाना पड़ा तो उसका क्या संकेत माना जाये? कितना बाजार मूल्य है? इसका विश्लेषण तरह-तरह से होगा.
मनमोहन सिंह की राज्यसभा सदस्यता : पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह असम से राज्यसभा सदस्य हैं. उनका कार्यकाल अगले जून में समाप्त हो रहा है. असम से तो उन्हें फिर से सदस्य बनवाना कांग्रेस के लिए मुश्किल है.
पर, सोनिया गांधी चाहती हैं कि उन्हें राज्यसभा में आगे भी रहना ही चाहिए. अब देखना है कि कांग्रेस के किस राज्यसभा सदस्य से इस्तीफा दिलवा कर मनमोहन जी को जगह दी जाती है! नजर पंजाब पर है. दरअसल ऐसा करना उसी राज्य से संभव होगा, जहां कांग्रेस सत्ता में है.
बंगाल में शरद की पार्टी : हाल की कोलकाता रैली में शरद यादव और कांग्रेस नेता शामिल हुए. पर, अब संकेत यह है कि कांग्रेस की पश्चिम बंगाल इकाई तृणमूल कांग्रेस के सख्त खिलाफ है. वह उससे कोई तालमेल नहीं चाहती. उधर, लोकतांत्रिक जनता दल की राज्य शाखा तृणमूल कांग्रेस की अपेक्षा वाम दलों से तालमेल को अधिक उत्सुक है.
और अंत में : इसे ही कहते हैं सरसों में ही भूत लग जाना! सरसों से भूत भगाया जाता है. पर, यदि सरसों में ही भूत लग जाये तो क्या होगा? पटना पुलिस के वरीय अफसरों ने प्रकाश पर्व के अवसर पर काम करने वाली एजेंसी को एक ही काम के लिए दो बार भुगतान कर दिया.
पुलिस के अफसर भी निगरानी ब्यूरो में तैनात होते हैं. निगरानी ब्यूरो यानी भ्रष्टाचार के खिलाफ कार्रवाई करने वाला संगठन. ऐसे अफसर यदि कभी वहां तैनात होंगे तो वहां जाकर क्या करेंगे या करते होंगे, यह जानना कठिन नहीं है. प्रकाश पर्व भुगतान कांड में आरोपितों को सबक सिखाने लायक सजा देने की जरूरत है.

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