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अपने समय का खुरदरापन है मेरी रचनाओं की पहचान

जाबिर हुसैन, साहित्यकार मेरी कथा डायरियां पढ़ कर अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के प्रोफेसर एवं वरिष्ठ आलोचक, शंभु गुप्त ने दो बातें कही थीं, बल्कि तीन बातें. एक तो ये कि मेरी कथा-डायरियों से गुजरे बिना विगत चार-पांच दशकों के बिहार को अच्छी तरह नहीं समझा जा सकता. कोई वस्तुगत, तथ्यात्मक इतिहास तो अभी इस […]

जाबिर हुसैन, साहित्यकार

मेरी कथा डायरियां पढ़ कर अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के प्रोफेसर एवं वरिष्ठ आलोचक, शंभु गुप्त ने दो बातें कही थीं, बल्कि तीन बातें. एक तो ये कि मेरी कथा-डायरियों से गुजरे बिना विगत चार-पांच दशकों के बिहार को अच्छी तरह नहीं समझा जा सकता. कोई वस्तुगत, तथ्यात्मक इतिहास तो अभी इस कालखंड पर लिखा नहीं गया.

एक प्रकार से यह अच्छी बात भी है. आगे, एक चौथाई सदी बाद, कोई इतिहासकार निजी आग्रहों से मुक्त होकर बिहार का इतिहास लिखे तो उसे किसी हद तक विश्वसनीय माना जा सकता है. यह भी सच है कि इतिहास दो प्रकार के होते हैं- एक इतिहास शासकों का, दूसरा समाज का. मेरी कथा-डायरियां शासकों की विरुदावली नहीं हैं, उनमें आमजन के संघर्षों का वृत्तांत रेखांकित किया गया है. ये अभिशप्त एवं उपेक्षित सामाजिक समूहों की जीवन-गाथा हैं. ठोस वास्तविकताओं पर आधारित अलंकार-विहीन कथाएं हैं. जिनमें समकालीन सत्ता से व्यावहारिक मुठभेड़ की विधा विकसित हुई है.

उन्होंने दूसरी बात कथा डायरी की विधा को लेकर कही. उनका मानना था कि मेरा लेखन एक साथ कथा और डायरी की सीमाओं को तोड़ता है. उनके स्थान पर कुछ नयी यथार्थवादी मान्यताएं स्थापित करता है. कुछ ऐसी मान्यताएं, जिन से हिंदी-उर्दू समाज बहुत ज्यादा परिचित नहीं रहा. उर्दू समाज तो बिल्कुल ही नहीं.

तीसरी बात शंभु गुप्त ने यह कही कि मेरी कहानियों और कथा-डायरियों को पढ़ते समय उन्हें अक्सर फ्रांज काफ्का, अल्बेयर कामू और हिंदुस्तानी कथाकारों में सआदत हसन मंटो याद आते हैं. इन कथाकारों के कथा-संदर्भ, परिस्थितियां और अनुभूतियां अलग-अलग रही हैं, लेकिन जिंदगी की सूक्ष्म गहराइयों की गिरफ्त लगभग एक-जैसी है.

इस संदर्भ में मुझे कथाकार कमलेश्वर की याद आती है. मेरे रचना-कर्म को लेकर प्रसिद्ध कथाकार प्रो रामधारी सिंह दिवाकर की महत्वपूर्ण आलोचना-पुस्तक ‘मरगंग में दूब’ पर विस्तृत चर्चा करते हुए कमलेश्वर ने रांगेय राघव, धूमिल और मेरा जिक्र किया था. उनके शब्द कुछ इस प्रकार थे – किसी भी देश-समाज की सांस्कृतिक धरोहर कैसे बनती और विकसित होती है, इस संदर्भ में मैंने रांगेय राघव, धूमिल और जाबिर हुसैन के नाम रेखांकित किये थे. इन तीन महत्वपूर्ण साहित्यकारों के रचना-स्रोत को यदि देखा जाये तो वे भी उतने ही भिन्न हैं, जितने भिन्न यह तीनों लेखक और इनका अवदान है. और यदि भाषा के नजरिये से भी देखा जाये तो इन तीनों लेखकों के भाषा-स्रोत भी अलग हैं. इनके भाषा-स्रोत लोकभाषाओं से संबद्ध हैं. यानी तीनों ही रचनाकार, एक तरह से कहें तो खड़ी बोली हिंदी से जुड़े हुए नहीं हैं. ये अपनी जन-भाषाओं के प्रतिनिधि हैं और साथ ही भारतीय संस्कृति की विविधता को साकार करते हुए हिंदी के माध्यम से ही अपना-अपना योगदान कर रहे हैं. इस सच्चाई से यह बड़ा तथ्य उजागर होता है कि कोई भाषा संस्कृति के निर्माण का सेहरा अपने सिर नहीं बांध सकती. यह संस्कृति के निर्माण का माध्यम तो हो सकती है पर एकमात्र कारण नहीं होती. भारतीय संस्कृति के निर्माण की इस ऐतिहासिक सच्चाई को रेखांकित किया जाना चाहिए.

(संदर्भ: रेत पर लिखी इबारतें

2016 / संपादक, सुबूही हुसेन / पृष्ठ-552)

इससे पहले, कमलेश्वर ने अपने एक अलग लेख में कहा था –

इधर एक चमत्कृत कर देने वाला रचनात्मक कार्य सामने आया है. इस कार्य को संपन्न किया है हिंदी के विख्यात कथाकार रामधारी सिंह दिवाकर ने. उन्होंने एक पुस्तक लिखी है ‘मरगंग में दूब’ और यह जनाब जाबिर हुसैन के साहित्यिक सरोकारों का आकलन करती है. इसका प्रकाशन दिल्ली के ‘पुस्तक भवन’ ने किया है. यह पुस्तक अनोखी सूझबूझ की परिचायक है. अछूती परिकल्पना तो इसकी है ही. हिंदी के ईर्ष्याग्रस्त गाली-गलौज और मारामारी के माहौल में यह पुस्तक सागर-मंथन में निकले अमृत की तरह हमारे हाथ लगती है. मैं इसकी रचनात्मक प्रशंसा में अधिक कुछ कहना नहीं चाहूंगा, पर रामधारी सिंह दिवाकर के इस अद्भुत प्रयास को ऐतिहासिक रचनात्मक कार्य घोषित करने का दुस्साहस जरूर करूंगा. इस पुस्तक की महत्ता और जाबिर हुसैन के कालजयी साहित्यिक अवदान को यहां समेटा नहीं जा सकता, पर उनके महत्व को समझने के लिए श्रीपत राय की यह पंक्तियां काफी हैं – ‘मैंने रचनाओं और रचनाकारों की प्रशंसा बहुत कम ही की है. मेरे साहित्य के पैमाने बहुत सख्त हैं. लेखकों को अनुशंसा-पत्र प्रदान करने के मामले में मैं काफी कृपण रहा हूं. लेकिन जाबिर हुसैन की रचनाओं के बारे में निःसंकोच कहना चाहता हूं कि ये रचनाएं सामान्य धारणा से कहीं अधिक व्यापक महत्व की हैं. एक धारदार और संभावनामय प्रतिभा प्रकाश में आ रही है. जाबिर हुसैन की साहित्यिक उपलब्धियां स्थायी और मूल्यवान बनेंगी, ऐसा मेरा विश्वास है.’ यह विचार श्रीपत जी ने सन् 1992 में व्यक्त किये थे, और आज निःसंकोच यह कहा जा सकता है कि फणीश्वरनाथ रेणु के बाद हिंदी कथा साहित्य के रचनात्मक फलक पर जाबिर हुसैन जैसे रचनाकार मौजूद हैं. उनकी कथा-डायरियां कहानी नहीं हैं. वे जीवन से सीधे उठाये गये दारुण प्रसंग हैं, जो यथार्थवादी यथार्थ की जीवनपरक रचना करते हैं. हिंदी का रचना-संसार मात्र वाद-विवादों का अखाड़ा नहीं, रचनात्मक चुनौतियों का संसार है.

(संदर्भ: वही, पृष्ठ-551-552)

मेरी किताबों के बारे में आप जानना चाहते हैं. हिंदी में बीस और उर्दू में पंद्रह किताबें प्रकाशित हैं. इनमें कविताओं के पांच संग्रह शामिल हैं. कथा-डायरी और कविताएं लिखने का सिलसिला जारी है. इनके अलावा दोआबा के संपादन का काम भी चल रहा है. अब तक 27 अंक निकल चुके हैं. कई राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में कहानी और कविताएं छपने का क्रम जारी है.

कथा-डायरियों की तरह, मेरी कविताएं भी नये बिंब और लय (रिद्म) के साथ सामने आती हैं. उनमें आपको गढ़े हुए मुहावरे और कृत्रिम संवेदनाएं नहीं मिलेंगी. एक प्रकार की सहजता, स्वाभाविकता इन कविताओं में साफ दिखाई देगी. अपने समय की विसंगतियों के अक्स आपको इन कविताओं में जरूर मिलेंगे. इनमें अपने समय का खुरदुरापन भी दिखाई देगा आपको.

मेरा लेखन राजनीतिक कर्म के विकल्प के रूप में विकसित नहीं हुआ. ये एक समानांतर कर्म की तरह आगे बढ़ा है. मैं नहीं कह सकता, मेरे लेखन ने मेरे सामाजिक सरोकारों को ताकत दी है, या मेरे सरोकारों ने मेरे लेखन को बल प्रदान किया है. दोनों एक दूसरे के पूरक की तरह मुझे जिंदा रहने के लिए प्रेरित करते रहे हैं.

मेरी एक नयी कविता है ‘प्रतिरोध’ इसकी कुछ पंक्तियां हैं –

कवियों से/ मैंने कहा/ प्रतिरोध/ सिर्फ मैं/ करूंगा

इसलिए/ कीमत भी/ सिर्फ/ मैं ही/ चुकाऊंगा

आप चिंता/ मत करो

(शहंशाह आलम से बातचीत पर आधारित)

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