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2014 जैसा जादू नहीं चलेगा

नीरजा चौधरी वरिष्ठ पत्रकार neerja_chowdhury@yahoo.com भारतीय राजनीति में रह-रहकर बदलाव की हवा चलती रहती है. इसमें खासतौर पर हिंदी हॉर्ट लैंड बड़ी भूमिका निभाता है. अरसे बाद फिर इस बार हिंदी हॉर्ट लैंड में बदलाव की हवा चल पड़ी है. तीन राज्यों- राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ से भाजपा का शासन समाप्त हो गया है […]

नीरजा चौधरी
वरिष्ठ पत्रकार
neerja_chowdhury@yahoo.com
भारतीय राजनीति में रह-रहकर बदलाव की हवा चलती रहती है. इसमें खासतौर पर हिंदी हॉर्ट लैंड बड़ी भूमिका निभाता है. अरसे बाद फिर इस बार हिंदी हॉर्ट लैंड में बदलाव की हवा चल पड़ी है. तीन राज्यों- राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ से भाजपा का शासन समाप्त हो गया है और अब वहां कांग्रेस शासन करने जा रही है. निश्चित रूप से यह भाजपा की हार है और कांग्रेस की जीत के साथ विपक्षी दलों के लिए कुछ ऊर्जा मिलनेवाली है.
अगर हिंदी हॉर्ट लैंड में गुजरात को शामिल कर लिया जाये, तो आपको याद होगा कि साल 2014 के चुनावों में इन क्षेत्रों से भाजपा को 282 में 220 सीटें मिली थीं. अब इन चुनाव परिणामों से भाजपा की जो गति हुई है और लोगों में बदलाव की इच्छा प्रबल हुई है, उससे लगता है कि आगामी लोकसभा चुनावों में हिंदी हॉर्ट लैंड की सीटें ही निर्णायक साबित होंगी.
अब मामला 2014 जैसा नहीं है और इसलिए यह हो सकता है कि भाजपा को इन्हीं क्षेत्रों को बचाने के लिए कड़ी टक्कर का सामना करना पड़े. ऐसा इसलिए, क्योंकि अब नरेंद्र मोदी की वैसी लहर नहीं है, जैसी पिछले आम चुनाव में थी. ऐसे में अगर भाजपा हिंदी हॉर्ट लैंड में मोटा-मोटी 100 सीटें खो देती है, तो उसके लिए बहुत मुश्किल हो जायेगी. वहीं तीन राज्यों- राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ से उसे 62 लोकसभा सीटें मिली थीं, जिसमें से मोटा-मोटी 30 सीटों का नुकसान हो सकता है.
इन चुनाव नतीजों से कुछ बातें साफ समझ आने लगी हैं. पहली बात यह कि आगामी लोकसभा चुनाव में साल 2014 जैसा जादू नहीं होनेवाला है कि सारी की सारी सीटें भाजपा जीत ले. दूसरी बात यह कि अब इन तीन बड़े राज्यों में कांग्रेस की सरकार होगी, तो कांग्रेस 62 में से 30-35 सीटों पर काबिज हो सकती है.
यहां एक तीसरी बात यह भी है कि इससे विपक्षी गठबंधन को एक नयी धार मिलनेवाली है, जिसमें अगर कोई राजनीतिक अड़चन नहीं आयी, तो भाजपा के लिए विपक्ष मुश्किलें खड़ी कर सकता है. यह सिलसिला सिर्फ लोकसभा चुनाव तक ही नहीं चलेगा, मुमकिन है कि बदलाव की यह हवा उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखंड तक भी पहुंचे और तब स्थिति कुछ और ही हो. इन चुनाव परिणामों ने एक ऐसा दरवाजा खोल दिया है, जिसमें सिर्फ मोदी-शाह की जोड़ी ही नहीं प्रवेश करेगी, बल्कि राहुल और विपक्षी दल भी दमखम के साथ दाखिल होते चले जायेंगे.
इन चुनाव नतीजों ने हिंदी हॉर्ट लैंड से बाहर भी सोचने के लिए मजबूर किया है. दक्षिण भारत में भाजपा का कोई खास जनाधार नहीं है कर्नाटक को छोड़कर. और कर्नाटक में भी चुनौती है, क्योंकि कांग्रेस और जनता दल वहां इकट्ठा हो गये हैं और दोनों मिलकर पिछले उपचुनाव में जीते भी हैं.
सबरीमाला की वजह से केरल में भाजपा दो-चार सीटें जीत ले, तो भी कुछ खास फर्क नहीं पड़नेवाला है. तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना आदि में भाजपा नहीं है. इसलिए दक्षिण को छोड़ दें. पूर्वोत्तर में भाजपा की दो दर्जन सीटें हैं, उसमें भी भाजपा ने गेम करके जीता है. बंगाल में ममता भाजपा को नहीं घुसने देगी और ओडिशा में जैसे चल रहा था भाजपा के लिए, वह भी अब थम गया है. ऐसे में भाजपा के लिए सिर्फ हिंदी हॉर्ट लैंड ही बचता है, जो निर्णायक साबित होगा.
इन चुनाव नतीजों से यह भी साफ है कि अन्य राज्यों में भी भाजपा के खिलाफ जनाधार बढ़ेगा, क्योंकि हर जगह केंद्र में भाजपानीत सरकार की नीतियों से लोगों की नाराजगी है. लोगों की रसोई में खाना कम बनेगा, तो लोग राममंदिर से कभी खुश नहीं होंगे. हर हाल में लोगों को रोजगार चाहिए और जीने के लिए सर्वसुलभ सुविधाएं चाहिए, ताकि जिंदगी की गाड़ी खुशहाल चलती रहे.
इन चुनावों को गौर से देखिए. इनमें कई महत्वपूर्ण मुद्दे हमारे सामने आये हैं, जो राष्ट्रीय स्तर के मुद्दे हैं. आर्थिक मुद्दे, किसान और खेती के मुद्दे, युवाओं के रोजगार के मुद्दे, सर्वव्यापी महंगाई के मुद्दे भी गहराई से नजर आते हैं. इन सभी मुद्दों पर केंद्र की नीतियों से युवा और किसान बहुत नाराज हैं.
एक तरफ जहां महंगाई के चलते खेती की लागत बढ़ी है, वहीं किसान की आय भी कम हुई है. एक तरफ जहां युवाओं में रोजगार के अवसर नहीं बढ़े हैं, वहीं लाखों रोजगार कम भी हो गये हैं. ऐसे में सरकार चाहे भले ही सड़क-बिजली-पानी दे दे, बड़ी-बड़ी योजनाओं की घोषणा कर दे, अगर लोगों की रसोई में अन्न नहीं होगा, तो मुमकिन है कि लोगों में इससे सरकार के प्रति नाराजगी बढ़े. देश के विकास के लिए यह जरूरी है कि युवाओं को रोजगार मिले
और किसान के हाथ में पैसा आये. यह बात हम सबने मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान, तीनों राज्यों में देखा है. तेलंगाना में तो किसान का मुद्दा नहीं बना, क्योंकि केसी राव ने किसानों को खुश करके रखा था. नौकरियां और किसान राष्ट्रीय मुद्दे हैं, इन्हें किसी भी चुनाव में नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. अब सिर्फ लुभावने, इमोशनल और राजनीतिक मुद्दे ही काम नहीं कर सकते, क्योंकि लोग अपने जीवन को बेहतर बनाना चाहते हैं. हालांकि, किसानों का मुद्दा नया नहीं है, लेकिन इस सरकार ने जितने वादे किये हैं, उन्हें पूरे नहीं किये हैं, इसलिए इस मुद्दे ने बीते चार साल के दौरान खूब जोर पकड़ा और बड़ी-बड़ी रैलियां हुईं. सरकार ने एमएसपी बढ़ा तो दिया है, लेकिन वह किसानों तक पहुंच ही नहीं रहा है, इसलिए किसान नाराज हैं.
नोटबंदी के बाद भी उत्तर प्रदेश के अलावा कई राज्यों में भाजपा की सरकारें बनीं, क्योंकि तब तक नोटबंदी का प्रभाव नजर नहीं आ रहा था. लोगों ने थोड़ा गुस्सा जताया, लेकिन मोदी जी के नाम पर भाजपा को ही वोट दिया. लेकिन, इन चुनावों में नोटबंदी का असर साफ देखा जा सकता है, जिसके परिणामस्वरूप भाजपा हारी है. कहीं-कहीं ऊंची जातियों ने भी भाजपा को नकार दिया है. ऐसा लगता है कि आरक्षण भी एक बड़ा मुद्दा बनने जा रहा है. फिलहाल अभी इसके लिए इंतजार करना पड़ेगा.
दरअसल, नरेंद्र मोदी ने इतने वादे किये हैं कि उन्हें इतनी आसानी से पूरा भी नहीं किया जा सकता. आज भले ही भाजपा काे हार मिली है, लेकिन आज भी एक बड़ा तबका नरेंद्र मोदी को शिद्दत से चाहता है. लेकिन, इन चुनावों में राहुल गांधी की स्वीकार्यता बढ़ी है और लोग राहुल को अब बड़े नेता के रूप में देख रहे हैं. इसका बहुआयामी असर पड़ेगा और यह बना रहा, तो राहुल की शख्सियत साल 2019 के चुनावों में निखर कर आयेगी. इस वक्त अगर मोदी को कोई टक्कर दे सकता है, तो वह सिर्फ राहुल गांधी ही हैं.
(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)

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