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याद आते हैं शरद जोशी
अजीत रानाडे सीनियर फेलो, तक्षशिला इंस्टीट्यूशन editor@thebillionpress.org इस वक्त जब देश के कई हिस्सों में कृषि संकट के दीदार हो रहे हैं और लाखों किसान देश की राजधानी की ओर अग्रसर हैं, यह उचित ही है कि सुप्रसिद्ध किसान नेता स्व. शरद जोशी के संदेश तथा किसानों की आर्थिक आजादी के लिए उनकी भावपूर्ण पैरोकारी […]
अजीत रानाडे
सीनियर फेलो, तक्षशिला इंस्टीट्यूशन
editor@thebillionpress.org
इस वक्त जब देश के कई हिस्सों में कृषि संकट के दीदार हो रहे हैं और लाखों किसान देश की राजधानी की ओर अग्रसर हैं, यह उचित ही है कि सुप्रसिद्ध किसान नेता स्व. शरद जोशी के संदेश तथा किसानों की आर्थिक आजादी के लिए उनकी भावपूर्ण पैरोकारी की स्मृति ताजा हो जाये. 12 दिसंबर को ‘शेतकरी संगठन’ के इस अनोखे विजनयुक्त संस्थापक की तीसरी पुण्यतिथि भी है, जिसने जोर देकर कहा कि कृषि संकट कुदरत की अनियमितता अथवा बाजारों की चाल से कहीं अधिक हमारी गलत नीतियों का नतीजा है.
बल्कि यह कहना ज्यादा माकूल होगा कि यह संकट बाजार तंत्र से बहुत ज्यादा छेड़छाड़ की वजह से ही पैदा हुआ है. उन्होंने यह दलील दी कि उदारीकरण तथा आर्थिक सुधारों ने बहुत हद तक कृषि को अछूता छोड़ दिया और इनपुट एवं आउटपुट के अलावा परिमाण एवं कीमतों के लिए भी कृषि कई तरह के नियंत्रणों एवं विनियमनों की शिकार बनी रही.
कृषि क्षेत्र के सुधार बाधित, आधे-अधूरे, बेमन से किये गये तथा संकटग्रस्त रहे हैं. हालिया मिसाल के तौर पर एपीएमसी (कृषि उत्पाद बाजार समिति) अध्यादेश के रूप में महाराष्ट्र के उस साहसिक सुधारात्मक प्रयास को लिया जा सकता है, जिसका उद्देश्य किसानों को बिचौलियों के शिकंजे से मुक्ति दिलाना था, पर जिसे राजनीतिक दबाव की वजह से हड़बड़ी में वापस ले लिया गया.
एक अन्य अत्यंत विलंबित सुधार कृषि निर्यातों को मुक्त करने का है, जिसे पिछले ही सप्ताह सदन के पटल पर रखा गया. अभी भी कृषि संकट के ‘समाधान’ के तौर पर कर्जमाफी एवं न्यूनतम समर्थन मूल्यों (एमएसपी) की ही चर्चा होती है, शरद जोशी ने जिनका विरोध आज से पूर्व ही किया होता. हालांकि वर्तमान में जब बड़े पैमाने पर किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं, तब कर्जमाफी की तात्कालिक जरूरत है.
यदि शरद जोशी की इस बात पर पहले ही गौर किया गया होता कि भारत की ज्यादातर गरीबी ग्रामीण तथा कृषि क्षेत्र में व्याप्त है, तो चीजें इस सीमा तक नहीं पहुंचतीं. वे ‘इंडिया बनाम भारत’ की उस शब्दावली को गढ़नेवाले प्रथम लोगों में शुमार थे, जिसने शहरी तथा ग्रामीण भारत, कृषि एवं उद्योग और उदारीकरण द्वारा लाभान्वित एवं गैर-लाभान्वित क्षेत्रों के बीच की बढ़ती खाई को रेखांकित किया.
जोशी ने संयुक्त राष्ट्र की अपनी सेवा से 1976 में त्यागपत्र देकर भारत के किसानों की समस्याओं के अध्ययन का फैसला किया. उन्होंने 27 एकड़ का एक असिंचित भूखंड खरीदा और उसमें खेती आरंभ कर अपनी लागतों एवं आय का सिलसिलेवार हिसाब-किताब रखना शुरू किया. उन्हें यह देखकर बहुत हैरानी हुई कि तथाकथित राजकीय समर्थन के बावजूद माकूल मौसम में भी कृषि फायदेमंद नहीं रह गयी थी.
यदि किसान के खुद के परिश्रम सहित उसमें लगी सभी लागतों का पूरा हिसाब रखा जाये, तो कृषि की लागत उसकी आय से 80 प्रतिशत तक ऊंची बैठेगी. ऐसे में एमएसपी तथा इनपुटों की अनुदानित कीमतें अथवा कर्जमाफी जैसी पारंपरिक राहतें उसका समाधान प्रस्तुत नहीं कर सकतीं, बल्कि वे बाजार तंत्र में हस्तक्षेप कर समस्या की जटिलता बढ़ा भी देती हैं.
इस समस्या से निबटने के लिए लागत तथा कीमत फॉर्मूले के तहत आधी-अधूरी भरपाई ही पर्याप्त न थी, बल्कि आवश्यक वस्तु अधिनियम, अनिवार्य खरीद, निर्यातों एवं अंतिम उपभोक्ता को सीधे विक्रय पर प्रतिबंध समेत पूरे केंद्रीकृत नियंत्रण एवं समाजवादी ढांचे को समाप्त करना आवश्यक था.
इसी तरह, काश्तकारी कृषि (जो यों भी व्यवहार में लायी ही जा रही थी) एवं स्थानीय साहूकारों (जिन्हें अपने ऋणार्थी किसानों की आंतरिक तथा स्थानीय जानकारी रहती है) को वैधानिकता प्रदान कर ऋण-प्रवाह में सुधार लाने की भी जरूरत थी.
जोशी कृषि जिंसों के लिए वायदा कारोबार के समर्थक थे, ताकि किसान सट्टेबाजी द्वारा अपनी हानि एवं जोखिम में कमी ला सकें. जोशी ने खुदरा व्यापार में बड़े निजी, विदेशी अथवा घरेलू निवेश की पैरोकारी भी की होती. उन्होंने किसान उत्पादकों की मिश्रित पूंजी (ज्वाइंट स्टॉक) कंपनियों, कृषि प्रसंस्करण एवं मूल्य शृंखला (वैल्यू चेन) में निवेश का भी समर्थन किया होता. वे कृषि उत्पादों के लिए बिचौलिये रहित समेकित राष्ट्रव्यापी बाजार के शुरुआती पैरोकारों में एक थे और किसानों के लिए मुक्त अंतरराष्ट्रीय बाजार में पहुंच के इच्छुक थे.
परंतु धारा के विपरीत, उन्होंने विश्व व्यापार संगठन एवं कृषि में एक अंतरराष्ट्रीय सौदे का समर्थन किया, क्योंकि वे उदारीकरण में भारतीय किसानों के लिए एक अवसर देखते थे. यों तो हमने जोशी के कुछ विचारों का थोड़ा-बहुत क्रियान्वयन किया है, पर यह अभी भी भारतीय किसानों के लिए उनके विजन के पूर्ण अनुपालन से कोसों दूर ही है. वे किसानों के लिए दया और भीख नहीं, गरिमा तथा आजादी चाहते थे.
भारत के किसान आंदोलन अभी भी बहुत कुछ कृषि ऋणों की माफी, उत्पादों की ज्यादा कीमतें, ज्यादा खरीद, अधिक सब्सिडी तथा ज्यादा सरकारी हस्तक्षेप की मांगों पर आधारित हैं. जोशी का संघर्ष इन सबके लिए नहीं, सभी नियंत्रणों तथा सरकारी दया से मुक्त किसानों की आर्थिक आजादी के लिए था, ताकि वे एक शालीन एवं गरिमामय जीवन जी सकें.
(अनुवाद: विजय नंदन)
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