अनुपम कुमारी
पटना : बिहार में कई पर्व ऐसे हैं, जिन्हें हम लोकपर्व की श्रेणी में रखते हैं. जो किसी क्षेत्र विशेष तक ही सीमित रहता है. इसकी व्यापकता बहुत सीमित होती है. बिहार का ऐसा ही एक लोकपर्व है सामा चकेवा, जो मिथिलांचल के पुरानी संस्कृति और सभ्यता की पहचान है. कार्तिक मास के शुक्लपक्ष की पंचमी तिथि से पूर्णिमा तक चलने वाले इस नौ दिवसीय लोकपर्व में भाई-बहन के सात्विक स्नेह को दर्शाता है. पर्व के दौरान बहन जहां अपने सुहागन बने रहने की कामना करती है वहीं अपने भाई के दीर्घ जीवन की मंगल कामना भी करती है. सामा चकेवा को लेकर एक कहानी है. कहते हैं की सामा कृष्ण की पुत्री थीं जिनपर अवैध संबंध का गलत आरोप लगाया गया था जिसके कारण सामा के पिता कृष्ण ने गुस्से में आकर उन्हें मनुष्य से पक्षी बन जाने की सजा दे दी. लेकिन अपने भाई चकेवा के प्रेम और त्याग के कारण वह पुनः पक्षी से मनुष्य के रूप में आ गयी थी.
मूर्ति बनाकर होती है पूजा
इस पर्व में सामा चकेवा सहित अन्य प्रकार के मूर्तियों को बनाने का रिवाज है. यह कार्तिक मास के शुक्लपक्ष की पंचमी तिथि से शुरू होकर कार्तिक मास के पूर्णिमा की रात को संपन्न होती है. महिलाएं खर के एक सिरे से मिट्टी का लेप चढ़ाकर चुगला, झांझीकुत्ता, सतभईया आदि बनाती हैं. महिलाओं द्वारा समूह बनाकर सामा चकेवा के लोकगीत गाये जाते हैं. इसी कारण मिथिला की संस्कृति आज भी जीवंत बनी हुई है. सामा चकेवा किसी जाति विशेष का पर्व नहीं और न ही यह मिथिला के किसी क्षेत्र विशेष का ही पर्व है, बल्कि यह पर्व हिमालय की तलहट्टी से लेकर गंगा तट तक और चंपारण से लेकर मालदा तक मनायी जाती है. मालदह में बंगला भाषी होने के बाद भी वहां महिलाएं एवं युवती सामा चकेवा की मैथिली गीत गाती हैं.
रात में गीत गाकर करती हैं पूजा
दिन भर जहां महिलाएं व युवतियां सामा चकेवा, खजन चिड़िया, सतभईया, ढोलकिया, सखारी, भंवरा-भंवरी, वृंदावन, कचबचिया, चुगला इत्यादि की मिट्टी की प्रतिमा बनाकर उसे रंग-रोगन कर उसे सजाती हैं. वहीं, शाम ढ़लते ही गांव के टोले में सामा चकेवा की गीत गाती हैं. कार्तिक पूर्णिमा की रात महिलाएं बांस के बने चंगेरा में सामा चकेवा की प्रतिमा को माथे पर लेकर गीत गाती हैं, वहीं इस मौके पर भाई द्वारा चुगला के पुतले को आग से जलाया जाता है. ताकि लोग चुगली करने से डरे. फिर भाई के सुख-समृद्धि एवं लंबी उम्र की कामना करती हैं.
ऐसे करती हैं तैयारी
इस अवसर पर महिलाओं द्वारा मिट्टी से पहले सिरी सामा, फिर चकेवा, सतभैया, खररूची भैया, बाटो बहिनों और पौती का निर्माण अपने हाथों से किया जाता है. उसके बाद कास के खर से वृंदावन और जूट अर्थात सन से चुगला बनाया जाता है. फिर उसे धूप में सूखाकर सारी मूर्तियों को चावल से तैयार पीठार में डूबाकर रंगा जाता है. इसके बाद महिलाएं पूर्णिमा की रात्रि बांस से बने चंगेरे में सामा चकेवा सहित सभी मूर्तियों को रख पौती में नया धान से तैयार चूड़ा एवं गुड़ रखकर मां भगवती के घर ले जाकर सिरी और सामा का आदान-प्रदान करती हैं. इसके बाद मुहल्ले और गांव भर की महिलाएं एकजुट होकर सामा चकेवा का लोकगीत गाते हुए गांव से बाहर जुताई किए गए खेत तक पहुंचकर सामा खेलती हैं.
लोक कला से जुड़ा है पर्व
मिथिला में यह सामा का त्योहार प्राचीन काल से मनाया जाता रहा है. पौराणिक युग से ही मूर्तियों पर चित्रण करने की कला यहां की महिलाओं के संग चली आ रही है, जो इस समय भी लोक चित्रकला के रूप में प्रचलित है.