रविशंकर उपाध्याय
पटना : यदि आप मिथिलांचल में रहते हैं तो आपके वंश की पूरी जानकारी पंजी व्यवस्था में मिल जाती है. इसे आप ऐसा गूगल मान सकते हैं कि बस एक क्लिक करें और एक व्यक्ति की पूरी वंशावली हाजिर. यानी पंजीकार व्यवस्था ऐसी आनुवंशिक विवरणी है, जिसमें किसी व्यक्ति के परिचय की सभी सूचनाएं उपलब्ध हो जाती है. इसमें पिता का नाम, नाना और माता की दादी का नाम और इन तीनों के मूल एवं उनके गांव का नाम दर्ज होता है. इस प्रकार माता एवं पिता की ओर से प्राप्त आनुवंशिक गुणों के आधार पर किसी व्यक्ति की पूरी विवरणी इसमें लिखी रहती है. मैथिली भाषा के विद्वान भवनाथ झा कहते हैं कि सातवीं शती में कुमारिल भट्ट के ग्रंथ में समूह लेख उल्लेख आया है, जो पंजी का ही अव्यवस्थित रूप माना जाता है. सभी वंश के लोग अपने अपने उपयोग के लिए इसे लिखकर रखा करते थे. 1216 शक संवत यानी 1294ई. में हरिसिंहदेव का जन्म हुआ था, उनके जन्म के बत्तीसवें वर्ष में यानी 1326 ई. में पंजी का लेखन व्यवस्थित लेखन आरंभ हुआ. 16वीं शती में रघुदेव ने पंजी-प्रबंध नामक ग्रंथ लिखा जो वर्तमान उपलब्ध पंजी का आधार है.
रक्त संबंधियों के बीच परस्पर वैवाहिक संबंध को राेकती है पंजी-व्यवस्था
पंजी परंपरा के मर्मज्ञ परमेश्वर झा ने पंजी लेखन के दो कारणों का उल्लेख किया है. धर्मांतरण के विरुद्ध अौर मिथिला के बाहर के लोगों के द्वारा विवाह के माध्यम से घुसपैठ कर मिथिला में बस जाने पर रोक लगाने के लिए यह सिस्टम शुरू हुआ. इसके साथ ही रक्त संबंधियों के बीच परस्पर वैवाहिक संबंध को रोकने के लिए पंजी लेखन करने की परंपरा रही है. पंजी प्रबंध करने के लिए पंजीकार का परिवार भी जमाने से चला रहा है. मिथिलांचल से लेकर सीमांचल तक में चंद पंजीकार हीं पूरे इलाके का पंजी प्रबंध सामाजिक कर्मचारी के रूप में करते रहे हैं. मैथिली विद्वान भवनाथ झा कहते हैं कि पंजी व्यवस्था ऐतिहासिक है और कई तरह से लाभकारी भी. यह वंशावली निर्माण एक सामाजिक जरूरत और आनुवंशिकी की जानकारी के लिए एक वैज्ञानिक,कानूनी और तार्किक प्रावधान के रूप में मान्य है.