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राजा के समय शिव मंदिर की 2.80 एकड़ जमीन से शुरू हुआ था विवाद

जमशेदपुर : महुलडांगरी के ग्रामीणों के अनुसार झारखंड-ओड़िशा सीमा विवाद शिव मंदिर की 2.80 एकड़ जमीन से शुरू हुआ जो अब भी कायम है. ग्रामीण बताते हैं कि ओड़िशा क्षेत्र के नेदा ग्राम से 21 चेन (लगभग 420 मीटर) दूर 2 एकड़ 80 डिसमिल जमीन पर शिव मंदिर था. यह मंदिर बारीपदा के महाराजा रामचंद्र […]

जमशेदपुर : महुलडांगरी के ग्रामीणों के अनुसार झारखंड-ओड़िशा सीमा विवाद शिव मंदिर की 2.80 एकड़ जमीन से शुरू हुआ जो अब भी कायम है. ग्रामीण बताते हैं कि ओड़िशा क्षेत्र के नेदा ग्राम से 21 चेन (लगभग 420 मीटर) दूर 2 एकड़ 80 डिसमिल जमीन पर शिव मंदिर था. यह मंदिर बारीपदा के महाराजा रामचंद्र भंज के अंडर में था. 1936 में बंटवारे के बाद यह जमीन धालभूम के महाराज जगदीश चंद्र धवलदेव के पास चली आयी. इस जमीन को लेकर मयूरभंज के राजा रामचंद्र भंज एवं धालभूम के महाराज जगदीश चंद्र धवलदेव के बीच विवाद हो गया.
धालभूम महाराज ने कहा कि यह क्षेत्र उनका है तो जमीन का वह छोटा टुकड़ा कैसे दे देंगे. इसको लेकर रामगढ़ के राय बहादुर के कोर्ट में केस दायर किया गया. उसके बाद से जमीन का विवाद चलता आ रहा है और कई सौ एकड़ जमीन ओड़िशा के कब्जे में जा चुकी है. द्वितीय विश्वयुद्ध छिड़ने के कारण सीमा आयोग को नहीं सौंपा जा सका मामला.
सीमा विवाद के समाधान के लिए गृह मंत्रालय के परामर्शी केवीके सुंदरम द्वारा 6 जनवरी 1976 को की गयी बैठक में बिहार के भू अभिलेख एवं परिमाप निदेशक सह अपर सचिव अभिमन्यु सिंह ने बताया था कि विवादित क्षेत्र में कोरिया नाला सीमा निर्धारित करता है, जिसे ओड़िशा भी स्वीकार करता है. सीमा का निर्धारण सबसे पहले श्री द्रवे द्वारा 1887 द्वारा में किया गया था, उसके बाद श्री रीड ने 1906-07 में तथा श्री टेलर ने 1934- 36 में इसी पुरानी रेखा के अनुसार सीमा निश्चित की.
1962 में सिंहभूम में जो सर्वेक्षण हुआ उसके अनुसार भी यही सीमा निर्धारित थी. मयूूरभंज दरबार द्वारा कोरिया नाला जहां स्वर्णरेखा नदी में मिलती है, उस स्थल को लेकर आपत्ति की गयी थी और बिहार एवं ओड़िशा द्वारा मामले को सीमा आयोग को सौंपने का निर्णय लिया गया था. द्वितीय विश्व युद्ध छिड़ जाने के कारण इस निर्णय पर क्रियान्वयन नहीं हो सका. भारतीय सर्वेक्षण संस्थान द्वारा 1927-28 में कोरिया नाला को सीमा दर्शाया गया था, जैसा बिहार के नक्शे में दर्शाया गया था.
चोरी-छिपे मिट्टी लाकर की जाती है पूजा
ग्रामीणों के अनुसार पूर्वजोंं से यह जानकारी मिली है कि ओड़िशा जाने के दौरान सम्राट अशोक ने इस शिव मंदिर में पूजा की थी. उस समय शिवलिंग छोटा था. पुरातत्व विभाग ने भी पुष्टि की है कि यह शिव लिंग-मंदिर पाल साम्राज्य के समय (लगभग 6 सौ वर्ष) में बना है. शिवलिंग को 1914 में लाया गया और 1921 में प्राण-प्रतिष्ठा कर महुलडांगरी में मंदिर बनाया गया. महाराज द्वारा छह अलग-अलग आकार की पीठ बनायी गये और तब से अब तक पूजा-अर्चना की जाती है.
हर साल अप्रैल माह में एक खास पर्व पर पूजा के लिए ओड़िशा से मिट्टी लायी जाती है. राजा के समय पर्व पर मिट्टी लाने से रोकने के लिए सेना बैठा दी जाती थी. तो चोरी-छिपे मिट्टी लाया जाने लगा. अब भी हर साल चोरी-छुपे मिट्टी लाकर पूजा की जाती है.
ओड़िशा सरकार का क्या है दावा
गृह मंत्रालय की परामर्शी की बैठक में ओड़िशा सरकार के प्रतिनिधि ने बताया था कि कोरिया नाला जहां स्वर्णरेखा नदी के हाई बैक को काटता है वहीं उसे स्वर्णरेखा नदी में मिल जाना मानना चाहिए तथा इस बिंदु से 90 डिग्री के समकोण पर एक रेखा खींची जानी चाहिये जो स्वर्णरेखा नदी की मध्य धारा को काटे. ओड़िशा सरकार के प्रतिनिधि ने कहा था कि अब जो भी नक्शे बनाये गये वह ब्रिटिश हुकूमत द्वारा बनाये गये थे और एकतरफा कार्रवाई की गयी थी. विवादित स्थल में सीमा क्या होगी इसे मयूरभंज दरबार ने कभी स्वीकार नहीं किया था. सीमास्थल पर हुई संयुक्त बैठक में ओड़िशा की टीम ने चार गांव छेड़घाटी काशीपाल, सोनापेट पाल, स्वर्णरेखा नदीपाल एवं स्वर्णरेखा नदी को काल्पनिक बताया था.

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