हरिवंश
उपसभापति, राज्यसभा
गांधी चरखा कातते, लिखते, गरीबों का इलाज करते और सबसे अधिक दुखियारों का दुख बांटते. तड़के सुबह से देर रात तक घूमते. वे चार घंटे से अधिक कभी नहीं सोते. इसके बाद भी वह उसी तरह से चुस्त, चौकस और अपने लिए खुद से तय किये काम के प्रति सजग. मनु गांधीजी के लिए खाना बनातीं. वह उनके सूजे पैरों को धोतीं. गांधी नंगे पांव घूमते और लोगों से हुई बातचीत का नोट भी रखते.
वे मानते थे कि उनके सजग, चुस्त और सक्रिय रहने का राज ईश्वर की कृपा है. नोआखाली में ऐसे भी क्षण आये, जब गांधीजी ने खुद खाना बनाने, अपने कपड़ों को साफ करने का काम किया. जाड़े की एक शाम सूखी लकड़ियों से मनु ने गांधी के लिए पानी गर्म किया, ताकि वह ठंड में अपने हाथ और चेहरा सोने से पहले धो सकें. गांधी नाराज थे. उन्होंने मनु से कहा- जहां लोगों के पास लकड़ियां नहीं, गोबर के उपले नहीं, ताकि वे अपनी रोटियां सेंक सकें, वहां मेरे चेहरे को धोने के लिए लकड़ियों से गर्म पानी करना सही नहीं है.
देश में अंतरिम सरकार थी. सरदार पटेल गृहमंत्री थे. वे नोआखली और पूर्वी बंगाल में गांधीजी की सुरक्षा को लेकर काफी चिंतित थे. गांधी ने पटेल को पत्र लिखा-‘देयर इज वन’ सिर्फ एक है… जो सबसे ऊपर है. जो मेरी देखभाल करेगा और वह पूरी तरह सक्षम है.’ सिर्फ इतने ही शब्दों में गांधी ने सबकुछ कह दिया.
उन्हीं दिनों का एक और प्रसंग है. किसी ने दक्षिण भारत में हरिलाल गांधी को देखा और गांधी को लंबा पत्र लिखा कि गांधी के 58 वर्षीय पुत्र अपनी उम्र से ज्यादा उम्रदराज और बूढ़े हो गये हैं. गांधी को नहीं पता था कि नोआखाली के इस गांव से अपने पुत्र से कैसे संपर्क कर सकें? 22 जनवरी को गांधी ने जिस व्यक्ति के माध्यम से पत्र आया था, उन्हीं के जरिये एक पत्र भेजा और अपने पुत्र हरिलाल को नोआखली आमंत्रित किया.
आज,जब टेक्नालॉजी के दौर में हर इंसान अकेला पड़ रहा है, आपस में दूरी बढ़ रही है, तब गांधी की जरूरत महसूस होती है. कोई इंसान निकले जो गांधी से प्रेरित होकर आपसी द्वेष-नफरत को धो सके. सबको बता सके कि यह जाति, मजहब, धर्म, संप्रदाय… सब बहुत बाद की बातें हैं. मूल तौर पर दुनिया का इंसान एक है. सबका डीएनए एक है.
हालांकि हरिलाल गांधी नहीं आ सके. यह गांधी के जीवन में वह समय था, जब महादेव देसाई और कस्तूरबा, दोनों गांधी के जीवन से जा चुके थे. 1942 में पुणे में यरवदा जेल में बंद होने के दौरान, ये दोनों दुनिया से विदा हो गये थे. 1942 में महादेव देसाई की मृत्यु हुई और 1944 में कस्तूरबाजी की. गांधी का जीवन अधिक अकेला ओर पहले से अधिक कठिन था.
1947 में शिवरात्रि का पर्व 19 फरवरी को पड़ा. शिवरात्रि को ही कस्तूरबा दुनिया से विदा हुई थीं. गांधीजी उस दिन नोआखली के विरकपुर गांव में थे. शाम 7.35 में गांधी ने अपनी डायरी में लिखा- आज ही के दिन ठीक इसी समय बा ने अपना भौतिक शरीर छोड़ दिया था.
निर्मल बोस, जो उनके सहयात्री भी थे, अनुवादक भी, उन्हें लगा कि गांधी खुद अपनी उम्र के इस पड़ाव पर अपने परफेक्शन पर सवाल उठाते हैं. परखते हैं. अपनी पूर्णता पर खुद आत्ममंथन करते हैं, अपना विश्लेषण करते हैं. निर्मल बोस की नजर में शायद गांधी की इस प्रवृत्ति ने उन्हें अधिक संवेदनशील और दूसरों की पीड़ा में गहराई तक उतरनेवाला इंसान बनाया.
ऐसे ही गांधी के संपर्क में आकर सामान्य लोग, महिलाएं अपने दुख से ऊपर उठने का एहसास करती थीं. निर्मल बोस का काम था कि गांधी के उद्धरणों को, जो वह नोआखली में कहते, संकलित करना. गांधी ने निर्मल बोस को कहा कि वह इन कथनों से भ्रमित न हों, वह गांधी के उन उद्धरणों से प्रभावित न हों. गांधी कहते कि वह आकांक्षाओं के प्रतीक हैं, उपलब्धियों के नहीं.
निर्मल बोस ने गांधी की इस टिप्पणी पर रवींद्रनाथ टैगोर को उद्धृत किया. उन्होंने कहा कि टैगोर कहते हैं- ‘एक आदमी की परख या मूल्यांकन, उसके जीवन के सर्वश्रेष्ठ क्षणों से होना चाहिए, जब उसने अपना सबसे उदात्त सृजन किया हो, बजाय इसके कि रोजाना जीवन में, जो छोटी-छोटी चीजें होती हैं, उससे उसका मूल्यांकन हो.’
गांधी की भूमिका को इसलिए भी याद करना जरूरी है कि दुनिया स्तर पर जोड़नेवाली ताकतें कम हैं. मनुष्यता छीन लेनेवाली ताकतें बहुत. मनुष्य को मनुष्य बनानेवाली ताकतें कम. गांधी एकमात्र उस प्रखर रोशनी की तरह मौजूद हैं, जिससे भविष्य का रास्ता दिखता है.
निर्मल बोस के टैगोर के उस उद्धरण के जवाब में गांधीजी ने जो कहा, उससे निर्मल बोस हतप्रभ रह गये. गांधीजी ने कहा, “हां यह सही है, पर एक कवि के लिए, क्योंकि उसे तो आसमान के तारों की रोशनी इस धरती पर उतारना है, लेकिन मेरे जैसे आदमी को तौलने के लिए जीवन के बड़े क्षणों से आपको नहीं मापना होगा, बल्कि इस बात से आंकना होगा कि वह अपनी जीवन-यात्रा में अपने पैरों पर कितने धूल एकत्र करता है.”
गांधीजी नोआखली के तनाव में काम करते हुए एक अलग राह बना रहे थे. देखते ही देखते उनका असर कई गांवों में फैल चुका था. मुस्लिम समाज के बड़े बुजुर्ग, जो मुस्लिम, हिंदू पड़ोसियों के साथ अन्याय या क्रूरता करते दिखते, उन्हें समझाते. इस तरह मुस्लिम इलाके से जो हिंदू भाग गये थे, उन इलाकों के मुस्लिम बुजुर्गों ने हिंदुओं को वापस गांव बुलाया. फिर प्रार्थना या भजन शुरू हो गया. शंख बजने लगे. हिंदू औरतें फिर से सिंदूर लगाने लगीं, चूड़ियां पहनने लगीं.
भठियालपुर गांव में मुस्लिमों ने यह प्रतिज्ञा की कि वह अपना जीवन खतरे में डाल देंगे, लेकिन हिंदू भाइयों को बचायेंगे. उनकी लूटी संपत्ति और अपहरण की गयी औरतों को लौटा देंगे. मंदिर की एक मूर्ति उस मुस्लिम ने वापस की, जिसने तोड़ा था. अलग-अलग गांव में गांधी गये. गांधी के जाने का चमत्कार और असर हुआ.
अब्दुस सरा वह महिला थीं, जो हमेशा कुरान के साथ सोती थीं. शिरडी गांव में वह भूख हड़ताल पर गयीं और कहा कि जो तलवार हिंदुओं के खिलाफ इस्तेमाल की गयी, जब तक वह तलवार समर्पित नहीं की जाती यानी जब तक सरेंडर नहीं किया जाता, तब तक वह उपवास नहीं तोड़ेंगी. वह जब तक उपवास करती रहीं, गांधीजी हर रोज एक पत्र लिखते.
कभी-कभी दो-दो पत्र लिखते. 25 दिनों बाद जब तलवार वापस नहीं हुई, तो गांधीजी ने उन्हें सहमत कराया कि आप अपना उपवास तोड़ दें. 20 जनवरी को उन्होंने उपवास तोड़ा. शिरडी गांव के 11 मुसलमानों ने संकल्प लिया कि वे हिंदुओं के अधिकार की रक्षा करेंगे, ताकि वे अपने धर्म के अनुसार जीवन जी सकें, अपनी आस्था पर चल सके. यह थे गांधी. इसी तरह गांधी ने पंजाब और बिहार के हिंदू इलाकों में जाकर जिन मुसलमानों के साथ ऐसी क्रूरता हुई, उनके जीवन में पुन: रोशनी लौटे, इसके लिए काम किया.
गौर करनेवाली बात है कि पब्लिक फ्रंट पर गांधी जो कर रहे थे, वह तो कर ही रहे थे, अपने एकाकीपन से जूझते हुए भी व्यक्तिगत स्तर पर भी बिना भटकाव के, पूरे अनुशासन से जो कर रहे थे, वह एक अलग मूल्य स्थापित कर रहा था. मानव इतिहास के एक नये अध्याय का लेखन था.
नोआखली की घटना से बिहार जलने लगा था. पांच मार्च को गांधी बिहार आये. वहां बलवाइयों ने उनके आते ही आत्मसमर्पण करना शुरू किया. वे गांव में जहां जाते, हिंदूबहुल इलाकों से पीड़ित मुसलमानों के लिए लोग उन्हें पैसे देते. महिलाएं जेवर देतीं. नोआखली और कलकत्ता में परिजनों की हत्या के बाद बिहार के हिंदू अलग मूड में थे. आक्रामक.
अखबारों के समाचार आग में घी का काम कर उनकी आक्रामकता को और बढ़ा रहे थे. अजीब माहौल था बिहार में. खबर उठी कि बंगाल में हिंदुओं के मारे जाने के विरोध में बिहार के हिंदुओं ने पर्व-त्योहार नहीं मनाने का फैसला किया है. जो स्थिति थी, सो थी ही, अखबार अलग से अफवाह फैला रहे थे. तनाव चरम पर था. पटना, छपरा, भागलपुर, संताल परगना और गया जिले दंगे की आग में झुलसने लगे थे, लेकिन गांधी बिहार को जानते थे. उनका बिहार पर अपने तरीके का खास असर था.
गांधी ने बिहार आने से पहले नोआखली में ही घोषणा कर दी थी कि वह हर रोज आधे दिन का उपवास तब तक रखेंगे, जब तक बिहार का पागलपन बंद नहीं होगा. गांधी की इस घोषणा का असर पड़ा. सरकार चला रहे नेताओं को गांधी ने फटकार लगायी कि वे सत्ता पाकर सुस्त हो गये हैं, उनकी अहिंसा ऐशोआराम में डूबी जा रही है. गांधीजी ने कहा कि जिन नेताओं ने दंगे में भाग लिया है, उन्हें तुरंत पुलिस के सामने आत्मसमर्पण करना चाहिए. कांग्रेस एक जांच आयोग बनाकर ऐसे लोगों की पहचान करे.
गांधी ने नोआखली में जिस तरह से हिंदुओं को उनके अपने गांव, अपने घर वापस करवाने की कोशिश की थी, वैसे ही कोशिश बिहार में मुसलमानों को अपने गांव, अपने घर वापस करवाने की की. गांधी ने आह्वान किया कि वह बिहार की रक्षा अपने प्राण देकर भी करेंगे. जो मुसलमान उजड़ गये थे, उनको राहत पहुंचाने के लिए चंदा इकट्ठा करने का काम शुरू हुआ. राहत शिविर बने. विस्थापितों के कैंप में गांधी दौरा करते रहे. गांधी ने राहत शिविर के नियम बनाये. 20 मार्च, 1947 को बिहार की पुलिस ने हड़ताल कर दी.
परेशानी और बढ़ी, लेकिन जयप्रकाश नारायण के सहयोग से गांधी ने पुलिस की हड़ताल खत्म करवायी. गांधी सार्वजनिक मोर्चे पर लड़ाइयां जीत रहे थे, नयी राह बना रहे थे, लेकिन राजनीति के मोर्चे पर, अपने ही लोगों से हार रहे थे. जूझते गांधी ने अपना ध्यान जलते देश को शांत करने में ही ज्यादा लगाया.
15 नवंबर, 1947 को कृपलानी ने कांग्रेस के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया. गांधी उस कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में शरीक हुए, जिसमें कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव होना था. उस दिन महात्मा गांधी मौन थे. जब नामांकन होने लगा, तो गांधी ने अपने प्रत्याशी का नाम एक कागज पर लिख कर नेहरू को दिया. नेहरू ने पढ़ कर उसे सभी को सुनाया. गांधी के प्रत्याशी थे आचार्य नरेंद्रदेव. नेहरू ने अपनी सहमति दी. बाकी लोगों ने विरोध किया.
10 बजे सुबह कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक स्थगित हो गयी, पर गांधी की इच्छा के खिलाफ कांग्रेस अध्यक्ष बनाये गये. गांधी को सत्ता चला रहे चोटी के नेताओं और सरकार में बैठे अपने लोगों ने ही परास्त कर दिया. अंतिम दिनों में अपने ही घर में अनजाने हो गये थे. ऐसे तमाम तरह के उतार-चढ़ाव आते रहे. राजनीतिक मोरचे पर गांधी अपनों से हारते रहे, लेकिन जनता के बीच वह भरोसे के प्रतीक बनते गये. नोआखली से लेकर बिहार,पंजाब, हरियाणा तक, जहां-जहां अशांति फैली, गांधी इसी तरह से लोगों को समझाकर शांत करते रहे.
लेकिन यह सब करते हुए गांधीजी अपनी धुन में मगन थे. वह सत्ता के सियासी नेताओं की गतिविधियों से अपने को दूर कर रहे थे. जिस दिन पूरे देश में आजादी का जश्न मनाया जा रहा था यानी 15 अगस्त 1947 को, उस दिन कलकत्ता में रुके गांधी न तो किसी बड़े समारोह में शामिल हुए, न किसी छोटे उत्सव में. उनकी दिनचर्या अपने तरीके से थी. उस दिन सुबह-सुबह उन्होंने लंदन की अपनी मित्र अगाथा हैरिसन को पत्र लिखा. फिर रामेंद्र सिन्हा को गांधी ने खत लिखा. रामेंद्र सिन्हा के पिता दंगा रोकने की कोशिश में अपनी जान गंवा चुके थे.
पश्चिम बंगाल के मंत्री गांधी से मिलने पहुंचे. गांधी ने उन्हें कहा कि सत्ता तो मिल गयी है, लेकिन यह कांटों का ताज है. सावधान रहियेगा. सबसे पहले एक इंसान की तरह विनम्रता को बनाये रखियेगा. याद रखियेगा कि यह सत्ता भारत की बड़ी आबादी, जो गांवों में रहती है, गरीब है, उनकी सेवा के लिए मिली है. उस दिन गांधी से मिलने सी राजगोपालाचारी आये.
राजगोपालाचारी गांधीजी को कलकत्ता में दंगे को शांत करने के लिए बधाई देने आये थे. गांधीजी ने राजगोपालाचारी को कहा कि कोशिश इस बात की हो कि हिंदू और मुसलमान, दोनों सामान्य रूप से एक-दूसरे के साथ सुरक्षित महसूस करें. 15 अगस्त, 1947 को ही गांधी से मिलने कुछ छात्र आये, कम्युनिस्ट नेता आये.
गांधी ने छात्रों को कहा कि आप लोग युवा हैं. याद रखियेगा कि भारत में रह रहे किसी भी व्यक्ति को कभी इसलिए परेशान नहीं किया जाना चाहिए कि उनका धर्म दूसरा है. कम्युनिस्ट नेताओं को गांधीजी ने समझाया कि साम्यवादी हों या समाजवादी, अब सबको आपसी मतभेद भुलाकर देश बनाने की कोशिश होनी चाहिए.
यह सब करने के बाद गांधीजी उस दिन प्रार्थना सभा संबोधित करने पहुंचे, तब तक उन्हें यह सूचना मिल चुकी थी कि आज के दिन हिंदू और मुसलमान, दोनों साथ मिलकर तिरंगा लहरा रहे हैं. हिंदू, मुसलमानों को मंदिर ले जा रहे हैं, मुसलमान हिंदुओं को मस्जिद में. गांधीजी खुद किसी सरकारी या गैर सरकारी जश्न में शामिल नहीं हुए, लेकिन वह लोगों को समझा रहे थे कि यह याद रखना होगा कि किसी सरकारी संपत्ति का नुकसान नहीं होना चाहिए, इससे उन्हें दुख होगा. और गांधी ने बार-बार उस दिन इस बात पर जोर दिया कि यह जो आजादी मिली है, उसका इस्तेमाल संयम और बुद्धिमानी से करना है.
(साभार : बीबीसी)
गांधी के आखिरी दिनों से जुड़े ऐसे ढेरों प्रसंग हैं. उन प्रसंगों से अलग बड़ा सवाल यह है कि गांधी आज क्यों याद किये जाने चाहिए? आज, जब टेक्नालॉजी के दौर में हर इंसान अकेला पड़ रहा है, आपस में दूरी बढ़ रही है, तब गांधी की जरूरत महसूस होती है. कोई इंसान निकले जो गांधी से प्रेरित होकर आपसी द्वेष-नफरत को धो सके. सबको बता सके कि यह जाति, मजहब, धर्म, संप्रदाय… सब बहुत बाद की बातें हैं.
मूल तौर पर दुनिया का इंसान एक है. एक माटी-पानी से बना हुआ. आज दुनिया के वैज्ञानिक संधान-अनुसंधान करते हुए प्रामाणिक तरीके से निष्कर्ष निकाल चुके हैं कि इस दुनिया में सभी इंसानों की उत्पत्ति एक ही जगह से हुई है. सबका डीएनए एक है. गांधी यह बात तभी जोर देकर कहते थे, सबको समझाते थे कि सब इंसान एक ही हैं.
आज गांधी की इस भूमिका को इसलिए भी याद करना जरूरी है कि दुनिया स्तर पर जोड़नेवाली ताकतें कम हैं. मनुष्य की मनुष्यता छीन लेनेवाली ताकतें बहुत. मनुष्य को मनुष्य बनानेवाली ताकतें कम. इस संदर्भ में गांधी एकमात्र उस प्रखर रोशनी की तरह मौजूद हैं, जिससे भविष्य का रास्ता दिखता है. विल डूरंट ने कहा था कि, ‘इतिहास वह प्रकाश है, जो वर्तमान को स्पष्ट करता है, साफ करता है और भविष्य का रास्ता दिखाता है.’
गांधी के इन प्रसंगों से मौजूदा संवेदनहीन होते समाज को आत्मनिरीक्षण का मौका मिलेगा कि समाज और दुनिया कैसे कायम रह सकते हैं, भविष्य में इसका रास्ता क्या हो सकता है? इसलिए आज गांधी को 150वीं जन्मशती के अवसर पर इस रूप में याद करना जरूरी है. ‘रीडर्स डाइजेस्ट’ पत्रिका का जब 50वां विशेषांक निकला,लुइश फिशर ने उसमें गांधी से संबंधित एक लेख लिखा. उस लेख का प्रसंग है. एक बार मुंबई के एक सख्त धनकुबेर या संगदिल धनी ने कहा कि स्वर्ग के द्वार गांधी की प्रतीक्षा में खुले थे, लेकिन गांधी ने स्वर्ग द्वारों को प्रतीक्षारत रखा. अपने जीवन के आखिरी दिन, आखिरी क्षण तक वह धरती को ही स्वर्ग बनाने में लगे रहे. धरती को जीते जी इंसान आपस में मिल कर कैसे स्वर्ग बना सकें, यह रास्ता तो गांधी ही बताते हैं, इसलिए उनकी 150वीं जन्मशती पर उनकी स्मृति प्रेरक और पाथेय है. (समाप्त) Â
15 अगस्त 1947 को गांधीजी द्वारा लिखे गये दो पत्र
लंदन की अपनी मित्र अगाथा हैरीसन को पत्र
मिस अगाथा हैरीसन
ओल्ड जॉर्डन हॉस्टल
बीकंसफील्ड बक्स के पास, एसडब्ल्यू-2
यह पत्र मैं चरखा कातते हुए लिख रहा हूं. तुम्हें पता है कि आज जैसे बड़े अवसरों को मनाने का मेरा तरीका यह है कि मैं भगवान को धन्यवाद देता हूं और इसलिए पूजा करता हूं. पूजा के साथ उपवास रखना भी जरूरी है, अगर फलों का रस लेने के बाद भी ऐसा कहा जा सकता है, और इसके बाद गरीब-गुरबों के संघर्ष से जुड़ने और समर्पण के लिए चरखा कातना जरूरी है. इसलिए मुझे जितना चरखा मैं रोज कातता हूं, उससे कभी संतुष्ट नहीं होना चाहिए और अपने दूसरे कामों के साथ जितना हो सके, उतना इसे करना चाहिए.
मुझे अमृत (राजकुमारी अमृत कौर) के हाथों सुबह चार बजे तुम्हारा पहला पत्र मिला. उसके द्वारा मुझे तुम्हारा दूसरा पत्र भी मिला. इसे पश्चिम बंगाल के गवर्नर, राजाजी लेकर आये थे, लेकिन वह खुद नहीं आ सके. उनके घर को उनके प्रशंसकों ने बहुत बड़ी संख्या में घेरा हुआ है. इसलिए वह अपने ही घर में कैदी हो गये हैं. उन्होंने अपने सचिव के हाथों राजकुमारी (अमृत कौर) का पैकेट भिजवा दिया.
तुमने विंटर्टन के भाषण में मेरा जिक्र किया, लेकिन तुम्हें जानकर आश्चर्य होगा कि उसे मैंने नहीं पढ़ा है. इंडिपेंडेस बिल पर हुई बहस के दौरान हुए भाषणों को भी मैं नहीं पढ़ सका. मुझे अखबार पढ़ने का समय ही नहीं मिलता. उनके कुछ हिस्से या तो मुझे पढ़कर सुनाये जाते हैं या मैं कभी-कभार उन पर नजर मार लेता हूं.
इससे क्या फर्क पड़ता है कि कौन मेरे बारे में अच्छा या बुरा कहता है, अगर मैं बुनियादी रूप से सही हूं. तुम्हें और मुझे तो जितना अच्छे से हो सके, अपने काम करने चाहिए और खुश रहना चाहिए. इसलिए अखबारों से छुट्टी. अब मैं चरखा बंद करने वाला हूं और मुझे और काम करने हैं.
सभी हमारे मित्रों को मेरा प्यार. मुझे यह जानकर प्रसन्नता हुई कि कार्ल हीथ इतने स्वस्थ थे कि तुम्हारे द्वारा बताये सम्मेलन की अध्यक्षता कर सके. मेरी कितनी इच्छा है कि मैं तुम्हें यहां जो चल रहा है, उसके बारे में बताऊं. शायद होरेस बतायेंगे. वह कुछ दिनों तक मेरे साथ थे और कल रात ही गये हैं.
प्यार.
बापू
रामेंद्र सिन्हा के नाम पत्र
रामेंद्र जी सिन्हा
गोपाल मलिक लेन, बोबाजार
कलकत्ता
प्रिय मित्र,
मुझे आपकी बात माननी पड़ेगी कि आपके पिता में वीरों वाली अहिंसा थी. ऐसे लोग कभी नहीं मरते. उनके लिए शरीर के नाश का कोई अर्थ नहीं है. इसलिए ऐसे वीर पिता की मृत्यु के लिए आपका या आपकी मां का या फिर किसी का भी शोक करना ठीक नहीं है. अपनी इस मृत्यु से उन्होंने ऐसी समृद्ध विरासत छोड़ी है, जिसके बारे में मुझे आशा है कि आप सब लोग खुद को उसके योग्य साबित करेंगे. सबसे अच्छी सलाह मैं यही दे सकता हूं कि आज हमें जो आजादी मिली है, उसको बनाये रखने के लिए आप सबको हरमुमकिन कोशिश करनी चाहिए. और जो पहला काम आप कर सकते हैं, वह है अपने पिता की वीरता का अनुकरण.
अहिंसा से भरी वीरता कई तरह से दिखाई जाती है. इसके लिए जरूरी नहीं है कि आपको किसी हत्यारे के हाथ मरना पड़े. इसमें कोई दो राय नहीं कि अगर आप के प्रियजनों की मृत्यु के लिए आपको उचित न्याय मिलता है, तो यह भी अपने आप में बड़ी मुश्किलों से हासिल हुई आजादी को बनाये रखने में एक योगदान होगा.
आपका
एमके गांधी
नोट: रामेंद्र सिन्हा ने बापू को लिखा था कि कैसे दंगों को रोकने की कोशिश में उनके पिता की जान चली गयी.
(दोनों पत्र साभार: सत्याग्रहडॉटकॉम)