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आत्मघाती अवमानना

उत्सव एवं उत्सवधर्मिता सभ्यता के सौंदर्य को बढ़ाते हैं. दीपावली ऐसा ही एक अवसर है, पर बढ़ते प्रदूषण में पटाखों द्वारा हम इसे जानलेवा बनाने पर तुले हैं. दिल्ली समेत समूचा देश दमघोंटू हवा से जूझ रहा है, जिसके कारण सांस लेना भी मुश्किल होता जा रहा है. इस समस्या को ध्यान में रखते हुए […]

उत्सव एवं उत्सवधर्मिता सभ्यता के सौंदर्य को बढ़ाते हैं. दीपावली ऐसा ही एक अवसर है, पर बढ़ते प्रदूषण में पटाखों द्वारा हम इसे जानलेवा बनाने पर तुले हैं.

दिल्ली समेत समूचा देश दमघोंटू हवा से जूझ रहा है, जिसके कारण सांस लेना भी मुश्किल होता जा रहा है. इस समस्या को ध्यान में रखते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली में पटाखों पर पाबंदी लगायी थी और अन्य राज्यों में नियत समय के भीतर ही पटाखे चलाने की अनुमति दी थी. लेकिन, हर जगह इन निर्देशों की अवहेलना हुई है.

हालांकि, पटाखों की बिक्री नियंत्रित करने के प्रयास प्रशासन द्वारा किये गये थे तथा आदेशों के उल्लंघन के आरोप में हजारों लोगों के विरुद्ध शिकायतें भी दर्ज की गयी हैं, लेकिन मुख्य प्रश्न यह है कि लोग यदि अपने और अपने परिजनों के स्वास्थ्य की चिंता ही नहीं करेंगे, तो फिर किसी भी उपाय को कारगर ढंग से कैसे लागू किया जा सकता है.

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अध्ययन के अनुसार, वैश्विक स्तर पर सबसे प्रदूषित 12 शहरों में 11 भारत में हैं. ग्रामीण क्षेत्रों में भी स्थिति बहुत खराब है. वर्ष 2015 में वायु प्रदूषण से जुड़े कारणों से हुई 11 लाख मौतों में से 75 प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्रों में हुई थीं. ऐसे में हवा में पटाखों का बारूदी जहर घोलना आत्मघाती ही है.

संतोष की बात है कि इस दीपावली में पटाखों की बिक्री 40 प्रतिशत कम हुई है और अनेक स्थानों पर सजग नागरिकों ने बिना शोर-शराबे के त्योहार का आनंद लिया है. लेकिन, इसके बावजूद जो पटाखे चलाये गये हैं, उनसे हर जगह प्रदूषण बढ़ा है. पुलिस और प्रशासन से कड़ी निगरानी और कार्रवाई की अपेक्षा उचित है, पर न्यायालय के निर्देशों की अवहेलना का पूरा दोष इनके माथे मढ़ देना ठीक नहीं है. समाज और समाज में बसनेवाले नागरिकों को भी अपनी कमियों का आत्ममंथन करना चाहिए. बीमारियों और सांस लेने में दिक्कत का अनुभव तो सभी के पास है.

प्रदूषण से जुड़े आंकड़े और अध्ययन भी अक्सर चर्चा के विषय बनते हैं. पारंपरिक मीडिया और सोशल मीडिया में भी इन मुद्दों पर बहस होती रहती है. इन सब के बाद भी अगर हम जागरूक नहीं हो रहे हैं या होना नहीं चाहते हैं, तो इसका मतलब यही है कि हम सामूहिक आत्मघात की ओर बढ़ रहे हैं.

पटाखे चलाने से पहले अपना नहीं, तो कम-से-कम अपने परिवार के बच्चों और बुजुर्गों का तो ख्याल करना चाहिए. हद तो यह है कि लोग पटाखों का कचरा भी बाहर छोड़ देते हैं. यदि हम ऐसा नहीं कर पा रहे हैं, तो फिर हमारी शिक्षा और समृद्धि का क्या अर्थ रह जायेगा? कुछ देर की कथित मस्ती के लिए हम जिस हवा में जहर फैला रहे हैं, इसी हवा में सांस लेकर हमें जीवित रहना है.

जागरूकता के साथ यह भी आवश्यक है कि पटाखों और प्रदूषण के संबंध में नियमों और निर्देशों का पालन सुनिश्चित किया जाये. सरकार और समाज के स्तर पर वायु प्रदूषण को रोकने के लिए हर संभव उपाय करने होंगे, अन्यथा हम घुट-घुटकर जीने और मरने के लिए अभिशप्त रहेंगे.

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