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सीबीआइ की साख पर सवाल

आशुतोष चतुर्वेदी प्रधान संपादक, प्रभात खबर ashutosh.chaturvedi @prabhatkhabar.in किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में प्रशासनिक प्रतिष्ठान एक तरह से उसकी नींव होते हैं. लोकतंत्र का भविष्य इससे तय होता है कि ये प्रतिष्ठान कितने मजबूत हैं. इनमें एक प्रतिष्ठान सीबीआइ भी है. यह सच है कि सीबीआइ को लेकर समय-समय पर सवाल उठते रहे हैं, लेकिन […]

आशुतोष चतुर्वेदी
प्रधान संपादक, प्रभात खबर
ashutosh.chaturvedi
@prabhatkhabar.in
किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में प्रशासनिक प्रतिष्ठान एक तरह से उसकी नींव होते हैं. लोकतंत्र का भविष्य इससे तय होता है कि ये प्रतिष्ठान कितने मजबूत हैं. इनमें एक प्रतिष्ठान सीबीआइ भी है.
यह सच है कि सीबीआइ को लेकर समय-समय पर सवाल उठते रहे हैं, लेकिन अब भी लोगों का भरोसा उस पर कायम है. जब भी कोई ऐसा मामला सामने आता है जिसे राज्य की पुलिस नहीं सुलझा पाती, तो लोग मांग करते हैं कि सीबीआइ को जांच सौंपी जाए . इसकी वजह भी है कि सीबीआइ ने अनेक जटिल मामलों को सुलझाया है. लेकिन, इन दिनों देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी सीबीआइ में भारी उथलपुथल मची हुई है.
वह अभूतपूर्व संकट के दौर से गुजर रही है. और यह संकट बाहरी नहीं, आंतरिक है. दो आला अधिकारी निदेशक आलोक वर्मा और विशेष निदेशक राकेश अस्थाना एक-दूसरे से गुत्थमगुत्था हैं. परिस्थिति की गंभीरता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि यह मामला सुप्रीम कोर्ट से लेकर सड़कों तक जा पहुंचा है. निदेशक के खिलाफ सीवीसी भ्रष्टाचार की जांच कर रहा है.
इसकी शिकायत विशेष निदेशक अस्थाना ने की है. जवाब में निदेशक ने विशेष निदेशक के खिलाफ भ्रष्टाचार को लेकर एफआइआर करा दी है और उनका एक मातहत गिरफ्तार कर लिया गया है.
सीबीआइ में नंबर एक और नंबर दो अधिकारी के बीच झगड़े के कारण परिस्थितियां बेकाबू होती नजर आ रही थीं. इसको देखते हुए केंद्र सरकार ने दोनों अधिकारियों को छुट्टी पर भेज दिया. सुप्रीम कोर्ट ने भी मामले में हस्तक्षेप करते हुए केंद्रीय सतर्कता आयोग से दो सप्ताह में सीबीआइ निदेशक पर लगाये भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच करने को कहा है. यह जांच रिटायर्ड जस्टिस एके पटनायक की निगरानी में चल रही है.
पिछले कुछ दिनों के घटनाक्रम ने सीबीआइ की विश्वसनीयता पर असर डाला है. आजाद भारत के इतिहास में ऐसा पहले कभी नहीं हुआ. मीडिया को तो मसाला मिल गया है और इस पर रोजाना बहसें चल रही हैं.
सोशल मीडिया तो बेलगाम है. उस पर सीबीआइ को लेकर लतीफे चल रहे हैं. चिंता की बात है कि यह मसला राजनीतिक रंग भी पकड़ता जा रहा है.
कांग्रेस ने देश के सभी सीबीआइ दफ्तरों पर प्रदर्शन कर अपने इरादे साफ कर दिये हैं. दिल्ली में ऐसे एक प्रदर्शन का नेतृत्व कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने खुद किया. इसका नुकसान यह हुआ है कि मूल मुद्दा पीछे छूटता नजर आ रहा है. मुझे लगता है कि इस विवाद के सुलझ जाने तक राजनीतिज्ञों को संयम बरतना चाहिए.
हालांकि, इस विवाद का एक फायदा भी हुआ है कि सीबीआइ की सारी खामियां उभरकर सामने आ गयी हैं. सीबीआइ को संस्थागत रूप से सशक्त करने का यह एक अच्छा मौका भी है. देश को एक ऐसी स्वतंत्र और प्रमाणिक एजेंसी की सख्त जरूरत है जो कि ऊंचे पदों पर बैठे लोगों के खिलाफ जांच कर सके और बड़े आपराधिक मामले सुलझा सके. भ्रष्टाचार और आपराधिक मामलों में बड़े से बड़े लोग भी बच नहीं पाएं.
यह लोकतंत्र में लोगों की आस्था को और मजबूत करेगा. सरकार को चाहिए कि वह नये सिरे से सीबीआइ के पुनर्गठन का प्रयास करे. इसके लिए सीबीआइ की मौजूदा व्यवस्था में बदलाव करना जरूरी है. विभिन्न वेबसाइट से जो जानकारी मिली है, उसके अनुसार सीबीआइ में लगभग 7274 पद हैं, जिनमें से अनेक खाली हैं. एक तो रिक्त पदों को तत्काल भरे जाने की जरूरत है.
दूसरे सीबीआइ में अंदर और बाहर का अजीब घालमेल है. इसमें 60 फीसदी लोग मूल सीबीआइ कैडर के हैं और 40 फीसदी डेपुटेशन पर विभिन्न पुलिस सेवाओं से आते हैं. इसमें कांस्टेबल से लेकर निदेशक तक शामिल हैं.
देखने में आया है कि जब कोई आइपीएस 10-15 साल राज्य में काम करता है, तो उसकी चाहे अनचाहे किसी राजनेता से निष्ठाएं जुड़ जाती हैं. ये निष्ठाएं खत्म नहीं होतीं. इसकी वजह भी है कि सीबीआइ में डेपुटेशन दो से पांच साल तक होता है. उसके बाद अपने मूल कैडर में वापस जाना होता है. मेरा मानना है कि सीबीआइ में डेपुटेशन की व्यवस्था तत्काल खत्म होनी चाहिए.
सीबीआइ में उसके कैडर के ही लोग हों. आइपीएस चयन में एक कैडर सीबीआइ का भी हो. साथ ही राज्य पुलिस सेवाओं से नीचे के पदों का भी भरा जाना तत्काल बंद हो. सीबीआइ कैडर के लोग ही पदोन्नति के जरिये ऊपर तक पहुंचें. अभी सीबीआइ के निदेशक, विशेष निदेशक और अंतरिम निदेशक सब किसी ने किसी राज्य कैडर के आइपीएस अधिकारी हैं. सीबीआइ को सुधारना है तो यह व्यवस्था बदलनी होगी.
यह सही है कि नौकरशाही को लेकर आमजन की राय बहुत सकारात्मक नहीं है. लेकिन, यह जान लीजिए कि देश का प्रशासन नौकरशाहों के इर्द–गिर्द ही घूमता है. नेता तो पांच साल के लिए चुन कर आते हैं और चले जाते हैं. लेकिन एक आइएएस और आइपीएस अफसर अपने पूरे कार्यकाल के दौरान महत्वपूर्ण पदों पर रहता है और पूरी व्यवस्था को चलाता है.
एक पुलिस अधिकारी राज्य की कानून व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने में अहम कड़ी होता है. कोई भी देश अगर ठीक-ठाक ढंग से चल रहा है, तो माना जाता है कि उसके पास एक सुदृढ़ और सुव्यवस्थित नौकरशाही व्यवस्था है. हमारे देश में अशोक खेमका जैसे भी अफसर हैं, जो अपनी ईमानदारी के लिए जाने जाते हैं. हरियाणा कैडर का यह अधिकारी किसी भी व्यवस्था को रास नहीं आता.
कुछ समय पहले खेमका ने रॉबर्ट वाड्रा के कथित भूमि सौदे उजागर किये थे जिसके बाद उनका कई बार ट्रांसफर किया गया. खेमका का 22 साल में 46 बार ट्रांसफर हुआ है, यानी औसतन साल में दो बार उनका तबादला हुआ है. मुंबई में अवैध निर्माण के खिलाफ अभियान चलाने के कारण खेरनार चर्चित हुए थे.
किरण बेदी जब दिल्ली पुलिस की अधिकारी थीं तो बेहद चर्चित रही थीं. उन्होंने ट्रैफिक व्यवस्था को सुचारू करने और अवैध वाहनों को हटाने के लिए पहली बार दिल्ली में क्रेन का इस्तेमाल किया था. लेकिन, सत्ता प्रतिष्ठानों को ऐसे अफसर पसंद नहीं आते और उनके बार-बार तबादले होते हैं. लेकिन, ऐसा भी नहीं है कि सभी नौकरशाह दूध के धुले हों.
कुछ समय पहले 1976 बैच की यूपी कैडर की रि‍टायर्ड आइएएस अफसर प्रोमिला शंकर ने एक किताब लिखी थी- गॉड्स ऑफ करप्शन यानी भ्रष्टाचार के भगवान. इसमें उन्होंने यूपी के राजनेताओं और नौकरशाही की मिलीभगत से होने वाले भ्रष्टाचार को रेखांकित किया है. लेकिन, सीबीआइ का मौजूदा विवाद भ्रष्टाचार से अधिक संस्था के दो शीर्ष व्यक्तियों की नाक की लड़ाई अधिक नजर आता है.
इससे सीबीआइ की प्रतिष्ठा पर आंच आयी है. उस पर गंभीर सवाल उठ खड़े हुए हैं. इसको जल्द सुलझाने की जरूरत है, ताकि सीबीआइ पर से आम लोगों का भरोसा डगमगाये नहीं. यह मामला जितना जल्दी सुलझे, उतना देश के हित में होगा.

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