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त्योहार में मिठाइयों का तोहफा

मिठाइयों की अपनी एक सांस्कृतिक पहचान तो होती ही है, स्थानीयता को लेकर उनके बीच आपसी लड़ाई भी होती है. मिठाइयों की लड़ाई किस तरह हमारी सांस्कृतिक पहचान से जुड़ी हुई है, इसी बारे में बता रहे हैं व्यंजनों के माहिर प्रोफेसर पुष्पेश पंत… सूफी संत बुल्ले शाह के कलाम में मिठाइयों की एक अनोखी […]

मिठाइयों की अपनी एक सांस्कृतिक पहचान तो होती ही है, स्थानीयता को लेकर उनके बीच आपसी लड़ाई भी होती है. मिठाइयों की लड़ाई किस तरह हमारी सांस्कृतिक पहचान से जुड़ी हुई है, इसी बारे में बता रहे हैं व्यंजनों के माहिर प्रोफेसर पुष्पेश पंत
सूफी संत बुल्ले शाह के कलाम में मिठाइयों की एक अनोखी भिड़ंत का जिक्र मिलता है- रेवड़ी की बर्फी से लड़ाई वाला. दीवाली के मौसम में जब पारंपरिक मिष्ठान और पकवान इस पर्व के साथ अभिन्न रूप से जुड़े रहते हैं, हमें इसकी याद अनायास आने लगती है. दुर्भाग्य से हाल के वर्षों में देसी-घर की मिठाइयों का तेजी से अवमूल्यन हुआ है और बाजार से खरीदी चमक-दमक वाली नयी-नवेली मिठाइयों की धमक ने बर्फी ही नहीं लड्डुओं, पेड़ों, पुओं को घर-बदर कर दिया है.
पिछले साल हद ही हो गयी. एक मित्र ने हमें जो दीवाली ‘हैंपर’ भिजवाया था, उसमें मुंह मीठा करने को आयातित चॉकलेट और चीज का साथ एक बहुराष्ट्रीय कंपनी द्वारा निर्मित आलू के चिप्स और डिब्बाबंद जूस दे रहे थे. उस हैंपर में नाममात्र के लिए मेवे (काजू-किशमिश-बादाम) थे. हमारा मन तरसता रहा उन मिठाइयों के लिए, जो बचपन तथा लड़कपन में इस मौसम में इफरात से पकायी-खिलायी जाती थीं.
लड्डू को ही लें- सिर्फ बूंदी झारना झंझट का काम था, इसीलिए यह हलवाई के यहां से लाये जाते थे. बेसन के, आटे के, गोंद के, मेथी के, नारियल के और तिल के लड्डू घर पर ही बनते थे.
दीवाली के बाद भी कई दिन तक यह टिकाऊ मिठाई साथ देती थी. पुए दो-चार दिन और रोट, अनरसे हफ्ता-दस दिन तक खाये जाते थे! बेसन या नारियल की बर्फी भी घर में आसानी से बनती थी. तब मावे में जानलेवा मिलावट का इतना डर नहीं था, इसी लिए पड़ोस के हलवाई के यहां से दानेदार खोए की बर्फी या ताजा कलाकंद बेहिचक लाया जा सकता था. काजू की कतली ने जाने कब बीच में सेंध लगायी!
सत्तर के दशक तक पिस्ता बर्फी ही शिखर पर बिराजती थी. खोए की बर्फी में पिस्ते के टुकड़े बिखरे रहते थे. महंगाई के कारण खालिस पिस्ते की लौंज दुर्लभ होने लगी थी.
यह थोड़े संतोष का विषय है अपनी देसी जड़ों की तलाश में निवासी-प्रवासी हिंदुस्तानी पिस्ते की लौंज का नाम जानने लगे हैं. इसकी कीमत विदेशी चॉकलेटों का मुकाबला करती है, सो इसके लेन-देन से अपनी हैसियत की नुमाइश भी की जा सकती है.
हमारा यह हठ नहीं कि आपाधापी वाले इस युग में मिठाई घर की ही खायी जाये, पर हम यह जरूर सुझाना चाहते हैं कि नयी पीढ़ी फिरंगी मिठास की मरीचिका में अपनी मिठाइयों को भुला न दे. होली की गुझिया की तरह बालूशाही और इमरती, खाजा और फीनी आप मनपसंद दुकान से ही लें, पर इनकी परख आपको होनी ही चाहिए. जाने क्यों लोगों को यह गलतफहमी है कि देसी मिठाइयां नाकाबिले-बर्दाश्त मीठी होती हैं और इनमें चिकनाई घी-तेल की मात्रा सेहत के लिए नुकसानदेह होती है.
कभी नाप-तौल कर तुलना करें कि मंद आंच में देर तक तली ‘हमारी’ और ‘उनकी’ मिठाइयों में कौन ज्यादा शक्कर, मक्खन या वनस्पति का इस्तेमाल करती हैं. कृत्रिम रासायनिक रंगों, गंधों, स्वादों के अलावा इन्हें खराब होने से बचाने के लिए जो पदार्थ इनमें डाले जाते हैं, उनको स्वास्थ्य के लिए निरापद समझनेवाला नादान ही कहा जा सकता है.
हमारा मानना है कि देसी (बंगाली छेने वाली) मिठाई के नाम पर भी ज्यादातर जो बेचा जा रहा है, वह देसी मुर्गी के विलायती बोल ही हैं. बंगाल के दरबेश में कैंडीड पील नजर आती है, तो पाकीजा नामधारी मलाई चौप के सीने से सुर्ख चेरी झांकती है.
हम आज तक यह नहीं समझ पाये कि कैसे छेने की मिठाई को ‘सर्वश्रेष्ठ’ समझा जाने लगा. यहां भी ‘विविधता’ को बाजार के तर्क ने नष्ट कर दिया है. रसगुल्ले, रसमलाई को छोड़िए, अब तो खीर कदम, कमलाभोग, परवल लुप्तप्राय हो रहे हैं. रेवड़ी और बर्फी की लड़ाई हमारी सांस्कृतिक पहचान के साथ जुड़ी है! बहरहाल, त्योहार के मौसम में शुद्ध मिठाइयों का तोहफा दें और लें.
रोचक तथ्य
सत्तर के दशक तक पिस्ता बर्फी ही शिखर पर बिराजती थी. खोए की बर्फी में पिस्ते के टुकड़े बिखरे रहते थे. महंगाई के कारण खालिस पिस्ते की लौंज दुर्लभ होने लगी थी.
यह गलतफहमी है कि देसी मिठाइयां नाकाबिले-बर्दाश्त मीठी होती हैं और इनमें चिकनाई घी-तेल की मात्रा सेहत के लिए नुकसानदेह होती है.
बंगाल के दरबेश में कैंडीड पील नजर आती है, तो पाकीजा नामधारी मलाई चौप के सीने से सुर्ख चेरी झांकती है.

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