मनीष पुष्कले
पेंटर
दिल्ली स्थित इंडिया इंटरनेशनल सेंटर का वार्षिक आयोजन ‘आईआईसी एक्सपीरियंस’ इस बार भारत के उत्तर-पूर्वी अंचल पर केंद्रित है. पांच दिनों के इस आयोजन में उत्तर-पूर्व के आठों राज्यों की विभिन्न सांस्कृतिक विशेषताओं को इस आयोजन में विशेष रूप से चिह्नित किया जाना है.
इस महोत्सव के अंतर्गत रजा फाउंडेशन ने आईआईसी के आग्रह पर उसकी दीर्धा में आठ राज्यों की समकालीन कला पर एकाग्र एक प्रदर्शनी का आयोजन किया है. इस प्रदर्शनी का संयोजन गुवाहाटी की एक संवेदनशील कलाकार वहीदा अहमद ने किया है.
‘ब्लर्ड पेरिमीटर्स’ शीर्षक की यह प्रदर्शनी उत्तर-पूर्वी अंचल के युवा कलाकारों की संवेदनशीलता व उनकी पैनी नजर को तो प्रदर्शित करती ही है, यह उन आठ राज्यों के उस संयुक्त स्वर को भी प्रकाश में लाती है, जिसमें इन युवा कलाकारों की आत्मसम्मान से भरी, चीख-भरी एक ऐसी पुकार सुनी जा सकती है, जो हमसे गुजारिश करती है कि उन्हें हमसे या सरकार से किसी भी प्रकार की कोई सहानुभूति, अनुकंपा या विशेष कृपा की आवश्यकता नहीं है. उत्तर-पूर्व की अपनी भौगोलिक विषमता, स्थानीय दुर्गमता, सांस्कृतिक पृथकता और लंबे समय तक विकास की मुख्यधारा से दूर रह जाने के कारण, उपेक्षा से उपजे पिछड़ेपन के बदले में उसे ‘विशेष श्रेणी के राज्य’ का विशेषण मिला हुआ है, जिसके कारण केंद्रीय सरकारों की अनेक नीतियों के तहत वर्षों से उत्तर-पूर्वी आठों राज्यों को विभिन्न प्रकारों की छूटें और विशेष सहायता मिलती रही हैं.
इन विशेष नीतियों के परिणाम ये हैं कि 1961 के बाद 2011 के सरकारी आंकड़ों के अनुसार अब वहां गरीबी, स्वास्थ्य, साक्षरता, लिंग-अनुपात, मृत्यु-दर आदि के मूलभूत सामाजिक ढांचे में बड़े परिवर्तन आये हैं. नये रेल व रोड मार्गों और परिवहन के आधुनिक संसाधनों के कारण अब तक अलग-थलग पड़े इन राज्यों में आज पर्यटन भी नयी स्फूर्ति का कारण है. धीमे-धीमे हमारे उत्तर-पूर्वी अंचलों की हवा अब बदल रही है. वहां की नयी पीढ़ी अब अपने स्थानिक विशेषण या अतिरिक्त दर्जों से मुक्त होने की नयी राह पर पूरे उमंग से चल रही है.
यह प्रदर्शनी इस मायने में हमारा ध्यान खींचती है. उत्तर-पूर्व के आठों राज्य मुख्यतः आदिवासी बहुलता के इलाके हैं, जो अपनी सांस्कृतिक पृथकता और भौगोलिक विषमताओं से बनी दूरियों के रहते अपनी लोक-परंपराओं से देश के अन्य राज्यों की सांस्कृतिक पहचानों के बरक्स हमेशा से उत्सुकता का कारण बने रहे हैं.
यह प्रदर्शनी बड़े ही रोचक ढंग से पारंपरिक विमर्श, स्थानीय सामग्री, व्यक्तिगत मान्यताओं और सामाजिक स्थापनाओं के बीच पनपती आधुनिकता के मर्म में नव-सौंदर्य की खोज की कोशिश और अपनी पारंपरिक चेतनाओं के औचित्यों पर प्रकाश डालती है.
इस प्रदर्शनी में असम से अंकन दत्ता, धर्मेंद्र प्रसाद, ध्रुबजीत सर्मा और अर्पिता डे, अरुणाचल प्रदेश से कोम्पी रीबा, मणिपुर से चओबा थियाम, सिक्किम से सिसिर थापा, मिजोरम से थलाना बजिक, नागालैंड से थ्रोंगकिउबा यिम्चुन्ग्रू और मेघालय से त्रेइबोर मव्लोंग की कलाकृतियों को प्रदर्शित किया गया है.
उत्तर-पूर्वी अंचल से पहले भी कई कलाकार हुए हैं और उनमें से ज्यादातर कलाकार अपनी पहचान की चाह और प्रोत्साहन के उपयुक्त मौकों की तलाश में दूसरे स्थानों में जा बसे हैं, लेकिन इस प्रदर्शनी में उपस्थित इन अंचलों की युवा पीढ़ी के कलाकारों की एक अलग बात है.
इन सभी कलाकारों ने प्रोत्साहन, बाजार और व्यक्तिगत पहचान के लिए अपने विस्थापन की आशंकाओं को आड़े हाथों लिया है. इन युवा कलाकारों ने अपने माहौल और अपने ही देश-काल में रहकर कुछ कर सकने की महत्वाकांक्षा को बचाये रखा है, जिसमें इस प्रदर्शनी की संयोजक वहीदा अहमद ने पिछले पांच सालों में बड़ा काम किया है.
उन्होंने बड़ी खूबी से इन युवा कलाकारों को संभाला ही नहीं, बल्कि लगातार काम कर सकने के लिए इन कलाकारों के लिए अनेक संसाधन भी जुटाये हैं और उन्हें विस्थापन की संभावनाओं से बचाकार अपनी संस्कृति ही नहीं, बल्कि उनके आत्मविश्वास को खंडित होने से भी बचाया है. इन सभी कलाकारों में एक देशज पवित्रता है, उनके कामों में वह वितान भी है, जिसके कारण पूरे गौरव के साथ हम उन्हें दुनिया के किसी भी बड़े मंच पर प्रस्तुत कर सकते हैं.यह प्रदर्शनी, हमारे मानस को भारतीय महानगरों के आक्रांत जीवन और गुबार से दूर, ग्रामीण अंचल की गोधुली पर एक बार पुनः ले आती है.