फिल्म ‘उन्माद’ को लेकर एक्टर और फिल्मकार शाहिद कबीर इन दिनों चर्चा में हैं. दिल्ली के जामिया से सिनेमा में मास्टर डिग्री हासिल करने वाले सहारनपुर के शाहिद कबीर लंबे समय से थियेटर करते आ रहे हैं और ‘इप्टा’ से जुड़े रहे हैं. बतौर निर्देशक ‘उन्माद’ उनकी पहली फिल्म है. थियेटर और सिनेमा के फर्क के साथ मौजूदा दौर की तकनीक और सिनेमाई स्वतंत्रता को भारतीय सिनेमा के लिए बेहतर मानने वाले शाहिद से वसीम अकरम ने लंबी बातचीत की. पेश है उनसे की गयी बातचीत का प्रमुख अंश…
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बतौर निर्देशक पहली फिल्म के रूप में एक संवेदनशील विषय पर ही ‘उन्माद’ क्यों?
हम जिस माहौल में जी रहे होते हैं, उसमें अगर आप कुछ ज्यादा संवेदनशील इंसान हैं, तो आपको संवेदनशील विषय ही पसंद आयेगा. मौजूदा माहौल को मैं जिस नजदीकी से देख रहा हूं, उसका परिणाम है ‘उन्माद’. जहां तक पहली फिल्म के रूप में ‘उन्माद’ ही क्यों का सवाल है, तो यह थियेटर से मेरा जुड़ाव का परिणाम कह सकते हैं. मैं एक लंबे अरसे से थियेटर करता रहा हूं. थियेटर में नाटकों के विषय बहुत संवेदनशीलता और गहराई लिये हुए होते हैं, क्योंकि थियेटर करने वाले एक सीमित दर्शक के बीच अपनी प्रस्तुतियां देते हैं. ये दर्शक भी संवेदनशील होते हैं, इसलिए इसमें बेवजह का मनोरंजन नहीं रखा जा सकता. हां, अगर रखा जाता है, तो उसमें भी सटायर का पुट ज्यादा होता है.
‘उन्माद’ को सिनेमा के बजाय थियेटर प्रस्तुति दी जा सकती थी, क्योंकि यह थियेटर मैटीरियल ज्यादा है. वहीं, सिनेमा ज्यादा से ज्यादा मनोरंजन (एंटरटेनमेंट) को लेकर चलता है?
हां, लेकिन मेरे ख्याल में इसका दूसरा पक्ष भी है. जाहिर है, थियेटर की पहुंच छोटी है और सिनेमा की पहुंच बड़ी है. अपना ख्याल ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाने के लिए थियेटर के बजाय सिनेमा ही अच्छा माध्यम हो सकता है. इसलिए मैंने ‘उन्माद’ को सिनेमा की शक्ल दी, ताकि ज्यादा से ज्यादा लोगों तक इस संवेदनशील विषय का संदेश पहुंच सके. जहां तक सिनेमा में मनोरंजन का होना जरूरी है, यह बात सही है, लेकिन यह भी सही है कि सिनेमा ने बहुत से गंभीर विषयों को ज्यादातर लोगों तक पहुंचाया है. इसलिए मैंने माध्यम के रूप में फिल्म का रास्ता चुना, क्योंकि ज्यादातर लोग फिल्में ही देखते हैं. हालांकि, सिनेमा की अपनी जो प्रतिबद्धताएं होती हैं, उसे हमने ‘उन्माद’ में पूरा किया है, मसलन ‘उन्माद’ के जरिये हमने मीनिंगफुल एंटरटेनमेंट पेश किया है.
‘उन्माद’ का संदेश क्या है? मुझे लगता है कि यह एक राजनीतिक फिल्म है.
भारत एक खूबसूरत लोकतांत्रिक देश है. यहां किसी गुनहगार को सजा देने के लिए बेहतर कानूनी प्रावधान हैं. उसके खिलाफ एफआईआर हो, फिर केस चले, फिर सारी सुनवाई के बाद सबूतों के आधार पर अदालत से फैसला आये. लेकिन, पिछले कुछ साल को देखें, तो यही नजर आया है कि अब जनता ही सड़क पर किसी को सजा देने लगी है. जनता का इस तरह हिंसक होना हमारे लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं है, क्योंकि इससे देश की प्रगति रुकती है. उन्माद का संदेश यही है कि हमें कानून अपने हाथ में लेने का कोई अधिकार नहीं है, सजा देने का काम अदालत का है. अब इस संदेश को बड़े पैमाने पर ले जाने के लिए फिल्म ही जरिया हो सकता है. जहां तक इसके राजनीतिक फिल्म होने का सवाल है, तो यह दर्शकों पर निर्भर करता है कि वे इसे किस नजरिये से देखते हैं.
थियेटर से फिल्म में आने में कैसी और कितनी मुश्किलें आयीं?
ज्यादा मुश्किलें नहीं आयीं, क्योंकि सिनेमा के बारे में जामिया से मैंने पढ़ाई की है. मैं इन बारीकियों को जानता हूं कि थियेटर और सिनेमा के बीच क्या फर्क है.
मैंने यह सवाल इसलिए पूछा, क्योंकि आपकी फिल्म में थियेटर की झलक ज्यादा नजर आती है. क्या इससे बचने की कोई कोशिश हुई?
जिस तरह का विषय है, उसको इसी तरीके से फिल्म में ढाला जा सकता था, इसलिए ऐसा लग रहा है आपको. बचने की कोशिश का भी कोई सवाल नहीं था. दरअसल, हमारा पूरा सिनेमा ही पारसी थियेटर से आया है. इसलिए वास्तविक विषयों पर फिल्में थियेट्रिकल लगने लगती हैं.
यहां वास्तविक विषयों पर फिल्में बनती रही हैं, लेकिन उनका ट्रिटमेंट ज्यादातर सिनेमेटिक ही रहा है, क्योंकि एंटरटेनमेंट की दरकार जो होती है.
हां बात सही है, लेकिन हर निर्देशक का अपना एक तरीका होता है कि वह अपनी फिल्म को किस तरह से बनाये. मेरी कोशिश यह है कि मेरी फिल्म देखकर लोग यह कहें कि मैं तो फलां से प्रभावित लगता हूं. इसलिए मेरा प्रयोग कुछ अलहदा हो सकता है और भविष्य में भी अपनी सारी फिल्मों के साथ ऐसा करते रहने की कोशिश करूंगा. पहली बात तो यह कि मैं नहीं चाहता कि मुझ पर किसी की छाप नजर आये और दूसरी बात यह है कि कहानी की जरूरत क्या है, इन दोनों बातों को ध्यान में रखकर ही काम करना है.
अक्सर पहली बनाने से पहले फिल्मकार सोचता है कि उसकी पहली फिल्म सफल हो, क्योंकि एक तरफ पैसा मायने रखता है, तो दूसरी तरफ फिल्मकार का भविष्य क्या होगा, यह भी देखना होता है. यह सब था आपके जेहन में?
मेरे जेहन में सिर्फ एक ही चीज थी कि शुरुआत बिजनेस के उद्देश्य से नहीं करनी है, बल्कि फिल्म का संदेश ज्यादातर लोगों तक पहुंचे, यह सोचा था. हालांकि, मुझे पता नहीं था कि यह सब कैसे होगा, लेकिन बनने की प्रक्रिया के दौरान सब होता गया. जहां तक पहली फिल्म सफल हो, इसका सवाल है, तो मैं समझता हूं कि भारत में अब सिनेमा का मूड बदल रहा है. बड़ी-बड़ी फिल्में भी असफल हो रही हैं, लेकिन वहीं कुछ छोटी फिल्में शानदार सफलता हासिल कर रही हैं. अब नये फिल्मकारों के पास ढेरों मौके हैं कि वे हर तरह के विषयों पर फिल्में बनायें और दर्शकों को ज्यादा दे सकें. ‘उन्माद’ जैसी फिल्मों को कॉरपोरेट सपोर्ट नहीं मिल पाता है, लेकिन मुझे मिला, क्योंकि मुझे उम्मीद थी कि हमने अच्छा काम किया है, तो सभी पसंद करेंगे.
पहली फिल्म के बाद फिल्मकार के रूप में आपकी जो पहचान बनी है, उसमें आगे क्या-क्या शामिल करना है?
हर तरह की फिल्में बनाने का इरादा है. वह कॉमेडी भी हो सकती है और इश्क-प्यार-मुहब्बत भी. लीक से हटकर भी हो सकती है और मुख्यधारा की फिल्म भी. लेकिन, इन सबमें एक केंद्रीय भाव रखने की कोशिश होगी कि मीनिंगफुल फिल्म हो, न कि माइंडनेस फिल्म.
मौजूदा दौर में किस फिल्मकार ने आपको ज्यादा प्रभावित किया है?
वैसे तो सभी नये फिल्मकार अच्छा काम कर रहे हैं, लेकिन लीक से हटकर काम करनेवालों में मुझे अनुराग कश्यप बहुत पसंद हैं. सबसे अच्छी बात यह है कि एक स्वतंत्र फिल्मकार के लिए यह बहुत शानदार दौर है. नयी तकनीकों ने छोटी-छोटी कोशिशों से बनी शानदार फिल्मों को बहुत दूर तक पहुंचा दिया है, जो पहले संभव नहीं हो पाता था. सिनेमाई स्वतंत्रता का दायरा तेजी से बढ़ रहा है. सिनेमा का यह नया और स्वतंत्र दौर जरूर बॉलीवुड के सफर में एक नया आयाम स्थापित करेगा, मुझे इसकी पूरी उम्मीद है.