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दंगे की आग में जलते नोआखाली को शांत करने के लिए चार महीने तक खाली पैर गांव-गांव घूमे थे महात्मा गांधी

बात भारत की आजादी से पहले की है. नोआखाली जल रहा था. हिंसा के शिकार लोगों को कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा था. एक साथ मिलकर रहने वाले लोग एक-दूसरे को शक की निगाह से देख रहे थे. एक-दूसरे की खून के प्यासे हो गये थे. ऐसे वक्त में 1500 किलोमीटर दूर दिल्ली से […]

बात भारत की आजादी से पहले की है. नोआखाली जल रहा था. हिंसा के शिकार लोगों को कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा था. एक साथ मिलकर रहने वाले लोग एक-दूसरे को शक की निगाह से देख रहे थे. एक-दूसरे की खून के प्यासे हो गये थे. ऐसे वक्त में 1500 किलोमीटर दूर दिल्ली से एक मसीहा आया. 7 नवंबर, 1946 को. सफेद धोती पहने और हाथ में लाठी लिये इस बूढ़े शख्स ने नोआखाली में शांति की पहल की और जल्दी ही दंगे की आग में झुलस रहे इस इलाके में शांति स्थापित की.

यह शख्स कोई और नहीं, मोहनदास करमचंद गांधी थे, जो आज दुनिया भर में महात्मा गांधी के नाम से जाने जाते हैं. हिंसा प्रभावित गांवों का उन्होंने नंगे पांव दौरा किया. पूरे चार महीने तक खाली पैर पैदल चले. कहते थे कि नोआखाली एक ‘श्मशान’ भूमि है. यहां हजारों बेकसूर लोगों के शव दफ्न हैं. ऐसी जगहों पर चप्पल पहनकर जाना या चप्पन पहनना उन पवित्र आत्माओं का अपमान होगा.

जब हिंदू और मुस्लिम एक-दूसरे की जान के प्यासे हो रहे थे, बापू ने उन्हें समझाया. उनसे शांति की अपील की. कुछ ही दिनों में महात्मा गांधी की पहल रंग लायी. लोगों को बापू की बातें समझ आयीं. बापू जिस गांव में जाते थे, वहां किसी मुस्लिम के घर में ठहरते. इससे मुस्लिमों का भी विश्वास उन्होंने जीत लिया. इसके बाद तो उनके साथ बड़ी संख्या में मुसलमान भी गांव-गांव घूमने लगे. स्थानीय मुसलमानों ने बेघर हुए लोगों के पुनर्वास में मदद करना शुरू कर दिया.

बापू की इस कोशिश का ही नतीजा था कि हिंसा के दौरान जिन मंदिरों को तहस-नहस कर दिया गया था, उनका पुनर्निर्माण मुसलमानों के सहयोग से शुरू हो गया. बापू के इस अभियान में जेबी कृपलानी, सुचेता कृपलानी, डॉक्टर राममनोहर लोहिया, निर्मल कुमार बसु, सरोजिनी नायडू, सुशीला नायर जैसे लोग भी उनके साथ कदम से कदम मिलाकर चल रहे थे.

नोआखाली की हिंसा को शांत करने में बापू इतना व्यस्त हो गये कि वह भारत की आजादी के जश्न में भी शामिल नहीं हो पाये. हालांकि, देश की बड़ी-बड़ी शख्सीयतें अपना सब काम-धाम छोड़कर दिल्ली पहुंची थीं. सात दशक पहले जब दिल्ली में सत्ता हस्तांतरण की कवायद जारी थी, महात्मा गांधी दिल्ली से 1500 किलोमीटर दूर सांप्रदायिकता की आग में जल रहे पूर्वी और पश्चिमी बंगाल में अमन बहाली की कोशिशों में जुटे थे.

क्यों भड़का दंगा, क्या हुआ था नोआखाली में

मोहम्मद अली जिन्ना पाकिस्तान बनाने की आखिरी हद तक पहुंच गये थे. दिल्ली में इस बाबत मसौदे तैयार हो रहा था. 16 अगस्त, 1946 को जिन्ना ने ‘डायरेक्ट एक्शन’ की घोषणा की. इसके बाद ही संयुक्त बंगाल में दंगे शुरू हो गये. मुस्लिम बहुल नोआखाली जिला में हिंदुओं का कत्ल-ए-आम शुरू हो गया. करीब 15 दिन तक तो दुनिया को इस नरसंहार की सूचना तक नहीं थी. अखबारों में खबर आयी, तो नोआखाली की जलती तस्वीरें दिखीं. इसके बाद बिहार में भी दंगे भड़क उठे. मुस्लिम लीग ने नारा दिया : लीग जिंदाबाद, पाकिस्तान जिंदाबाद, लड़ के लेंगे पाकिस्तान, मार के लेंगे पाकिस्तान.

इसके बाद नोआखाली में भयानक दंगे शुरू हो गये. बेगमगंज से भड़की ये हिंसा नोआखाली के दूसरे गांव में भी फैल गयी और एक महीने के दौरान सैकड़ों लोग मौत के घाट उतार दिये गये. लक्ष्मीपुर गांव में भीषण कत्ल-ए-आम हुआ था. बहुत से लोग मारे गये. गांव की कई महिलाओं की इज्जत तार-तार कर दी गयी. विवाहित महिलाओं का जबरन निकाह कराया गया. हिंदू मंदिरों में तोड़-फोड़ की गयी.

नोआखाली की नयी पीढ़ी को पुरानी बातों से कोई सरोकार नहीं है. उनका ध्यान सिर्फ रोजी-रोजगार पर है. एक-दो घटनाओं को छोड़ दें, तो यहां हिंदुओं को कोई समस्या नहीं है. हालांकि, यहां के तब के हिंदू बहुल इलाकों में आज उनकी संख्या बहुत कम रह गयी है.

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