वर्तमान समय के टूटते राजनीतिक आदर्शों, विचारधारात्मक असहमतियों के प्रति असहिष्णु होकर अपने व्यवहार में ‘मतभेद’ की जगह ‘मनभेद’ अंगीकार करती राजनीतिक शक्तियों के मजबूत होने के दौर में पंडित दीनदयाल उपाध्याय को उनके 102वें जन्मदिन पर याद करना जरूरी है.
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पं दीनदयाल उपाध्याय जयंती : भारत के नवनिर्माण की अवधारणा, प्रखर थी दीनदयाल की बौद्धिक क्षमता
रामबहादुर राय वरिष्ठ पत्रकार वर्तमान समय के टूटते राजनीतिक आदर्शों, विचारधारात्मक असहमतियों के प्रति असहिष्णु होकर अपने व्यवहार में ‘मतभेद’ की जगह ‘मनभेद’ अंगीकार करती राजनीतिक शक्तियों के मजबूत होने के दौर में पंडित दीनदयाल उपाध्याय को उनके 102वें जन्मदिन पर याद करना जरूरी है. उन्होंने ही ‘एकात्म मानववाद’ की अवधारणा पर आधारित राजनीतिक दर्शन […]
रामबहादुर राय
वरिष्ठ पत्रकार
वर्तमान समय के टूटते राजनीतिक आदर्शों, विचारधारात्मक असहमतियों के प्रति असहिष्णु होकर अपने व्यवहार में ‘मतभेद’ की जगह ‘मनभेद’ अंगीकार करती राजनीतिक शक्तियों के मजबूत होने के दौर में पंडित दीनदयाल उपाध्याय को उनके 102वें जन्मदिन पर याद करना जरूरी है.
उन्होंने ही ‘एकात्म मानववाद’ की अवधारणा पर आधारित राजनीतिक दर्शन से परिचय कराया था. देश हित में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को परिभाषित किया था और ‘वसुधैव कुटुंबकम’ के विचार को प्रस्तुत किया था. उनके जीवन, दर्शन, सामाजिक कार्यों और उनकी राजनीतिक यात्रा को आज हम उनके जन्मदिन पर याद कर रहे हैं…
पंडित दीनदयाल उपाध्याय को देश ने पहली बार एक अच्छे विचारक और राष्ट्रीय नेता के रूप में 1968 में तब पहचाना, जब वे जनसंघ के अध्यक्ष बने. जनसंघ के अधिवेशन के बाद उनका भाषण हुआ, जिसे उस समय के अखबारों ने प्रमुखता से छापा. मुझे याद है कि बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में एक बड़े साहित्यकार हुआ करते थे- डॉ शिव प्रसाद सिंह, उन्होंने मुझसे कहा कि पंडित दीनदयाल उपाध्याय के जो विचार हैं, उसमें ताजगी है.
हालांकि, इससे पहले पंडित दीनदयाल को हम लोग नहीं जानते थे. यह बात सही भी है. दरअसल पंडित दीनदयाल ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को अपने जीवन की भावी दिशा के लिए चुना था. जब 1937 में वे संघ से जुड़े, तब वे कानपुर में स्नातक कर रहे थे. कांग्रेस, कम्युनिस्ट और सोशलिस्ट आंदोलनों का गढ़ रहे कानपुर में एक स्नातक विद्यार्थी का संघ से जुड़ना बेहद अनूठा था. सल 1937 में संघ के दायित्व के बाद से 1949-50 तक के एक लंबे समय में उन्होंने उत्तर प्रदेश में और पूरे देश में वैचारिक दिशा देने की कोशिश की.
नेतृत्व और संगठन की क्षमता
साल 1951-52 से लेकर उनके अध्यक्ष बनने तक वे पार्टी के महासचिव तो थे, लेकिन वे पार्टी के चेहरा नहीं थे. उस वक्त पार्टी में कई चेहरे थे- अटल बिहारी वाजपेयी, और उससे पहले जगन्नाथ राव जोशी आदि.
लेकिन, पंडित दीनदयाल उपाध्याय में बौद्धिक क्षमता, नेतृत्व की क्षमता और संगठन की क्षमता इतनी प्रखर थी, यह बात जनसंघ के बाहर लोग उसी समय जान सके, जब पार्टी के वे अध्यक्ष बने. इससे जनसंघ की संभावनाएं भी कुछ बढ़ीं. उनकी हत्या होने के कारण उनका जो योगदान भारत को मिल सकता था, उससे देश वंचित रह गया. लेकिन, अपनी जिंदगी में उन्होंने जो लिखा-बोला है, अब वह पंडित दीदयाल उपाध्याय समग्र के रूप में उपलब्ध है. इसलिए अब हम उनके लिखे-बोले-पढ़े से यह जान सकते हैं कि उनका व्यक्तित्व क्या था.
उन्होंने किताबें लिखी हैं, नाटक लिखे हैं, लेख लिखे हें, जिनमें राजनीतिक वैचारिकी भरी हुई है. इसीलिए इस बात का बेहद अफसोस होता है कि अपने समय के इतने महत्वपूर्ण व्यक्ति की हत्या के इतने सालों बाद भी हम आज तक यह नहीं जान सके हैं कि उनकी हत्या किस साजिश के तहत हुई और क्यों हुई. आज तक हम यह नहीं समझ पाये कि उस अजातशत्रु को क्यों मारा गया.
राजनीति में उनकी प्रासंगिकता
पंडित दीनदयाल उपाध्याय समग्र में कोई भी विषय छूटा नहीं है. उभरती राजनीति, संसदीय लोकतंत्र, संविधान, अर्थव्यवस्था, दलीय व्यवस्था आदि विषयों पर लिखे उनकी चीजों को पढ़ते हैं, तो पाते हैं कि उनका लिखा हुआ हर चीज समसामयिक होते हुए भी स्थायी महत्व की है. उनके विचारों की प्रासंगिकता आज भी भारतीय राजनीति में बनी हुई है.
उदाहरण के लिए, जब भारत का संविधान बन रहा था, तब दीनदयाल ने, उस समय के जो भी मुद्दे थे, उन पर संविधान सभा का ध्यान खींचा और कई सुझाव भी दिये. तब कांग्रेस, समाजवादी और वामपंथी नेताओं ने संविधान सभा का बहिष्कार कर दिया था, लेकिन दीनदयाल उस बहिष्कार के पक्ष में कतई नहीं थे, बल्कि वे समझते थे कि यह संविधान भारत की भावी पीढ़ियों के लिए ऐसा दस्तावेज बन रहा है, जिससे हमारा देश संचालित होगा.
संविधान को स्वीकारा
यह कम ही लोगों को मालूम है कि उन्होंने ही यह सलाह दी कि संविधान जैसा भी बना है, उसे उसी रूप में स्वीकार करना चाहिए और इससे ही हमारे देश की यात्रा शुरू करनी चाहिए. उनके एक लेख का शीर्षक है- ‘इस संविधान का क्या करें?’ उस समय संविधान बनने को लेकर जो भी विवाद थे, या फिर संविधान सभा के विफल होने की बात तक उठाते हुए उन्होंने आखिर में लिखा है कि अब जो भी होना था हो गया, संविधान बनना था बन गया, अब इस संविधान का क्या करें, इस पर विचार करना चाहिए.
समाजवादियों ने तो संविधान सभा का बहिष्कार कर दिया था, लेकिन बहुत बाद में जेपी ने जवाहरलाल नेहरू से कहा कि समाजवादी पार्टी के कुछ नेता संविधान सभा में आने के लिए तैयार हैं. तब नेहरू ने कहा कि अब समय निकल गया. इसी बहस को याद दिलाते हुए दीनदयाल उपाध्याय अंत में सलाह देते हैं कि संविधान जैसा भी बना है, उसे हमें स्वीकार करना चाहिए.
विचारवान व्यक्तित्व
दीनदयाल उपाध्याय के समग्र में उनके लेखों को पढ़ने से यह पता चलता है कि वे भारत के नवनिर्माण में संविधान का कितना महत्व बतलाते हैं. उन्हें पढ़कर यह भी लगता है कि वे एक मध्यमार्गी थे, अतिवादी नहीं.
जिस तरह से दूसरी पार्टियों ने संविधान सभा का बहिष्कार किया, दीनदयाल ने उसे उचित नहीं माना. क्योंकि वे संतुलित विचारों वाले व्यक्ति थे और किसी के प्रति द्वेष की भावना भी नहीं रखते हैं. व्यक्ति और देश के लिए उनके पास एक सकारात्मक दृष्टिकोण है. हम कह सकते हैं कि संघ ने जनसंघ में जिस सबसे विचारवान व्यक्ति को भेजा था, वे पंडित दीनदयाल उपाध्याय ही थे, जिन्होंने जनसंघ को एक समृद्ध राजनीतिक दिशा दी.
पंचवर्षीय योजना पर विचार
योजना आयोग के 1952 से 1957 की पहली पंचवर्षीय योजना में जवाहरलाल नेहरू का मुख्य जोर सामुदायिक विकास योजना पर था. लेकिन, 1957 आते-आते नेहरू की सोची हुई यह योजना विफल हो गयी. अब क्या किया जाये? इस पर दो प्रतिक्रिया आयी थी, जिसमें एक दीनदयाल उपाध्याय की है. दीनदयाल ने अपने लेखों में उसी निष्कर्ष पर पहुंचे हैं, जिस निष्कर्ष पर जवाहरलाल नेहरू पहुंचे थे, या जेपी पहुंचे थे.
पंचवर्षीय योजना की विफलता के बाद ही जेपी ने नेहरू को एक पत्र लिखा था और उसमें सुझाव दिया था कि आप पंचायत प्रणाली को लागू करने की कोशिश करिये. तब जाकर जवाहरलाल नेहरू ने बलवंत राय मेहता कमेटी बनायी. साल 1957 के अंत में इस कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में सिफारिश की- ‘लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण और सामुदायिक विकास कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए फौरन ही पंचायती राज व्यवस्था की शुरुआत की जानी चाहिए.’
गैर-कांग्रेसवाद की नींव
यह बात भी कम ही लोग जानते हैं कि देश में गैर-कांग्रेसवाद की जो नींव पड़ी, उसके दो ही निर्माता हैं- एक हैं डॉ राम मनोहर लोहिया और दूसरे हैं पंडित दीनदयाल उपाध्याय. लेकिन, यह दुर्भाग्य ही है कि ये दोनों ही साल 1968 में इस दुनिया से चले गये.
उन्हें कम जाना-समझा गया
मेरा ख्याल है कि हमारे देश में पंडित दीनदयाल उपाध्याय के बारे में कम ही पढ़ा गया है, कम जाना गया है और उससे भी कम लिखा गया है. पहली बार साल 1968 में बौद्धिकों ने उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर नोटिस करना शुरू किया, वह भी तब, जब वे जनसंघ के अध्यक्ष बनाये गये. जनसंघ के अध्यक्ष बनने और उनकी हत्या के बीच का समय इतना कम है कि उनके विचारों की छाप भारतीय राजनीति में व्यापक रूप से पड़ ही नहीं सकती.
देश ने उन्हें अभी नोटिस करना शुरू ही किया था कि उनकी हत्या हो गयी. जनसंघ का अध्यक्ष बनने के बाद अगर उन्हें अवसर मिला होता, तो आज भारतीय राजनीति में जो भटकाव आया हुआ है, वह कम होता और उनके नेतृत्व में सशक्त जनसंघ का विकास हुआ होता.
(बातचीत : वसीम अकरम)
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