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श्रद्धा का अर्पण ही है श्राद्ध
गया : श्रद्धा से किया जानेवाला वह कार्य, जाे पितराें के निमित्त किया जाता है, श्राद्ध है. इसमें श्रद्धा का एक अत्यंत मधुर भाव निहित रहता है. श्राद्ध बिल्कुल रहस्यपूर्ण, साेमपत्तिक व विज्ञानपूर्ण हाेता है. एक तरह से यह जीवन देनेवालाें के प्रति कृतज्ञता जताने का पर्व है. श्राद्धकल्पता के अनुसार, दूसरे शब्दों में भव […]
गया : श्रद्धा से किया जानेवाला वह कार्य, जाे पितराें के निमित्त किया जाता है, श्राद्ध है. इसमें श्रद्धा का एक अत्यंत मधुर भाव निहित रहता है. श्राद्ध बिल्कुल रहस्यपूर्ण, साेमपत्तिक व विज्ञानपूर्ण हाेता है. एक तरह से यह जीवन देनेवालाें के प्रति कृतज्ञता जताने का पर्व है. श्राद्धकल्पता के अनुसार, दूसरे शब्दों में भव सागर से पूर्वजाें की मुक्ति के उद्देश्य से श्रद्धा व आस्तिकतापूर्वक किया हुआ पदार्थ त्याग अर्थात दान व पितृ पूजा ही श्राद्ध है.
इस संदर्भ में एक कथा भी प्रचलित है. ‘महाभारत’ के एक प्रसंग के अनुसार, मृत्यु के बाद कर्ण काे मोक्ष प्रदान करने के लिए चित्रगुप्त ने स्वीकृति नहीं दी. कर्ण ने कहा,‘ मैंने ताे अपनी सारी संपत्ति हमेशा दान-पुण्य में ही लगाया है. उसके बाद भी मेरे ऊपर यह कैसा ऋण शेष रह गया है ?’ चित्रगुप्त ने उत्तर में कहा, ‘आप देव ऋण व ऋषि ऋण से ताे मुक्त हाे गये हैं, पर आप के ऊपर पितृ ऋण शेष है. जब तक आप इस ऋण से मुक्त नहीं हाेंगे, तब तक माेक्ष प्राप्ति कठिन हाेगी.’
इसके बाद धर्मराज ने कर्ण काे एक वैकल्पिक व्यवस्था देते हुए कहा, ‘आप 16 दिनाें के लिए फिर से धरती पर जाकर विधिवत अपने ज्ञात व अज्ञात पितराें का श्राद्ध, तर्पण और पिंडदान करके पुन: आइये, तभी आपकाे माेक्ष प्राप्ति हाेगी. कर्ण ने वैसा ही किया और उन्हें मोक्ष प्राप्त हुआ. स्कंद पुराण के अनुसार, पितराें आैर देवताआें की याेनि ऐसी है कि वे दूर से ही कही हुई बातें सुन लेते हैं. दूर की पूजा भी ग्रहण कर लेते हैं आैर दूर से ही की गयी स्तुति से संतुष्ट हाे जाते हैं.
इसी साेच के साथ हम अपने पितराें काे तृप्त करने के लिए श्रद्धाभाव से भाेज्य पदार्थ आैर जल का अर्पण-तर्पण करते हैं. श्राद्ध एक कर्मकांडीय पद्धति है, जिसमें शब्द, संकल्प आदि महत्वपूर्ण होते हैं. इसके तहत मंत्राें के द्वारा पिंडदान किया जाता है. पिंडदान एक तरह से आत्मदान भी है. इस पिंड के माध्यम से हम अपने हृदय की श्रद्धा अर्पित करते हैं, जाे हमारे अंत:स्थल में अंगुष्ठ मात्र रूप में हृदय गुहा में स्थित है, जिसका निर्देश उपनिषदाें में हुआ है. इसे हम आत्मा से संबोधित करते हैं. पिंडदान का चलन हिंदू संस्कृति के साथ जुड़ा हुआ है आैर इसके साथ जुड़ा है पुत्र (संतान) स्नेह भी.
माता-पिता सदा पुत्र (संतान) प्राप्ति की कामना करते रहते हैं, क्याेंकि ऐसी मान्यता है कि मृत्यु के बाद पुत्र द्वारा पिंडदान करवाने से ही सद्गति प्राप्त हाेती है लेकिन, भागवद महापुराण के अनुसार, श्राद्ध अथवा पिंडदान से मुक्ति नहीं मिलती. श्राद्ध करने से केवल पितरगण काे प्रसन्न किया जा सकता है. पिंडदान का वास्तविक अर्थ है – इस शरीर रूपी पिंड का प्रभु के चरणों में अर्पण. तर्पण व श्राद्ध की याज्ञिक प्रक्रिया में कर्ता के साथ प्राचार्य (ब्राह्मण) व तीर्थ पुराेहित की महत्वपूर्ण भूमिका हाेती है.
तीर्थ पुराेहित के निर्देशन में प्राचार्य द्वारा संकल्पित हाेकर श्राद्ध की प्रक्रिया संपन्न की जाती है. उन्हें भी सामर्थ्य के अनुसार दान, अन्न, वस्त्र, धन व भूमि आदि देकर संतुष्ट कर उनका आशीर्वाद प्राप्त किया जाता है. यह प्रक्रिया फलदायी होती है आैर इससे जीवन में भी हम संतुष्ट व सफल हाेते हैं. देशभर में तर्पण व श्राद्ध कर्म के लिए सर्वाधिक उपयुक्त व मान्य भूमि विष्णु तीर्थ ‘गयाजी’ काे ही माना जाता है. इसे ही माेक्ष का अंतिम साेपान कहा-माना गया है.
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