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डॉ मधुलिका जोनाथन प्रमुख, झारखंड यूनिसेफ बच्चे के जन्म के प्रथम एक हजार दिन के दौरान पर्याप्त पोषण-गर्भधारण से लेकर दूसरे वर्ष तक, न केवल बच्चे को जीवित रहने तथा बढ़ने में मदद करता है, बल्कि उनके पूर्ण शारीरिक और मानसिक विकास में भी मदद करता है. लैंसेट रिपोर्ट-2018 के अनुसार, गर्भधारण से पूर्व महिला […]

डॉ मधुलिका जोनाथन
प्रमुख, झारखंड यूनिसेफ
बच्चे के जन्म के प्रथम एक हजार दिन के दौरान पर्याप्त पोषण-गर्भधारण से लेकर दूसरे वर्ष तक, न केवल बच्चे को जीवित रहने तथा बढ़ने में मदद करता है, बल्कि उनके पूर्ण शारीरिक और मानसिक विकास में भी मदद करता है. लैंसेट रिपोर्ट-2018 के अनुसार, गर्भधारण से पूर्व महिला का स्वास्थ्य, मां और बच्चे दोनों के स्वास्थ्य परिणामों का एक महत्वपूर्ण निर्धारक है. बचपन में होनेवाला नाटापन, जो कि लंबे समय के कुपोषण का संकेतक है, के कारण बच्चे को जीवन में आगे चलकर कई समस्याओं का सामना करना पड़ता है.
इससे बच्चे के पठन क्षमता में कमी आती है, जिसके कारण वे स्कूल छोड़ने को बाध्य हो जाते हैं. इसके अलावा, युवावस्था में आय क्षमता में भी कमी आती है, जिससे कुपोषण तथा गरीबी का चक्र एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में बरकरार रहता है.
झारखंड में पांच वर्ष से कम उम्र का हर दूसरा बच्चा अपनी उम्र की तुलना में काफी नाटा है तथा मां बनने योग्य 10 महिलाओं में से 7 एनिमिया ग्रस्त हैं.
हालांकि, झारखंड में 62 प्रतिशत बच्चों का संस्थागत प्रसव होता है, लेकिन दुर्भाग्य से तीन में से केवल एक बच्चे को ही जन्म के एक घंटे के अंदर स्तनपान कराया जाता है. लगभग एक-तिहाई नवजातों को प्रथम छह माह के दौरान अपनी मां का दूध नहीं मिल पाता है.
कुपोषण का तात्कालिक कारण अपर्याप्त आहार तथा बीमारी है. इसके मूल में घरेलू खाद्य असुरक्षा, अपर्याप्त मातृ एवं शिशु देखभाल अभ्यास तथा अपर्याप्त पोषण युक्त भोजन भी है. साफ-सफाई का अभाव तथा स्वास्थ्य सेवा की कमी भी प्रत्यक्ष रूप से बीमारी के खतरे को बढ़ाता है. अनुमानित तौर पर 40-60 प्रतिशत बच्चों में कुपोषण का कारण साफ-सफाई की खराब स्थिति, विशेषकर बारंबार होनेवाली डायरिया, इंवायर्नमेंटल इंट्रोपैथी तथा पेट से संबंधित संक्रमण हैं.
वैश्विक रिपोर्ट और अध्ययन बताता है कि पोषण में किया गया निवेश कम लागत में किया जानेवाला प्रभावी विकास कार्य है. ग्लोबल न्यूट्रीशन रिपोर्ट 2017 के अनुसार, पोषण में किया गया एक डॉलर का निवेश 16 डॉलर की वापसी दिलाता है. भारत में लगभग दो-तिहाई कामकाजी आबादी बचपन में नाटापन का शिकार होने के कारण 13 प्रतिशत कम कमाई कर पाती है.
जो बच्चे नाटेपन के शिकार होने से बच जाते हैं, उनमें युवावस्था के दौरान गरीबी से बाहर आने की संभावना 33 प्रतिशत बढ़ जाती है. वर्ल्ड बैंक का हालिया रिपोर्ट बताता है कि दो वर्ष से कम उम्र के बच्चों में कुपोषण के कारण भारत को प्रतिवर्ष 2-3 प्रतिशत जीडीपी का नुकसान होता है. इससे पता चलता है कि पोषण कार्यक्रमों में निवेश करने से व्यक्ति तथा देश दोनों को लाभ मिलता है.
प्रधानमंत्री द्वारा पोषण अभियान का शुभारंभ 8 मार्च, 2018 को किया गया. यह अभियान, बच्चों, गर्भवती महिलाओं तथा धातृ माताओं में पोषण-स्तर को बेहतर बनाने हेतु भारत की मजबूत प्रतिबद्धता को दर्शाता है. पोषण अभियान के तहत पूरे सितंबर माह को पोषण माह के रूप में मनाया जा रहा है.
विभिन्न विभागों द्वारा चलाये जा रहे पोषण संबंधित योजनाओं का समन्वयन, कर्मचारियों का कौशल विकास, व्यवहार परिवर्तन संचार, सामुदायिक एकजुटता, प्रदर्शन आधारित प्रोत्साहन, जनभागीदारी तथा शिकायत निवारण एवं निगरानी के लिए मोबाइल तकनीक का उपयोग कुछ ऐसे क्षेत्र हैं, जिसके द्वारा देश में अल्पपोषण की समस्या को कम करने का लक्ष्य रखा गया है.
आज बड़े पैमाने पर पोषण से जुड़े कार्यक्रमों की आवश्यकता है, जो पोषण की मूल समस्याओं का समाधान करें तथा विशेष रूप से पोषण हस्तक्षेप के प्रभाव तथा दायरे को बढ़ाएं. हालांकि, दूसरे अन्य कारक भी हैं, जो बच्चों के पोषण की स्थिति पर असर डालते हैं. कृषि उनमें से एक है.
अत: कृषि उत्पादों को बढ़ावा देने, कीमतों को काबू में रखने तथा आय को बढ़ाने हेतु निवेश जरूरी है. लक्षित कृषि कार्यक्रम के माध्यम से आजीविका को समर्थन प्रदान कर, गरीबों के बीच विविध प्रकार के आहार की पहुंच को बेहतर बनाकर तथा महिला सशक्तीकरण को बढ़ावा देकर इस निवेश को और सुदृढ़ बनाया जा सकता है.
गरीबी रेखा से नीचे के लोगों तक खाद्यान्न उपलब्ध कराने की सरकारी योजनाओं के अच्छे प्रभाव देखे गये हैं. लंबे समय से कुपोषण से प्रभावित छोटे बच्चों पर इसके अच्छे प्रभाव दिखायी पड़ते हैं, लेकिन पोषण लक्ष्यों और कार्यों में मौजूद असमानताएं तथा सेवाओं में गुणवत्ता की कमी संभवत: पोषण से मिलनेवाले संपूर्ण लाभ की कमी की ओर इशारा करता है. प्रारंभिक बाल विकास कार्यक्रम तथा पोषण हस्तक्षेप बच्चों के विकास पर आशाजनक प्रभाव को दर्शाते हैं.
अभिभावकीय स्कूली शिक्षा का बच्चों के पोषण स्तर पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है. विशेषकर मां के 12 साल या उससे अधिक की शिक्षा का असर उसके बच्चों के बेहतर स्वास्थ्य एवं पोषण पर देखा गया है.
पोषण-संवेदनशीलता को बढ़ाने के लिए आवश्यक है कि सामुदायिक भागीदारी को प्रोत्साहित किया जाये, पोषण लक्ष्यों तथा कार्यों को मजबूत किया जाये तथा महिलाओं के पोषण, शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य तथा सशक्तीकरण को बेहतर बनाया जाये. पोषण से जुड़े कार्यक्रम, सुपोषण हस्तक्षेपों को विस्तार देने में मदद कर सकते हैं तथा ऐसे वातावरण का निर्माण कर सकते हैं, जिसमें बच्चे विकास के साथ-साथ अपनी पूर्ण क्षमता को प्राप्त कर सकें.

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