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कठिन है सत्य तक पहुंचना

पवन के वर्मा लेखक एवं पूर्व प्रशासक pavankverma1953@gmail.com हाल ही में कोलकाता चेंबर ऑफ कॉमर्स को संबोधित करते हुए मैंने भारतीय अर्थव्यवस्था की वर्तमान स्थिति को समझने हेतु माया की दार्शनिक अवधारणा की सहायता ली. माया प्रकृति की भ्रमात्मक शक्ति है. वह एक आवरण फैला देती है, जो चीजों की सच्ची वास्तविकता को छिपा देने […]

पवन के वर्मा
लेखक एवं पूर्व प्रशासक
pavankverma1953@gmail.com
हाल ही में कोलकाता चेंबर ऑफ कॉमर्स को संबोधित करते हुए मैंने भारतीय अर्थव्यवस्था की वर्तमान स्थिति को समझने हेतु माया की दार्शनिक अवधारणा की सहायता ली. माया प्रकृति की भ्रमात्मक शक्ति है. वह एक आवरण फैला देती है, जो चीजों की सच्ची वास्तविकता को छिपा देने के साथ ही उसे विद्रूप भी कर देता है.
कहने का तात्पर्य यह नहीं कि पिछले चार वर्षों में कुछ भी हासिल नहीं हो सका है. किसी भी सरकार का रिकॉर्ड केवल श्वेत अथवा श्याम का ही समुच्चय नहीं होता. वस्तुतः किस परिमाण में क्या हासिल किया गया है, यह बहस का मुद्दा है. सरकारी आंकड़े दावा करते हैं कि भारत विश्व में सर्वाधिक ऊंची विकास दर वाले जीडीपी के साथ सबसे तीव्र गति से विकासशील अर्थव्यवस्था का देश बन गया है.
मगर कुछ अन्य लोग इन आंकड़ों पर ही सवाल उठाते हुए यह कहते हैं कि जीडीपी में सात प्रतिशत की वृद्धि के सरकारी दावे के विपरीत वह इससे कम-से-कम दो प्रतिशत नीचे है. वे यह भी कहते हैं कि यदि हम सचमुच ही सबसे तेज अर्थव्यवस्था हैं, तो इसके जमीनी नतीजे क्यों नजर नहीं आते? मसलन, विश्व भूख सूचकांक पर 119 देशों की सूची में वर्ष 2016 से 2017 के दौरान क्यों हम तीन पायदान नीचे खिसक अभी 100वें स्थान पर नेपाल तथा बांग्लादेश के भी नीचे खड़े हैं?
सरकार यह दावा करती है कि इस बीच किसानों को विभिन्न योजनाओं के अंतर्गत सबसे बड़ी तादाद में ऋण स्वीकृत किये गये हैं. यदि ऐसा है, तो क्यों किसान आज भी लगातार आत्महत्या करते जा रहे हैं?
सरकार कहती है कि कई क्षेत्रों में रिकॉर्ड-तोड़ कृषि उत्पादन हुआ है और हमें इसके लिए किसानों पर गर्व होना चाहिए. कुछ अंशों में यह सही भी है. किंतु फिर क्यों उन्हें लाभकारी मूल्यों के अभाव में अपने उत्पाद सड़क पर फेंकने को मजबूर होना पड़ता है? फसल बीमा योजना एक नेकनीयत पहल थी, पर विशेषज्ञों का कहना है कि इससे किसानों की अपेक्षा बीमा कंपनियां अधिक लाभान्वित हुई हैं.
न्यूनतम समर्थन मूल्य के मामले में भी सरकार ने घोषणा थी कि वह किसानों को लागत पर 50 प्रतिशत का लाभकारी मूल्य दिलायेगी. यह निर्णय एक तो बहुत देर से आया और दूसरे, यह बहुत थोड़ा लाभ देता है. फसलों की लागत तय करने का तरीका भी सवालों के घेरे में है. सबसे बड़ा प्रश्न तो यह है कि कृषि उत्पादों के भंडारण एवं खरीद हेतु जरूरी ढांचे के अभाव में क्या कभी किसानों को ये बढ़ी कीमतें सचमुच मिल भी सकेंगी?
सत्य तथा वास्तविकता और दावे एवं प्रतिदावे की यही स्थिति कई अन्य क्षेत्रों में भी तारी है. सरकार दावा करती है कि प्रत्यक्ष विदेशी निवेश रिकॉर्ड ऊंचाई पर है, पर डॉलर के मुकाबले रुपये की कीमत अब तक के सबसे निचले स्तर पर है.
इस सरकार के शुरुआती दिनों में तेल की कीमतें अपने ऐतिहासिक निम्न स्तर पर थीं, पर उसके फायदे उपभोक्ताओं को हस्तांतरित नहीं किये गये और अब तो वे एक अस्वीकार्य ऊंचाई पर पहुंच चुके हैं. वृहत स्तर पर मुद्रास्फीति नियंत्रण में है, पर मध्यम वर्ग अपने दैनंदिन जीवन में बढ़ती कीमतों के दंश झेलता है. जनधन खाते खोलने में एक नया रिकॉर्ड बना, पर यह भी पता करने की जरूरत है कि उनमें से कितने में जमा और लेन-देन की स्थिति अभी भी शून्य पर ही है?
गैस सिलिंडरों की उज्ज्वला योजना निस्संदेह एक अच्छी पहल है, पर लोग यह भी कहते हैं कि बांटे गये लगभग आधे सिलिंडरों के रीफिल फिर नहीं मिले. कार्यान्वित हो जाने के पश्चात बुलेट ट्रेन की योजना भारतीयों के लिए गर्व की वस्तु होगी, मगर वे साधारण ट्रेनें दुर्घटनाओं की शिकार होती ही रहती हैं, जिनमें सामान्य जन यात्रा करते हैं, क्योंकि उनकी सुरक्षा तथा रखरखाव उन्नत करने हेतु पर्याप्त पैसे नहीं हैं.
स्वच्छ भारत भी एक प्रशंसनीय लक्ष्य है, लेकिन यह पता करने हेतु एक सामाजिक अंकेक्षण की जरूरत है कि बनाये गये करोड़ों शौचालयों में वस्तुतः कितने उपयोग में लाये जा रहे हैं. इस अभियान के चार वर्षों बाद भी क्यों राष्ट्रीय राजधानी में कूड़े का निस्तारण इतना घटिया है कि सुप्रीम कोर्ट को यह कहने पर मजबूर होना पड़ा कि गाजीपुर में जमा किये जाते कचरे का ढेर जल्दी ही कुतुबमीनार से भी ऊंचा हो जायेगा?
सरकार कहती है कि यह विकास रोजगारविहीन नहीं है, करोड़ों की संख्या में मुद्रा ऋण दिये गये हैं और स्वरोजगारों की संख्या काफी बढ़ी है. फिर भी सामान्य नागरिकों का यह कहना है कि प्रतिवर्ष दो करोड़ रोजगारों का वादा तो स्पष्टतः ही पूरा नहीं हो सका और न सिर्फ काम मिल नहीं रहा, बल्कि नौकरीपेशा भी नौकरियों से निकाले जा रहे हैं.
सरकार यह दावा करती है कि नोटबंदी राष्ट्र से कालेधन की समाप्ति का एक साहसिक कदम था. यह नीयत तो निस्संदेह भली थी, पर कार्यान्वयन में भयानक भूलें की गयीं. इसने अर्थव्यवस्था, खासकर अनौपचारिक क्षेत्र को तो स्पष्टतः ही हिला दिया. इसी तरह, जीएसटी को लागू करना भी एक जरूरी सुधार था, पर इसके क्रियान्वयन में बहुत बेहतरी की गुंजाइश रही है.
सरकार इस बात पर उचित ही गर्व करती है कि कारोबारी सुगमता के पैमाने पर भारत ऊपर चढ़ा है. पर इस पूरी रिपोर्ट पर गौर करने से एक मिश्रित तस्वीर ही उभरती है.
वर्ष 2016 में दिवाला एवं दिवालियापन संहिता पारित करना एक सकारात्मक कदम था, मगर कारोबार शुरू करने जैसी एक आवश्यक चीज में हम अभी भी सबसे निम्न पायदान के निकट ही हैं. सरकार कहती है कि उसने कराधान का राष्ट्रीयकरण कर दिया है, पर सामान्य नागरिक तो उन अतिरिक्त उपकारों की गिनती भी भूल गया है, जिन्हें उसे चुकाना पड़ता है.
कॉरपोरेट हस्तियां टीवी इंटरव्यू में सरकार की तारीफ के पुल बांधती हैं, लेकिन निजी बातचीत में एक बदतर होते निवेश वातावरण तथा कारोबारी आत्मविश्वास के क्षरण की बातें करती हैं. कालाधन फिर उफान पर है, अरबों रुपये लेकर देश से भाग निकलनेवाले आर्थिक अपराधियों की सूची लंबी ही होती जा रही है, जबकि बैंक डूबे ऋणों के पहाड़ से जूझ रहे हैं.
ऐसी स्थिति में उस सत्य का संधान बहुत कठिन है, जो आवरण के पीछे छिपा पड़ा है. लाख टके का सवाल यह है कि उसे अनावृत्त कौन करे?
(अनुवाद : विजय नंदन)

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