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डॉ रामदयाल मुंडा जयंती आज : आदिवासी संस्कृति की पहचान के लिए लड़ते रहे डॉ रामदयाल मुंडा
अनुज कुमार सिन्हा दे ऊड़ी (तमाड़) जैसी छाेटी जगह से निकल कर अगर काेई आदिवासी युवा देश-दुनिया में अपनी विशेष पहचान बना लेता है ताे वह युवक खास हाेगा ही. अदभुत गुणाें से भरा हाेगा वह युवक. यहां बात हो रही है डॉ रामदयाल मुंडा की. 23 अगस्त 1939 काे जब देऊड़ी में रामदयाल मुंडा […]
अनुज कुमार सिन्हा
दे ऊड़ी (तमाड़) जैसी छाेटी जगह से निकल कर अगर काेई आदिवासी युवा देश-दुनिया में अपनी विशेष पहचान बना लेता है ताे वह युवक खास हाेगा ही. अदभुत गुणाें से भरा हाेगा वह युवक. यहां बात हो रही है डॉ रामदयाल मुंडा की. 23 अगस्त 1939 काे जब देऊड़ी में रामदयाल मुंडा का जन्म हुआ था, तब देऊड़ी ताे क्या, रांची की भी बहुत पहचान नहीं थी.
मुंडा जी वहां से निकले, रांची में पढ़ाई की. स्कॉलर बने लेकिन अपनी पहचान नहीं छाेड़ी. चाहे नृत्य हाे या संगीत, वह ताे उनके रग-रग में समाया हुआ था. यह विधा उन्हें अपने पिता से विरासत में मिली थी.चाहे मांदर हाे या बांसुरी, दाेनाें काे बजाने में उन्हें महारत हासिल थी. ताउम्र उसे नहीं छाेड़ा.
सरहुल हाे या करमा, डॉ मुंडा मांदर बजाते, गीत गाते आैर नृत्य करते कभी सकुचाते नहीं थे. यही ताे है अपने झारखंड की समृद्ध संस्कृति आैर इसी संस्कृति काे आगे बढ़ाने में, आदिवासियाें की पहचान काे बनाये रखने में उन्हाेंने अपना पूरा जीवन लगा दिया. आगे की पढ़ाई आैर पीएचडी करने के लिए वे जब शिकागाे गये, वहां भी उन्हाेंने अपनी पहचान काे बनाये रखा. यह काम आसान नहीं हाेता.
काेई आैर हाेता ताे शायद अमेरिका में रहने का आनंद छाेड़ कर भारत नहीं लाैटता. लेकिन जब माटी (यानी झारखंड) की पुकार आयी ताे सब कुछ छाेड़ कर लाैटने में काेई समय नहीं लिया. लाैटने का आग्रह था कुमार सुरेश सिंह का.
उन दिनाें यह तय हुआ कि रांची में क्षेत्रीय भाषाआें की पढ़ाई के लिए विभाग खुल रहा है आैर इसे अगर काेई आगे बढ़ा सकता है ताे वह हैं डॉ रामदयाल मुंडा. डॉ मुंडा काे बुलाया गया. वे अमेरिका से अाये आैर वह काम कर दिखाया जाे काेई साेच भी नहीं सकता. विभाग के भवन बनाने के वक्त खुद ईंट जाेड़ने में भी वे लग गये.
वे जानते थे कि झारखंड की संस्कृति तभी सुरक्षित रह सकती है, जब भाषा बचे आैर इसी भाषा काे बचाने में उनका विभाग लगा रहा, वे लगे रहे. डॉ मुंडा जानते थे कि अलग झारखंड राज्य बने बिना किसी का कल्याण हाेनेवाला नहीं है. उन्हाेंने झारखंड की लड़ाई लड़ी. न सिर्फ बाैद्धिक ताैर पर बल्कि सड़क पर उतर कर भी. अन्याय भी कम नहीं हुआ. डॉ मुंडा रांची विश्वविद्यालय के कुलपति बने, लेकिन दांव-पेंच कर उन्हें हटा दिया गया. वे हार नहीं माने.
वे झारखंड आंदाेलन काे मजबूत करने में लगातार जुटे रहे. डॉ मुंडा काे इसी झारखंड में बीपी केसरी जैसा दाेस्त मिला. मुंडाजी जानते थे कि झारखंड की लड़ाई के पहले वे पूरे झारखंड काे समझें आैर इसी कारण उन्हाेंने केसरी जी के साथ पूरे झारखंड की माेटरसाइकिल से यात्रा की.
लाेगाें से मिले आैर उनके विचाराें काे जाना, उनका समर्थन हासिल किया. बाद में उन्हें राज्यसभा का सदस्य बनाया गया, पद्मश्री की उपाधि से नवाजा गया. लेकिन उनका अपना सपना था आैर इसे पूरा करने के लिए उन्हाेंने काम भी किया. जिस डुंबारी पहाड़ी पर भगवान बिरसा मुंडा ने अंतिम लड़ाई लड़ी थी, वहां हर साल बड़ा आयाेजन किया, बिरसा मुंडा की मूर्ति लगवायी.
डॉ मुंडा चाहते थे कि पूरा देश एक दिन नृत्य करे आैर खुशी मनाये (खास ताैर पर आदिवासी). उस दिन राष्ट्रीय अवकाश भी हाे. इसके लिए वे प्रयास भी कर रहे थे. वे चाहते थे कि झारखंड में सांस्कृतिक आंदाेलन चलता रहे, आगे बढ़ता रहे. टैगाेर हिल पर आेपन थियेटर बने.
पिठाैरिया में मंदरा मुंडा के किले काे ऐतिहासिक स्थल के ताैर पर विकसित किया जाये. ये सब काम अधूरे रह गये. डॉ मुंडा की याद में, उनके सम्मान में टीआरआइ का नामकरण किया गया है, खेल गांव में म्यूजियम बनाया गया है, माेरहाबादी में उनकी मूर्ति बनायी गयी है. यह अच्छी बात है, लेकिन डॉ मुंडा के सपने काे आगे बढ़ाने का काम धीमा पड़ गया है या बंद हाे गया है.
टैगाेर हिल के हालात ताे यही बताते हैं. मदरा मुंडा के किले काे बचाने के लिए काेई काम नहीं हाे रहा है. क्षेत्रीय भाषाआें की पढ़ाई संकट में है. शिक्षकाें का अभाव है. डॉ मुंडा ने मुंडारी पर काफी काम किया. नागपुरी आैर मुंडारी में उन्हाेंने अनेक गीत लिखे. इन सभी काे भावी पीढ़ी के लिए सहेज कर रखना बड़ी चुनाैती है.
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