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जब अटलजी ने कहा- मेरी आस्था भारत
तरुण विजय भाजपा नेता सवाल सीधा-सा था- इतनी कठिनाइयों में भी आप शांत स्वर कैसे रखते हैं? आपकी आस्था का आधार? अटलजी अपने चिर-परिचित शैली में मुझे देखते रहे और मंद स्मित के साथ बोले-आस्था? मेरी आस्था भारत है, और कुछ नहीं. मैं कुछ क्षण सन्न-सा रह गया था. कितनी बड़ी बात कितनी सहजता से […]
तरुण विजय
भाजपा नेता
सवाल सीधा-सा था- इतनी कठिनाइयों में भी आप शांत स्वर कैसे रखते हैं? आपकी आस्था का आधार? अटलजी अपने चिर-परिचित शैली में मुझे देखते रहे और मंद स्मित के साथ बोले-आस्था? मेरी आस्था भारत है, और कुछ नहीं.
मैं कुछ क्षण सन्न-सा रह गया था. कितनी बड़ी बात कितनी सहजता से कह गये अटलजी!
अटलजी की तुलना सिर्फ अटलजी से ही की जा सकती है. राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रचारक, कवि ऐसे कि हृदय में सागर हिलोरे लेने लगे, वक्ता ऐसे कि मन के तार झंकृत हो उठें, धमनियों में रक्त गर्म हो चले, तो कभी हंसते-हंसते आंख में पानी आ जाये. शायद वही प्रधानमंत्री हुए, पंडित नेहरू के बाद, जो अपने हाथ से दर्जनों पत्र लिखने में आनंद महसूस करते थे और प्राय: अंतिम पंक्ति में लिखते थे- ‘आपका स्नेह बना रहे, यही कामना है.’
वह पंडित दीनदयाल उपाध्याय के अनन्य सहयोगियों में से थे और डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी के बहुत प्रिय. राष्ट्रधर्म जैसी पत्रिकाओं को उनकी कलम की धार मिली. ‘हिंदू तन-मन, हिंदू जीवन, रग-रग हिंदू, मेरा परिचय’ तथा ‘गगन में लगराता है भगवा हमारा’ कविताएं तभी लिखी गयीं.
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के संस्थापक डॉ हेडगेवार के प्रति उन्होंने लिखा, ‘केशव के आजीवन तप की यह पवित्रतम धारा, साठ सहस्र ही नहीं, तरेगा इससे भारत सारा.’ वहीं अटलजी ने ‘हिरोशिमा’ और ‘मनाली मत जैइयो’ जैसी रचनाएं भी कीं. उनकी संसदीय शैली स्वयं एक राजनीतिक विद्यालय कहा जा सकता है. आक्रामकता में भी शालीनता, प्रहारों की तीव्रता में भी संयम और आज जो लगभग पूरी तरह संसद से गायब हो चुका है- हास्य का जीवंत पुट उनकी आसाधारण शैली के अद्भुत स्मृति कलश है.
वही ऐसे राजपुरुष हैं, जो यदि पंडित नेहरू से भी प्रशंसा ले सके, तो इंदिराजी ने भी दिल खोलकर उनकी तारीफ की. आपातकाल में जेल गये, तानाशाही का जुल्म झेला, लेकिन बाद में सत्ता में आये, तो इंदिराजी के प्रति भाषा में कभी कटुता नहीं दिखायी. इसका एक उदाहरण मारुति कार की शुरुआत के समय संसद में हुए विवाद के अवसर पर उनका बोला गया एक वाक्य है, ‘बेटा कार बनाता है, मां बेकार बनाती है.’
शायद कच्छ सत्याग्रह की बात है. आंदोलन में जेल गये, फिर रिहा हो गये. पत्रकारों ने पूछा, आप तो आंदोलन लिए गये थे, फिर रिहा होकर कैसे आ गये? अटलजी ने एक क्षण घूरा. फिर बोले ‘कैद मांगी थी, रिहाई तो नहीं मांगी थी’- यह एक प्रसिद्ध फिल्मी गीत की पंक्ति है और फिर खिलखिलाकर हंस पड़े. बात खत्म हो गयी.
लाहौर में बस यात्रा के समय वह बहुत आशान्वित थे और गवर्नर हाउस में दिया उनका भाषण राजनय के क्षेत्र में ऐतिहासिक माना जाता है, लेकिन परवेज मुशर्रफ के धोखे ने उन्हें बहुत पीड़ा दी. वह हर कीमत पर, अतिरिक्त मील चलकर भी पाकिस्तान से ठीक मैत्री चाहते थे.
विश्वासघात हमेशा पाकिस्तान से हुआ और उन्होंने एक बार कहा भी- उन पर कैसे भरोसा करें? कारगिल के शहीदों को सम्मान के प्रति वह बहुत संवेदनशील रहे और उनके शासन में ही पहली बार भारत में सैनिक शहीदों को भावभीनी विदाई दी गयी.
उनकी दोस्ती कहानियों का विषय है. चंद्रशेखर और नरसिंह राव के साथ तो उनकी मित्रता हर दायरे से ऊपर रही. उनके कविता संग्रह ‘मेरी इक्यावन कविताएं’ का लोकार्पण तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने किया और उन्होंने भी मित्रता के लिए अपने दायरे तोड़े. जाॅर्ज फर्नांडीस की सादगी के वह कायल रहे और उन्हें उस समय बहुत पीड़ा हुई थी, जब कांग्रेस ने नाहक ताबूतों का मामला उछाला.
रामजन्म भूमि आंदोलन मामले में उनका अपना ही मत रहा, जिससे वह डिगे नहीं, लेकिन कभी एक शब्द भी ऐसा नहीं निकलने दिया, जिससे संगठन या बड़े अधिकारियों की साख पर आंच आये. एक अत्यंत वरिष्ठ संघ अधिकारी के सार्वजनिक साक्षात्कार से वह बहुत पीड़ित हुए.
उन दिनों वैसे भी स्वदेशी के आंदोलनकारी काफी कटु हो गये थे, लेकिन अटलजी ने वह सारी पीड़ा झेल ली- हालाहल की तरह पी गये, पर आलोचना में कुछ बोले नहीं. बाद में मैंने उनसे कहा कि आपने स्वयंसेवकों का सम्मान रख लिया, क्योंकि अगर आप कुछ भी कहते, तो एक परंपरा खंडित हो जाती. उदास होकर वह बोले थे- बोलकर करता भी क्या? बचा ही क्या था?
जो तय कर लिया उस लीक से क्षणांश भी हटना नहीं, भले ही कोई कुछ भी कहता रहे यह भी उनके सौम्य व्यक्तित्व की चट्टानी दृढ़ता थी. गर्व से कहो हम हिंदू की जगह गर्व से कहो हम भारतीय हैं कहने का उन्होंने साहस दिखाया, तो पांचजन्य के साक्षात्कार में यह भी कहा कि प्रतिक्रिया में जन्मा जागरण स्वस्थ नहीं है.
उनके शब्द थे- ‘यदि हिंदुत्व के प्रति गर्व प्रतिक्रिया में उत्पन्न हुआ है, तो यह भी कोई बहुत स्वस्थ स्थिति नहीं है. यदि लोग इस प्रतिक्रिया में हिंदू हो रहे हैं तो दूसरे लोग प्रतिक्रिया में और भी कट्टर होंगे. विधायक तत्वों के आधार पर ही वर्तमान की दुविधा को हल करने की कोशिश होनी चाहिए. भारत में हिंदू बहुसंख्या में हैं, इसलिए हमारा दायित्व भी अधिक है.’
सूचना प्रौद्योगिकी में क्रांति, मोबाइल टेलीफोन को सस्ता बनाकर घर-घर पहुंचाना, भारत के ओर-छोर स्वर्णिम चतुर्भुज राजमार्गों से जोड़ना और हथियारों के मामले में भारत को अधिक सैन्य सक्षम बनाना अटल जी की वीरता एवं विकास केंद्रित नीति के शानदार परिचय हैं.
वे अंतिम व्यक्ति की गरीबी को दूर करने के लिए बेहद चिंतित रहते थे. पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी के एकात्म मानववाद और गांधी चिंतन में उनकी गहरी श्रद्धा थी, इसीलिए भाजपा निर्माण के बाद उन्होंने गांधीवादी समाजवाद को अपनाया.
वे घनघोर विपक्षी पर भी घनघोर व्यक्तिगत प्रहार के पक्षधर ही थे. हम पांचजन्य में उन दिनों सोनिया जी के नेतृत्व में कांग्रेस की तीखी आलोचना करते थे. ऐसे ही एक अंक को देख कर उन्होंने प्रधानमंत्री कार्यालय से ही फोन किया- विजय जी, नीतियों और कार्यक्रमों पर चोट करिये, व्यक्तिगत बातों को आक्षेप से बाहर रखिये, यह अच्छा होगा.
एक बार हमने धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे अंक निकाला, जिसके मुख्यपृष्ठ पर काशी के डोमराजा के साथ संतों, शंकराचार्य और विश्व हिंदू परिषद के तत्कालीन अध्यक्ष श्री अशोक सिंघल का भोजन करते हुए चित्र छापा. अटल जी यह देखकर बहुत प्रसन्न हुए और कहा कि ऐसी बातों का जितना अधिक प्रचार-प्रसार हो, उतना अच्छा है.
ऐसे कार्यक्रम और होने चाहिए, लेकिन मन से होने चाहिए, फोटो-वोटो के लिए नहीं. पांचजन्य के प्रथम संपादक तो थे ही, प्रथम पाठक भी थे. प्रधानमंत्री रहते हुए हमारे अंकों पर उनकी प्रतिक्रियाएं मिलती थीं. एक बार स्वदेशी पर केंद्रित हमारे अंक के आवरण पर भारत माता का द्रौपदी के चीरहरण जैसा चित्र देख वे क्रुद्ध हुए- ‘हमारे जीते जी ऐसा दृश्यांकन, हम मर गये हैं क्या?’ संयम और शालीनता के बिना पत्रकारिता नहीं हो सकती.’
वास्तव में अटल जी को भारतरत्न नहीं मिला, बल्कि भारत रत्न को भारत रत्न मिला है. उन्होंने भारतीयों को भारत के प्रति आस्थावान किया और सबको सहज, मधुर भाव से साथ में ले चलने का अजातशत्रुभाव हैं.
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