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हजारों खाली फ्लैट और बेघर लोग

सुभाष गाताडे सामाजिक कार्यकर्ता subhash.gatade@gmail.com देश में तेजी से हो रहे औद्योगिकीकरण और नये-नये इलाकों में आप्रवासियों के लिए बनते नये उपनगरों में अनुमान के हिसाब से लोगों के न पहुंचने से वहां बिल्कुल खाली पड़े लाखों मकानों के बारे में अक्सर चर्चा होती है. कहा जा रहा है कि चीन में पचास से अधिक […]

सुभाष गाताडे
सामाजिक कार्यकर्ता
subhash.gatade@gmail.com
देश में तेजी से हो रहे औद्योगिकीकरण और नये-नये इलाकों में आप्रवासियों के लिए बनते नये उपनगरों में अनुमान के हिसाब से लोगों के न पहुंचने से वहां बिल्कुल खाली पड़े लाखों मकानों के बारे में अक्सर चर्चा होती है.
कहा जा रहा है कि चीन में पचास से अधिक ऐसे इलाके हैं, जहां नवनिर्मित आवासीय इकाइयां लगभग खाली पड़ी हैं. विडंबना ही है कि अब भारत में भी ऐसे लक्षण दिख रहे हैं, भले ही उतने बड़े स्तर के न हों और जिसके कारण बिल्कुल भिन्न हों, जहां नवनिर्मित मकानों के खाली रह जाने की परिघटना आकार ले रही है, जबकि बेघरों की आबादी लगातार बढ़ रही है.
मालूम हो कि आवास को लेकर बनी संसदीय समिति की हालिया रिपोर्ट ने ही इस हकीकत को उजागर किया है. यूं तो गरीबों के लिए बने आवासों के खाली पड़े रह जाने की स्थिति देशव्यापी है, मगर इसका बड़ा हिस्सा चार राज्यों- बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, दिल्ली- में दिखायी देता है.
कमेटी ने कहा कि आवासीय संकट के बावजूद सरकारी कर्जों की सहायता से बने सस्ते आवासों का लगभग 25 फीसदी हिस्सा खाली पड़ा है. कमेटी की तरफ से संबंधित मंत्रालय को कहा गया है कि वह इस मुद्दे की गंभीरता से जांच कर ले.
ध्यान रहे कि सत्ताधारी पाटी के वरिष्ठ सांसद और हिमाचल प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री शांता कुमार की अगुआई वाली उपरोक्त कमेटी आवास और शहरी मामलों के मंत्रालय के तहत आनेवाली संस्था ‘हुडको’/ हाउसिंग एंड अर्बन डेवलपमेंट काॅर्पोरेशन/ की कार्यप्रणाली की जांच कर रही थी. मालूम हो कि तीन सरकारी योजनाओं ‘बेसिक सर्विसेस टू अर्बन पूअर, इंटीग्रेटेड हाउसिंग एंड स्लम डेवलपमेंट प्रोग्राम और जवाहरलाल नेहरू नेशनल अर्बन रिन्यूअल मिशन के तहत इन आवासों का निर्माण हो रहा है.
यह आलम तब है, जब अपने कई फैसलों में स्वयं सर्वोच्च न्यायालय इस बात को स्वीकारता दिखता है कि लोगों को आवास का अधिकार है. संविधान की धारा 21 के अंतर्गत जो तत्व जीवन के अधिकार की गारंटी करता है, वह एक तरह से आवास को भी बुनियादी अधिकार का हिस्सा मानता है.
चमेली सिंह और शांतिस्तर बिल्डर्स मामले में सुप्रीम कोर्ट ने आवास के अधिकार को बुनियादी अधिकार माना था और यह कहा था कि आवास के अधिकार का अर्थ है पर्याप्त रहने की जगह, साफ वातावरण आदि. वर्ष 1997 में नवाब खान के मामले में भी सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया था ‘यह राज्य का कर्तव्य है कि वह उचित दर पर मकानों का निर्माण करे और उन्हें गरीबों को उपलब्ध कराये.’
वर्ष 1988 में भारत सरकार ने नेशनल हैबिटाट एंड हाउसिंग पाॅलिसी बनायी थी, जिसमें चेतावनी दी गयी थी ‘आजादी के पचास साल बाद भी हममें से अधिकतर लोग ऐसी परिस्थितियों में रहते हैं, जिसमें पशु भी निवास नहीं कर सकते- यह परिस्थिति आवास क्रांति की जरूरत बताती है.’
आखिर ऐसे मकानों के खाली पड़े रहने की क्या वजह हो सकती है? तीन कारण दिखते हैं. गरीबों के लिए मकानों का निर्माण शहरों से दूर किया गया हो- जहां से कामकाज के लिए आने की सुविधा न होने से लोग वहां जाने से कतराते हों; दूसरा, मकानों का आकार छोटे परिवार के रहने लायक न हो तथा वहां पर्याप्त नागरिक सुविधाएं न हों; तीसरा, भले ही मकान सस्ते हों, आवंटितों के लिए उतनी राशि दे पाना मुमकिन न हो.
हाउसिंग सेक्टर से जुड़े कार्यकर्ता यह बताते हैं कि वंचितों एवं अत्यधिक गरीबों के लिए बनी आवास योजना का दारोमदार प्राइवेट सेक्टर पर रहता है, जिसमें प्लान यही रहता है कि बिल्डर्स गरीबों की झुग्गियों के विकास का बेड़ा उठायेंगे और लोगों को बसायेंगे.
इसके बाद जो जमीन बच जायेगी, उस पर वे निर्माण कर बाजार रेट पर बेच सकेंगे. यूपीए सरकार की राजीव गांधी आवास योजना में प्रोजेक्ट कीमत की 50-75 फीसदी राशि सरकार वहन करती थी, बाकी का राज्य सरकार और नाममात्रा की राशि लाभार्थी को देनी होती थी. लेकिन एनडीए सरकार ने इस योजना को रद्द कर दिया.
वैसे यह कोई पहला मौका नहीं है कि देश में खाली पड़े नये मकानों की बात चली है. पिछले साल जब समूचे देश को लेकर किये गये एक सर्वेक्षण के हवाले से एक लेख में बताया गया था कि शहरी भारत में लगभग 1.2 करोड़ मकान बनकर खाली पड़े हैं.
साउथ एशिया प्राइवेट लिमिटेड के प्रबंध निदेशक के हवाले से बताया गया था कि भले ही शहरी भारत में मकानों की कमी हो, इतने मकान खाली पड़े हैं. लेख में विगत साल के आर्थिक सर्वेक्षण का भी जिक्र था, उसके मुताबिक ‘शहरों में लगभग 1.88 करोड़ मकानों की कमी है.’ आर्थिक सर्वेक्षण में इस बात को भी स्पष्ट किया गया था कि इनमें से 95.6 फीसदी हिस्सा आर्थिक तौर पर कमजोर तबकों या निम्न आय वर्ग के हिस्सों में से है.
ऐसा विरोधाभास क्यों है कि मकानों के खरीदार नहीं है, फिर भी मकान बनते जा रहे हैं.दरअसल, रियल एस्टेट कंपनियां इतनी तेजी से उन लोगों के लिए मकान बनाती तथा बेचती जा रही हैं, जो निवेश करने की स्थिति में हैं और सट्टेबाजी की उम्मीद में अपने निवेश में भारी रिटर्न की ताक में रहते हैं, यानी इनमें अच्छा खासा ब्लैक मनी लगा है.
अगर उद्यमियों के संगठन ‘फिक्की’ के ‘ए स्टडी आॅन वाइडनिंग आॅफ टैक्स बेस एंड टैकलिंग ब्लैक मनी’ देखें, जो बताता है कि ‘भारत में रियल एस्टेट का क्षेत्र ऐसा क्षेत्र है, जिसमें भारत की अर्थव्यवस्था के सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 11 फीसदी लगा है.

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