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#IndependenceDay: बंटवारे के दर्द के साथ थी आजाद होने की खुशी

यह एक ऐसा जख्म है जिससे 72 साल बाद भी खून रिसता है. हर बार स्वतंत्रता दिवस की खुशी आते ही बंटवारे का दर्द भी उभर आता है. यह दर्द है विभाजन का, अपना सब कुछ छूट जाने का और सारी खुशियां लुट जाने का. 15 अगस्त 1947 को आजादी का तराना पूरे देश में […]

यह एक ऐसा जख्म है जिससे 72 साल बाद भी खून रिसता है. हर बार स्वतंत्रता दिवस की खुशी आते ही बंटवारे का दर्द भी उभर आता है. यह दर्द है विभाजन का, अपना सब कुछ छूट जाने का और सारी खुशियां लुट जाने का. 15 अगस्त 1947 को आजादी का तराना पूरे देश में गूंजा. वंदे मातरम व भारत माता की जय का उद्घोष जन-जन को पुलकित कर रहा था, लेकिन इस खुशनुमा घड़ी में देश दो टुकड़ों में बंट गया. इसके बाद मचे दंगे में इन लोगों का घरबार सब छूट गया.

दंगों में अपनों को खोना पड़ा और पूरी जिंदगी खत्म न होने वाला जख्म मिल गया. विभाजन में अपने रक्त से भारत मां का अभिषेक करने वाले हिंदू, मुस्लिम व सिख परिवार बंटवारे में बंट गये. मार-काट मच गयी, खून का दरिया बहा और लाशें ढेर होने लगीं. विभाजन के मचे दंगे की विभीषिका ने भारत माता का आंचल भी छलनी कर दिया. 1947 के 15 अगस्त यानी आजादी की पहली सुबह से लेकर अब तक आजादी को जश्न देखते आ रहे बिहार के बुजुर्ग भी उस दर्द को याद कर भावनाओं से भर आते हैं.

आजादी तो मिली पर देश के टुकड़े होने का दर्द भी मिला: रजी अहमद

गांधीवादी रजी अहमद कहते हैं कि मैं आजादी के दिन पटना में नहीं बल्कि बेगूसराय स्थित अपने गांव में था. वहां भी यह मानना था कि दर्द के साथ ही आजादी आयी है. यह दर्द देश के टुकड़े होने का था. हालांकि 15 अगस्त की सुबह जश्न का माहौल भी था. उधर कोलकाता में गांधी जी ने आजादी का दिन एकांत में बिताया. उनका कहना था कि मातम के बीच यह आजादी आयी है. वाकई में यही सच्चाई थी. बंटवारे के जख्म के बीच आयी यह खुशी धीरे धीरे एक उत्सव में बदल गया. अब सभी इस उत्सव में आजादी के सही मायने ढूंढ रहे हैं. उनका कहना है कि क्या हमें यह सवाल नहीं पूछना चाहिए कि इसी आजादी की तमन्ना थी?

उस खुशी के साथ दुख की कल्पना तो नहीं थी : कपिल मुनी तिवारी

भाषाविद् कपिल मुनी तिवारी ने अपनी यादें साझा करते हुए कहा कि 1948 में पटना कॉलेज पहली बार फर्स्ट इयर में नामांकन के लिए पहुंचे थे. यहां आने के पहले स्वतंत्रता दिवस को अपने गांव में मनाया था. उस वक्त छात्र होते हुए भी हमें अपने मुल्क के दो हिस्सों में बंटने का दुख था. दूसरी ओर एक खुशी अपना शासन आने की थी. हमलोगों ने उस खुशी में बंटवारे का जख्म भूल गये.

नगरनौसा में दंगे के बीच पहुंचे थे नेहरू: गणेश शंकर विद्यार्थी
95 वर्षीय गणेश शंकर विद्यार्थी कहते हैं कि मुझे वह सुबह याद है जब देश आजाद हुआ था. लेकिन बिहार के लोगों की प्रतिक्रिया थी कि पार्टीशन ठीक नहीं है. आजादी की खुशी के बीच लोग कहीं ना कहीं उदास भी थे. उस मंजर को याद करते हुए वे कहते हैं कि आजादी के पहले ही मारकाट शुरू हो गयी थी. अब तक वह दृश्य जेहन में कैद है जब दंगे की आग नगरनौसा और तेल्हाड़ा में भड़क गयी थी. तब नालंदा पटना जिले का ही हिस्सा हुआ करता था. वहां कुछ मुस्लिमों की हत्या कर दी गयी थी. हम लाेगों को खबर मिली कि पंडित नेहरू दंगे की आग बुझाने नगरनौसा आ रहे हैं. उधर हिंदू महासभा-आरएसएस ने उनके विरोध की रणनीति बनायी थी. हमलोगों को जब इसकी भनक मिली तो हम युवाओं ने नेहरू जी की सुरक्षा के लिए वहां जाने का फैसला किया. आपको यकीन नहीं होगा कि नेहरू जी वहां पहुंचने के बाद सीधे उपद्रवियों के बीच चले गये. बिना किसी सुरक्षा के वहां पहुंचे नेहरू जी ने कहा कि यदि एक भी मुस्लिम की हत्या हुई तो मैं यहां के सभी हिंदुओं पर मिलिट्री को कड़ी कार्रवाई का आदेश दे दूंगा. गोरे मिलिट्री किसी को नहीं छोड़ेंगे. इसके बाद श्री कृष्ण सिंह के साथ हमें भी रिलिफ अभियान की अगुवाई करने के लिए कहा गया.

साठ के दशक के स्वतंत्रता दिवस को ऐसे कर रहे याद : अमरेंद्र मिश्रा

पीयू के पूर्व साइंस डीन रहे अमरेंद्र मिश्रा ने बताया कि पिछले करीब साठ वर्षों से मैं पटना में स्वतंत्रता दिवस का साक्षी रहा हूं. साठ-सत्तर के दशक के वे भी क्या दिन थे. क्या उत्साह और उमंग रहता था लोगों में 15 अगस्त के दिन. सुबह होते ही सड़कों पर छोटे-छोटे बच्चे, जवान एवं बुजुर्ग सभी नहा-धोकर, सज-धज कर निकल आते थे, बच्चे स्कूल में, जवान एवं बुजुर्ग अपने-अपने कार्यस्थलों पर झंडा फहराने जाने के लिए या फिर गांधी मैदान में परेड और तरह-तरह की झांकियां देखने के लिए. सबमें अजीब उत्साह और उमंग, हृदय देश-प्रेम से ओत-प्रोत. बच्चों के हाथों में तिरंगा, लाउडस्पीकर पर देश-भक्ति के गाने, जगह-जगह पर जिलेबी का बनना, हर मिठाई की दुकान पर भीड़. अजीब समां बंध जाता था उस दिन. सचमुच में लगता था कि पटना एक राष्ट्रीय पर्व मना रहा है. समय के साथ-साथ, मैं जैसा अनुभव करता हूं, इस उत्साह में काफी कमी आ गयी है. अब तो ऐसा लगने लगा है कि इस दिन तिरंगा फहरा कर हम एक औपचारिकता की पूर्ति भर करने लगे हैं. सरकारी आयोजनों में भी अब पहले वाली बात नहीं रही. गांधी-मैदान में भी अब लोगों की वैसी भीड़ नहीं रहती. सरकारी तंत्र भी बस इसका निर्वाह भर कर रहा है. आवश्यकता है, अपने उमंग और अपने उत्साह को उसी तरह कायम रखना.

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