13.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

देश में अशांति, विदेश में गोदान

मृणाल पांडे ग्रुप सीनियर एडिटोरियल एडवाइजर, नेशनल हेराल्ड mrinal.pande@gmail.com पूर्वोत्तर में लगता है एक बार फिर बंगाली और बांग्लादेशी बनाम असमिया तनाव गहरा रहा है और डर है कि कहीं उसकी परिणति पूर्वी राज्यों में एक रक्तरंजित गृहयुद्ध में न बदल जाये! 1960 में भी ब्रह्मपुत्र की घाटी में बंगालियों तथा असमी भाषियाें के बीच […]

मृणाल पांडे
ग्रुप सीनियर एडिटोरियल एडवाइजर, नेशनल हेराल्ड
mrinal.pande@gmail.com
पूर्वोत्तर में लगता है एक बार फिर बंगाली और बांग्लादेशी बनाम असमिया तनाव गहरा रहा है और डर है कि कहीं उसकी परिणति पूर्वी राज्यों में एक रक्तरंजित गृहयुद्ध में न बदल जाये!
1960 में भी ब्रह्मपुत्र की घाटी में बंगालियों तथा असमी भाषियाें के बीच छिड़े भाषा युद्ध ने असम की जड़ें हिला दी थीं. उसने आचार्य कृपलानी को पीएसपी से अलग कर दिया और बंटवारे की मांगों के बीच लालबहादुर शास्त्री की बीच-बचाव की क्षमता को पहली बार सार्वजनिक किया था.
एक कमीशन बिठाया गया, जनजातियों की मांगों पर विचार हुआ और फिर दंगों की जांच के बाद असम के बंटवारे का प्रस्ताव उस समय खारिज हुआ. लेकिन, राजनीति के दबावों ने बंटवारे की भावना को थामे रखा और अंतत: पूर्वोत्तर को सात राज्यों में बांट दिया गया.
यह याद रखने लायक है कि यह इलाका हमेशा से दुर्गम, अशांत और जातीय रूप से मिला-जुला रहा है. अंग्रेजों ने इसे भारत का भाग तो माना, पर प्रशासकीय पंजे वहां नहीं फैलाये. चाय बागानों को छोड़ दें, तो शेष उग्र हिंसक जनजातीय इलाका कमोबेश जनजातियों के कबीलाई राज-समाज द्वारा ही संचालित होता रहा, जिसमें बीच-बीच में बर्मा से दरबदर जनजातियां और बिहार-बंगाल के मजदूर या महाजन चुपचाप शामिल होते चले गये.
आजादी के बाद यहां धीमे-धीमे व्यापक भारतीय संस्कृति का झिझक भरा प्रवेश हुआ, जिसमें यहां गैस के भंडार इसे शेष देश से जोड़ने की मजबूत रस्सी बने. बांग्लादेश बनने के बाद बांग्लादेशी हिंदू-मुसलमानों की आवक बढ़ती गयी और 1980 के दशक में इस क्षेत्र के लोगों ने अपनी मूल आबादी पर ‘बाहरियों’ के हावी होने का नारा फिर बुलंद किया. लेकिन, स्थानीय संस्कृति में उसकी जनजातीय जड़ें खानपान और धार्मिकता को लेकर कायम रहीं. कामाख्या मंदिर में पशुवध जारी रहा और गोमांस खानपान का हिस्सा भी बना रहा.
इधर हाल में सर्वोच्च न्यायालय ने जब यहां बेपहचान बाहरियों और स्थानीय लोगों को खास रजिस्टर में अलग-अलग दर्ज करने का आदेश दिया, तब तक भाजपा शासित असम का मन खानपान और अपनी एक खास हिंदू पहचान को लेकर काफी बदलने लगा था. 2019 चुनावों की चौखट पर खड़ी राजनीतिक पार्टियों ने मुद्दे को नयी तरह से स्पिन करना शुरू कर दिया. असम की मूल आबादी में गैर-असमिया लोगों की तादाद बढ़ चुकी है.
अचानक इनमें से बड़ी तादाद में अधिकतर अल्पसंख्यक वर्ग के 40 लाख लोगों को ‘बाहरिया’ चिह्नित कर उनको राज्य बदर करने का मतलब होगा भीषण अफरा-तफरी. बंगाल और बिहार के अलावा पूर्वोत्तर के नगालैंड जैसे ‘न ययौ न तस्थौ’ रहे राज्यों की फिजा में भी सांप-बिच्छू फैल जायेंगे और विदेश नीति में इसका फल बांग्लादेश तथा कुछ मायनों में (रोहिंग्या शरणार्थियों के कारण) म्यांमार से यकायक सींग भिड़ाना भी बन सकता है.
हल ही में हमारे प्रधानमंत्री पूर्वी अफ्रीका के देश रवांडा की राजकीय यात्रा करनेवाले पहले भारतीय प्रधानमंत्री बने. प्रधानमंत्री ने मेजबान देश की एक पारंपरिक (गिरिंका) योजना के तहत 200 गायों की भेंट देकर रवांडावासियों से भारत की मैत्री का इजहार किया. लेकिन, इस समय जब एक खौफनाक तरह से जबरन गो-वधबंदी जारी हो और गोवा से पूर्वोत्तर तक के पारंपरिक रूप से गोमांस से परहेज न करनेवाले राज्यों को भी लक्षित किया जा रहा हो, तब सुदूर अफ्रीका के एक अन्य देश को दिये गोदान पर चर्चा होनी ही थी. कुछ विघ्नसंतोषी इसे पराई बछिया का गोदान कह कर डिसमिस कर रहे हैं, तो कुछ लोग पारंपरिक रूप से दुग्धाहारी और गोमांसभक्षी देश को दुधारू गायें देने को भाजपा का अपनी मुख्यधारा के खिलाफ जाना मान रहे हैं.
जो भी हो, भारत ने घोषणा की है कि गहरे रक्तपात और नस्ली हिंसा को भुगतकर उबरे इस देश में वह जल्द ही अपना दूतावास स्थापित करेगा और औद्योगिक विकास एवं मुक्त व्यापार गलियारे के निर्माण के लिए भारत रवांडा को 20 करोड़ डाॅलर और खेती के विकास के लिए 10 करोड़ डाॅलर का ॠण भी देगा.
अमेरिका के लगाये कठोर आव्रजन और व्यापारिक प्रतिबंधों, यूरोपीय महासंघ में दिखती टूट के मद्देनजर इन दिनों आधी सदी बाद एफ्रो-एशियाई एकता का नारा फिर जोर पकड़ रहा है. अफ्रीका में चीन का केंद्रीय रोल बन चुका है.
चीन के ताकतवर राष्ट्र प्रमुख शी भी (सपत्नीक) राजकीय यात्रा पर ठीक तभी रवांडा आये. अमेरिकी सेक्रेटरी ऑफ स्टेट ने तुरंत आरोप लगाया कि चीन अफ्रीका के कई भ्रष्ट नेताओं से गोपनीय डील कर इस महादेश को अपने आक्रामक रूप से फैलाये ॠण के जाल में फंसा रहा है. पर सूप अगर चलनी में बहत्तर छेद गिनाये तो उससे क्या? चीन 12 बरस से रवांडा से संपर्क बनाकर वहां पर्यटन, खदान तथा निर्माण के 61 साझा उपक्रम बिठा चुका है. आज हम नहीं, चीन ही रवांडा का सबसे बड़ा व्यापारिक सहयोगी है.
इस सबसे एक ही बात उभरती है. आनेवाले समय में ग्लोबलाइजेशन का तेजी से विखंडन होगा और संकट के भंवर में फंसे तमाम विकासशील देश अपने-अपने हित स्वार्थों के तहत ही बाहर अपनी नाकेबंदियां और आर्थिक-सामरिक साझेदारियां कायम करेंगे.
जब नैतिकता या सहिष्णुता के तकाजे स्वदेश में ही नहीं लागू हो रहे, चुनावी अवसरवाद ही प्रमुख बन रहा हो, तब विदेश जाकर गोदान करना चीन के शिकारी तेवर या जातीय रजिस्टर से नागरिकता तय कराने के उपक्रमों से बढ़ रही भारत की बढ़ती घरेलू अशांति की बाढ़ को कितनी दूर तक थाम सकेगा? जनता कानूनी पेचीदगियों से दूर खड़ी हो अपने तर्कहीन तरीकों से नेताओं की जेहनी तस्वीर मन में बनाती है. जरूरी है कि मौजूदा सरकार (जिसे जनता ने दृढ़ छवि के तहत गद्दी पर बिठाया था) अपनी छवि स्वेच्छाचारी निर्मम शासक की न बनने दे.
अगर ‘हमारे बनाम बाहरिया’ आधार पर कभी यूपी-बिहार तो कभी बंगाली लोगों को कुछ पड़ोसी राज्य की सरकारों द्वारा प्रताड़ित और दरबदर करने को केंद्र की शह मिलती गयी, तब एक समय आयेगा, जब प्रजातंत्र की इमारत की एक ईंट भी बचाना कठिन हो जायेगा.
इसीलिए गोहत्या रोकने के नाम पर मॉब लिंचिंग या असम की नागरिकता सूची के मसौदे पर, जिसमें वैध नागरिकों में पूर्व राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद के पोते का नाम तक नदारद है, सबसे तीखी प्रतिक्रिया संसद में हो रही है. प्रदेश अगर शरीर के अंग-प्रत्यंग हैं भी, तो देश का दिमाग तो केंद्र ही है न?

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें

ऐप पर पढें