आशुतोष चतुर्वेदी, प्रधान संपादक, प्रभात खबर
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने मुजफ्फरपुर में बालिका गृह में दुष्कर्म मामले में सीबीआइ जांच का उचित फैसला किया है, जिसे सराहा जाना चाहिए. इससे उनकी मंशा स्पष्ट होती है कि वह इस मामले में कुछ दबाना-छुपाना नहीं चाहते, जबकि बिहार पुलिस के बयानों से ऐसा लग रहा था कि वह सीबीआइ जांच के पक्ष में नहीं थी. कुछ दिन पहले ही बिहार के पुलिस महानिदेशक ने कहा था कि वह पुलिस जांच से पूरी तरह संतुष्ट हैं और उन्हें इसमें कोई खामी नजर नहीं आ रही है, इसलिए सीबीआइ या अन्य किसी एजेंसी से इसकी जांच किये जाने की जरूरत नहीं है. सीबीआइ जांच के फैसले के बाद उम्मीद की जा रही है कि जो भी अपराधी हैं, वे जल्द ही सलाखों के पीछे होंगे, ताकि लोगों तक यह स्पष्ट संदेश जाए कि ऐसे घृणित अपराध करने वाले लोग बच कर निकल नहीं सकते.
मुजफ्फरपुर की घटना सिर्फ कानून-व्यवस्था से जुड़ा मामला नहीं है. यह घटना समाज के पतन को भी दर्शाती है. आपने देखा होगा, आए दिन देश के किसी-न-किसी हिस्से से दुष्कर्म की खबर सामने आती है, लेकिन सबसे चिंताजनक बात यह है कि समाज में इसको लेकर खास प्रतिक्रिया नहीं होती है. मौजूदा दौर में नैतिकता का पतन हो गया है, लोगों ने संस्कार और मूल्यों को तिलांजलि दे दी है. बेसहारा बच्चियों से दुष्कर्म समाज में बढ़ती संवेदनहीनता और अवमूल्यन को दर्शाता है. यह घटना पूरे बिहार के दामन पर एक दाग है. ऐसे संवेदनशील विषय पर राजनीति नहीं होनी चाहिए. यह बिहार की प्रतिष्ठा से जुड़ा मामला है. सभी राजनीतिक दलों और सर्व समाज को इस पर गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए कि कैसे यह वर्षों तक चलता रहा और इसकी भनक तक नहीं लगी. सूचनाक्रांति के इस दौर में भी इसका सामने न आना अचंभित करता है. जब मुंबई की संस्था टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइसेंज के एक दल ने मुजफ्फरपुर के बालिका गृह का सोशल ऑडिट किया, तब लड़कियों के यौन शोषण का खुलासा हुआ. इस घटना की गंभीरता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि बालिका गृह की 42 में से 34 बच्चियों से दुष्कर्म की बात सामने आयी है. दुष्कर्म की घटना ऐसी जगह पर हुई है, जो अनाथ और बेसहारा बच्चियों का आश्रय स्थल था, जहां सरकार और एनजीओ की मदद से उनको अपने पैरों पर खड़े होने में मदद की जानी थी.
देश में बच्चों के खिलाफ हिंसा और यौन शोषण के मामलों पर गौर करें, तो वे चिंतित करते हैं. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के 2015 के आंकड़ों के अनुसार बच्चों के खिलाफ हिंसा के कुल 94,172 मामले दर्ज किये गये. इनमें से एक तिहाई मामलों में बच्चों को दुष्कर्म के लिए निशाना बनाया गया था. विशेषज्ञों का मानना है कि यह संख्या और अधिक हो सकती है, क्योंकि ऐसे अनेक मामले भय, पारिवारिक प्रतिष्ठा और जानकारी के अभाव में दर्ज ही नहीं होते हैं. 2015 के आंकड़ों के अनुसार महाराष्ट्र में सर्वाधिक 13,921, मध्य प्रदेश में 12,859 और उत्तर प्रदेश में 11,420 ऐसे अपराध के मामले दर्ज किये गये. कुछ साल पहले केंद्रीय महिला एवं बाल कल्याण विभाग ने एक अध्ययन में पाया था कि अधिकांश मामलों में शोषण करने वाला परिचित व्यक्ति ही होता है. यह तथ्य भी सामने आया है कि यौन शोषण के लिए बड़ी संख्या में बालक भी निशाना बनाये जाते हैं.
बाल कल्याण विभाग के अध्ययन में पता चला कि विभिन्न प्रकार के शोषण में पांच से 12 वर्ष तक की उम्र के छोटे बच्चे सबसे अधिक शिकार होते हैं. इसमें शारीरिक, यौन और भावनात्मक शोषण शामिल है. आमतौर पर माना जाता है कि बाल शोषण का मतलब होता है बच्चों के साथ शारीरिक दुर्व्यवहार और यौन शोषण, लेकिन बच्चे के साथ किया गया हर ऐसा व्यवहार भावनात्मक शोषण के दायरे में आता है, जिससे उसके ऊपर बुरा प्रभाव पड़ता हो अथवा जिससे बच्चा मानसिक रूप से भी प्रताड़ित महसूस करता हो. भारत में भावनात्मक शोषण को लेकर असंवेदनशीलता की स्थिति है और इसे सिरे से ही नकार दिया जाता है. पुरानी पीढ़ी के लोग अक्सर कहते मिल जायेंगे कि मारपीट ही बच्चों को सुधारने का एकमात्र तरीका है, जबकि जमाना बदल गया है. भावनात्मक शोषण को बच्चियां खास तौर से महसूस करती हैं. उनकी पढ़ाई-लिखाई से लेकर स्वास्थ्य तक की परिवार अनदेखी करते हैं और बालकों को प्रमुखता दी जाती है. महिला एवं बाल कल्याण विभाग के अध्ययन में पाया गया है कि बालक और बालिकाओं, दोनों ने भावनात्मक शोषण का सामना करने की बात स्वीकार की. अध्ययन के 83 प्रतिशत मामलों में बच्चों ने माता-पिता पर भावनात्मक शोषण का आरोप लगाया. 48.4 प्रतिशत लड़कियों ने कहा कि अगर वे लड़का होतीं, तो अच्छा होता.
कुछ समय पहले महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने प्लान इंडिया की ओर से तैयार की गयी रिपोर्ट जारी की. इस रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में महिलाओं के लिए सबसे सुरक्षित राज्य गोवा है. सुरक्षा के मामले में इसके बाद केरल, मिजोरम, सिक्किम और मणिपुर आते हैं. चिंता की बात यह कि जिन राज्यों में महिलाएं सबसे अधिक असुरक्षित हैं, उनमें बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश और देश की राजधानी दिल्ली शामिल हैं. राज्यों के लिए लिंग भेद सूचकांक यानी जेंडर वल्नरेबिलिटी इंडेक्स (जीवीआई) तैयार किया और उस कसौटी पर सभी राज्यों को कसा गया. इसके नतीजों के अनुसार गोवा महिलाओं के लिए सबसे सुरक्षित राज्य है, जबकि देश की राजधानी को महिलाओं की सुरक्षा की दृष्टि से खराब राज्यों में से एक है. गोवा का स्थान न सिर्फ महिलाओं की सुरक्षा की दृष्टि से सबसे ऊपर है, बल्कि शिक्षा, स्वास्थ्य और आजीविका के मामले में भी वह अव्वल है. केरल दूसरे नंबर पर है. महिला सुरक्षा के मामले में बिहार काफी पीछे है. इस रिपोर्ट के अनुसार बिहार में महिलाएं और बेटियां अन्य राज्यों की तुलना में सबसे असुरक्षित आैर कम स्वस्थ पायी गयीं. शिक्षा के मामले में भी वे पिछड़ी हैं. रिपोर्ट के मुताबिक 39 फीसदी लड़कियों की शादी विवाह की वैधानिक उम्र (18 वर्ष) से पहले शादी हो जाती है और लगभग 12 फीसदी 15 से 19 वर्ष की उम्र में या तो गर्भवती हो जाती हैं या फिर मां बन जाती हैं, लेकिन यह भी सही है कि महिलाओं और बेटियों को लेकर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार बेहद संवेदनशील हैं और बिहार सरकार उनकी शिक्षा और स्वास्थ्य को लेकर अनेक कार्यक्रम चला रही है. हालांकि इस सर्वेक्षण में इसके परिणाम दिखायी नहीं देते हैं, लेकिन उम्मीद है कि आगामी सर्वेक्षणों में सरकार के प्रयासों के सकारात्मक परिणाम दिखने लगेंगे.