सुरेश कांत
वरिष्ठ व्यंग्यकार
भीड़ का भाड़ से बहुत गहरा रिश्ता है. इतना कि विशेषज्ञों को उन्हें एक-साथ रखना पड़ा. भीड़ की संकल्पना ही इस खयाल पर आधारित है कि अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता. यह खयाल भड़भूंजे को तो आया नहीं होगा- वह बेचारा अपना भाड़ फोड़ने का खयाल क्यों करने लगा, जिस पर कि उसकी रोजी-रोटी आधारित रही? लिहाजा यह खयाल उसके पास चने भुनवाने के लिए आनेवाले किसी बुद्धिजीवी को आया होगा.
यह खयाल पेड़ से सेब नीचे गिरते देखकर न्यूटन को आये धरती के गुरुत्वाकर्षण-बल के खयाल से कम मूल्यवान नहीं. फर्क यह है कि वह खयाल विदेशी को आया और यह खयाल किसी स्वदेशी को. और जिस देश में ‘घर का जोगी जोगड़ा’ और ‘आन गांव का सिद्ध’ समझा जाता रहा हो, वहां ‘आन देश का’ तो फिर देवता ही समझा जायेगा.
बहरहाल, भीड़ का भाड़ से इतना गहरा लगाव है कि किसी भी नियम, कायदे, कानून को देखते ही वह उसे ‘भाड़ में जा’ कह देती है. जाहिर है, अगर भाड़ न होता, तो भीड़ भी न होती. भीड़ है ही इसलिए कि भाड़ है.
हालांकि अब भीड़ ने भाड़ पर अपनी निर्भरता कुछ कम की है और कानून द्वारा भाड़ में जाने की तत्परता न दिखाये जाने पर या भाड़ में उसके लिए जगह ही न बचने पर वह उसे अपने हाथ में ले लेती है. दोनों ही स्थितियों में उसे आदमी, आदमी नहीं दिखता, गाय का हत्यारा दिखता है, बच्चा-चोर दिखता है, विधर्मी दिखता है, जिसका वह वहीं के वहीं ऐसा न्याय कर देती है, जिसे देखकर अन्याय की भी रूह कांप उठती है. इस न्याय को प्यार से ‘मॉब-लिंचिंग’ कहा जाता है.
आदमी महज आदमी के रूप में खुश क्यों नहीं रह पाता और भीड़ क्यों बनना चाहता है, इसके पीछे कई थ्योरियां बतायी जाती हैं. एक थ्योरी यह है कि मॉब-लिंचिंग की घटनाएं इसलिए बढ़ रही हैं, क्योंकि उनका नेता लोकप्रिय हो रहा है.
इससे संदेश मिलता है कि मॉब-लिंचिंग कोई बुरी बात नहीं है और यह भी कि वह अभी और बढ़ेगी, क्योंकि उनका नेता अभी और लोकप्रिय होगा. दूसरी थ्योरी यह है कि मॉब-लिंचिंग के मामलों में तिल का ताड़ बनाया जाता है. इसमें भी यह संदेश निहित है कि बनाना ही हो, तो तिल का लड्डू बना लिया जाये, ताड़ बिल्कुल न बनाया जाये और यह भी कि मॉब-लिंचिंग के आरोपियों को फौरन रिहा किया जाना चाहिए, ताकि वे उन्हें माला आदि पहनाकर धन्य हो सकें.
‘भीड़’ का एक मतलब संकट भी होता है. लोग ‘अड़ी भीड़’ में काम आने के लिए बचत कर बैंकों में रखते हैं, भले ही वह बचत उनकी ‘अड़ी भीड़’ में काम न आकर विदेश भाग जानेवाले गरीब पूंजीपतियों की ‘अड़ी भीड़’ में काम आएं.
तुलसी अपने रामजी से ‘हरहु बिषम भव भीर’ का निवेदन करते हैं, तो मीरा श्रीकृष्ण से कहती हैं, ‘दासी मीरा लाल गिरधर हरो म्हारी भीर’. इस ‘भीर’ यानी ‘भीड़’ में संकट का भाव भी भीड़ द्वारा कायदे-कानून भाड़ में झोंकने के कारण ही आया.