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अब दृश्य हरा कचनार होयेगा!
मिथिलेश कु. राय युवा रचनाकार उस दिन मूसलाधार बारिश हो रही थी. आसमान से गिरती बूंदों को देखते हुए कक्का हठात मुस्कुराने लगे. कहने लगे कि देखना, अब धीरे-धीरे रंग कितना गाढ़ा हरा हो जायेगा. जेठ की तीखी धूप को विदा करने यह आषाढ़ आया है. पेड़-पौधे खुशी से झूमने लगे हैं. लगता है बड़े […]
मिथिलेश कु. राय
युवा रचनाकार
उस दिन मूसलाधार बारिश हो रही थी. आसमान से गिरती बूंदों को देखते हुए कक्का हठात मुस्कुराने लगे. कहने लगे कि देखना, अब धीरे-धीरे रंग कितना गाढ़ा हरा हो जायेगा. जेठ की तीखी धूप को विदा करने यह आषाढ़ आया है. पेड़-पौधे खुशी से झूमने लगे हैं. लगता है बड़े इंतजार के बाद इन्हें ये दिन नसीब हुए हैं. सावन-भादो की लगातार बारिश के बाद पेड़-पौधे हरे-भरे हो जायेंगे.
कक्का सही कह कह रहे थे. अभी मुश्किल से पांच-सात बारिश भी नहीं हुई है और सावन-भादो का महीना भी दूर है. लेकिन पेड़-पौधों में कुछ खास परिवर्तन बड़ी तेजी से हो रहा है. इनका रंग गाढ़ा हो गया है और तने व टहनियां विकसित होकर विशाल हो रही हैं. सड़क किनारे के अरिकंचन के पौधे को देखता हूं, तो लगता है कि जब से बारिश का मौसम आया है, इसकी झाड़ी निरंतर फैलती ही जा रही हैं. वैजयंती की छटा तो देखिए.
जेठ में कितनी मायूस लगती थी. खासकर उस समय जब तीन-चार दिनों के लिए देह जलानेवाली धूप उतरी थी, देखने से हतास नजर आती थी. लेकिन अब नजारा एकदम से बदल गया है. इसके बड़े-बड़े और लंबे-लंबे पत्ते इतने हरे हो गये हैं कि अब यह खिलखिलाती हुई जान पड़ती है.
कक्का कह रहे थे कि सड़क के दोनों तरफ कदम के पेड़ों के रंग-ढंग बदलने लगे हैं. उनकी टहनियां ऐसे बढ़ रही हैं और उनमें पत्तों का इजाफा इस तरह से हो रहा है कि लगता है जैसे बारिश की हरेक बूंद से इन्हें जीवनदायिनी शक्ति मिल रही है.
कक्का कह रहे थे कि हम मनुष्यों को प्यास लगती है, तो हम पानी पी लेते हैं. हमारी देह को गर्मी लगती है, तो हम स्नान करते हैं. लेकिन पेड़-पौधों के पास ऐसी सुविधा नहीं है. उनके पास मजबूरी है कि वे अपनी जगह से हिल भी नहीं सकते.
ऊपर से पानी का स्तर निरंतर नीचे जा रहा है. पानी के लिए जड़ें निश्चित ही बड़ी मशक्कत करती होंगी, लेकिन वे इसमें कितनी सफल होती होंगी, यह कहना बड़ा मुश्किल है. बैशाख-जेठ के महीने में वृक्षों का मलिन मुंह देखकर यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि इन्हें उतना पानी नहीं मिलता होगा, जितना कि इन्हें जरूरत रहती होगी.
कक्का को यह पता है कि जल का स्तर लगातार नीचे सरक रहा है और हम इस पर कोई खास तवज्जो नहीं दे रहे हैं. वे कह रहे थे कि अब इस सावन-भादो से इन पेड़-पौधों की बड़ी उम्मीद बंध गयी है.
उन्होंने यह तक कह दिया कि सब कुछ ऐसा ही चलता रहा और हम जल्दी ही न चेते, तो वृक्षों की तरह बारिश के मौसम का हमें भी बेसब्री से इंतजार रहेगा. न सिर्फ खेती के लिए, बल्कि पीने के पानी के लिए भी.
कक्का को सुनकर मुझे डर लगने लगा. पेड़-पौधों के कारण इस धरती का रंग जो हरा है, पानी की कमी के कारण इसका रंग कैसा हो जायेगा! मजबूरन मुझे इस ओर से ध्यान हटाकर अपने मन को खेतों की मेड़ पर लगे महोगनी, सागवान, शीशम और आम के वृक्षों की ओर ले जाना पड़ा, जो बारिश में हरे होकर ऐसे झूम रहे थे, जैसे इन्हें अमरत्व मिल रहा हो!
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