आंदोलन के गर्भ से पैदा हुई पार्टी जब दिल्ली की राजनीति में उतरी, तो उसे भी अंदेशा नहीं होगा कि ‘दिल्ली की दाल’ इतनी आसानी से गल जायेगी.
सत्ता में आने से पहले न तो ‘आप’ ने, न ही चुनने वालों ने सोचा होगा कि वे सब शतरंज के मोहरे भर होंगे. चालें तो ऊपर वालों की होंगी. दिल्ली राज्य नहीं राजधानी है, तो फिर कैसी सरकार और कैसी सत्ता?
चुनी हुई सरकार के पैरों में बेड़ियां देख कर संविधान भी मुस्कुराया होगा, क्योंकि हाथ तो उसके भी बंधे हैं. दिल्ली के साथ हुई दिल्लगी लोगों को तब पता चली होगी, जब अदालतों ने आईने दिखाये. इस नायाब तंत्र-लोक में अगर दिल्ली को वैसे ही चलना था, तो करोड़ों के वारे-न्यारे और लोकतंत्र के झूठे ताम-झाम किसके लिए? सियासत की आग में रोटी चाहे किसी की पकी या किसी की दाल गली हो, उंगलियां तो आम जनता की जली हैं.
एमके मिश्रा, रांची