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जिनकी नियति है धूल खाना

II सुरेश कांत II वरिष्ठ व्यंग्यकार नहीं जनाब, हम यहां किसी धूल के फूल की बात नहीं कर रहे. उनकी बात करना तो अब फिल्म वाले भी छोड़ चुके. हम यहां उन आम देशवासियों की बात भी नहीं कर रहे, जो निरंतर धूल-धूसरित हो रहे हैं. उनकी बात करना तो नेता भी छोड़ चुके. हम […]

II सुरेश कांत II
वरिष्ठ व्यंग्यकार
नहीं जनाब, हम यहां किसी धूल के फूल की बात नहीं कर रहे. उनकी बात करना तो अब फिल्म वाले भी छोड़ चुके. हम यहां उन आम देशवासियों की बात भी नहीं कर रहे, जो निरंतर धूल-धूसरित हो रहे हैं. उनकी बात करना तो नेता भी छोड़ चुके. हम उनकी बात भी नहीं कर रहे, जो धूल चाटते हैं और उनकी भी नहीं, जो दूसरों को धूल चटवा देते हैं.
उनकी बात करना तो अब तमाशबीन भी छोड़ चुके. हम धूल फांकनेवालों की भी बात नहीं कर रहे. उनकी बातें तो अब किस्सागो भी छोड़ चुके. और न हम जनता की आंखों में धूल झोंकनेवालों की ही बात कर रहे हैं. उनकी बात करना तो जनता तक छोड़ चुकी.
हम तो यहां बात कर रहे हैं उन चीजों की, जिनकी नियति ही है धूल खाना. मसलन फाइलें, जो सरकारी दफ्तरों में धूल खाया करती हैं. जैसे सर्दियों में बाबू लोग धूप या गर्मियों में पंखों की हवा खाते हैं, क्योंकि एसी उनके नसीब में नहीं होता, उसके लिए सिर्फ बॉस ही पात्र होता है, भले ही वह अन्यथा पात्र न हो.
बाबू अगर बंगाली हुआ, तो फिर चाय भी खायी ही जाती है और बीड़ी-सिगरेट भी. पान अलबत्ता सबके द्वारा खाया ही जाता है और खाया ही नहीं जाता, बल्कि रकीबों को देने से बरजा भी जाता है, जिसका जिक्र शायर ने इन शब्दों में किया है- कहता नहीं कि पान रकीबों को तू न दे, इतना लिहाज कर कि मेरे रूबरू न दे!
और गुटखा खाना तो स्वाभाविक ही ठहरा, जिसके पीछे साफ लिखा होता है कि खा! खैनी भी मजा ले-लेकर खायी जाती है. बाद में ये चीजें खुद खानेवाले को ही खाने लगती हैं, पर वह अलग बात है.
तो देखा आपने, बाबुओं को क्या-क्या खाना पड़ता है. इतना सब खाकर कोई काम कैसे कर सकता है भला? इसलिए सरकारी दफ्तरों में फाइलों को धूल खानी पड़ती है.
अब फाइलें कोई अखाड़े का पहलवान तो होती नहीं, जो धूल झाड़कर उठ खड़ी हों. उनकी धूल तो झाड़नी पड़ती है और कवि के शब्दों में, बांटनवारे को लगै ज्यों मेहंदी को रंग, झाड़नवारे को लगै त्यों फाइल की धूल. उस धूल के प्रभाव से बचने के लिए उसे फाइल झड़वानेवाले से रिश्वत खानी पड़ती है.
भले ही फाइलें अब कंप्यूटरों में रहने लगी हों, पर खाती वहां भी वे धूल ही हैं. जिनकी नियति है धूल खाना, उन्हें कहीं भी रख लो, धूल ही खायेंगी. और फाइलें तो फाइलें, बिजली के अभाव में खुद कंप्यूटर भी धूल खाते मिलते हैं.
यही हाल सरकारी योजनाओं का है, जो बनती ही धूल खाने के लिए हैं. अब जैसे नेताओं को वायदे करने पड़ते हैं, वैसे ही सरकारों को योजनाएं बनानी पड़ती हैं. जैसे बिन वायदों के नेता कुछ भी नहीं, वैसे ही बिन योजनाओं के सरकारें कुछ नहीं.
पर जैसे नेता वायदे करके भूल जाते हैं, वैसे ही सरकारें योजनाएं बनाकर भूल जाती हैं और वे योजनाएं धूल खाती रहती हैं. वैसे तो कायदे से राजनीतिक दलों के चुनाव-घोषणापत्र भी धूल खाने लायक ही होते हैं. पर चूंकि उन पर शुरू से ही कबाड़ी वालों की नजर रहती है, अत: वे धूल खाने से बच जाते हैं.

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