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देर हो जाने से पहले भ्रष्टाचार पर नये ढंग से सोचे यह देश
सुरेंद्र किशोर राजनीतिकविश्लेषक बिहार विद्यालय परीक्षा समिति के पूर्व अध्यक्ष तथा कुछ अन्य घोटालेबाज अभी जेल में ही हैं. इसके बावजूद इस साल गोपालगंज से यह खबर आयी कि वहां से करीब 42 हजार उत्तर पुस्तिकाएं गायब हैं. अन्य मामलों में राज्य के कई नेता और अफसर जेल में हैं, इसके बावजूद यह खबर आयी […]
सुरेंद्र किशोर
राजनीतिकविश्लेषक
बिहार विद्यालय परीक्षा समिति के पूर्व अध्यक्ष तथा कुछ अन्य घोटालेबाज अभी जेल में ही हैं. इसके बावजूद इस साल गोपालगंज से यह खबर आयी कि वहां से करीब 42 हजार उत्तर पुस्तिकाएं गायब हैं. अन्य मामलों में राज्य के कई नेता और अफसर जेल में हैं, इसके बावजूद यह खबर आयी कि सिर्फ 14 प्रतिशत सीमेंट मिलाकर बांध बना दिया गया.
ऐसे बांध को टूटना ही है और लोगों को मरना ही है. यह भी तो हत्या ही है. जस्टिस उदय सिन्हा जांच आयोग की रपट के अनुसार 2002 से 2006 के बीच बिहार में सिर्फ एक मद में 216 करोड़ रुपये का घोटाला हुआ था. ‘काम के बदले में अनाज योजना’ भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गयी. यह इस बात के बावजूद हुआ कि तब तक बिहार के कुछ घोटालों के सिलसिले में बड़े अफसर भी जेल जा चुके थे.
ये 216 करोड़ रुपये यदि गरीब मजदूरों तक पहुंचते तो उनमें से अनेक मजदूरों को कुपाेषण व भुखमरी से बचाया जा सकता था. कोई भी सरकार भुखमरी की घटना को तो स्वीकार नहीं करती. न करे! पर कुपोषण जनित बीमारी तो होती ही है. ऐसे गरीब बीमार के लिए कई सरकारी अस्पतालों में दवाएं तक नहीं होतीं. उनमें से कई बीमारों की जान भी चली जाती है. यह परोक्ष हत्या नहीं है तो क्या है? यानी क्या ऐसा घोटाला किसी हत्या से कम है? फिर सजा साधारण अपराध मान कर क्यों?
ऐसे ‘गरीब मारक घोटाले’ इस गरीब देश में जब-तब जहां-तहां होते ही रहते हैं. गिरफ्तारियों व अदालती सजाओं के बावजूद उनकी पुनरावृत्ति भी होती रहती है. इस देश में अधिकतर छोटे-बड़े घोटालेबाज जितने निडर, बेशर्म और मुंहजोड़ होते हैं, उतने शायद ही किसी अन्य देश में होंगे.
यहां जेल यात्राओं और सजाओं का कोई भय घोटालेबाजों को नहीं डरा पा रहा है. क्या सजाएं कम हैं इसलिए डर भी नहीं है? सबक सिखाने लायक सजा कब मिलेगी? क्या विधि आयोग और हमारे हुक्मरान इस बिंदु पर कभी विचार करेंगे? वैसे भी यदि भ्रष्टाचार के कारण किसी की जान जाती है तो भ्रष्टाचारियों के लिए फांसी का ही प्रावधान तो होना ही चाहिए. न्याय की मंशा तो यही कहती है.
जिस देश में अपराधियों को तौल कर सजा नहीं मिलती, वहां की अगली पीढ़ियों का भविष्य भी असुरक्षित हो जाता है. क्या हमारे रहनुमा कभी इस स्थिति पर गंभीरतापूर्वक विचार करेंगे? क्या अगली पीढ़ियां उनके ध्यान में हैं? ठीक ही कहा गया है कि ‘नेता अगला चुनाव देखता है और ‘स्टेट्समैन’ अगली पीढ़ी.’
पनामा पेपर्स की नयी किस्त : दो साल पहले पनामा पेपर्स का मामला चर्चित हुआ था. पनामा पेपर्स की नयी किस्त के बारे में फिर एक खबर आयी है. याद रहे कि पनामा के एक फर्म से संबंधित यह मामला है. वह फर्म भारत सहित अनेक देशों के अमीरों को अपने देश में टैक्स चुराने में मदद करता है.
दो साल पहले भी कुछ टैक्स चोर भारतीयों के नाम सामने आये थे. इस बार के पनामा पेपर्स में भी कुछ भारतीयों के नाम हैं. यदि टैक्स चोर भारत सरकार को कर अदा कर देते तो उन पैसों से कुछ और अस्पताल व स्कूल यहां खोले जा सकते थे.
नेहरू के अधूरे सपने को पूरा करें मोदी : मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चाहिए कि वह देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के अधूरे सपने को अब तो पूरा कर दें! आजादी के तत्काल बाद नेहरू जी ने कहा था कि ‘कालाबाजारियों को नजदीक के लैम्प पोस्ट से लटका देना चाहिए.’जहां तक मेरी जानकारी है कि नेहरू की इस राय का किसी ने विरोध नहीं किया था. फांसी के खिलाफ अभियान चलाने वालों ने भी नहीं.
वैसे कालाबाजार की अपेक्षा काफी अधिक जघन्य काम आज हो रहे हैं. नीरव मोदी पर तो 12 हजार करोड़ रुपये के घोटाले का आरोप है. नरेंद्र मोदी को चाहिए कि वे अगले 15 अगस्त को लाल किले से यह घोषणा कर दें कि हम भ्रष्टाचारियों के लिए फांसी की सजा का प्रावधान करने जा रहे हैं.
यदि वे करेंगे तो किसी सरकार विरोधी संगठन, नेता या व्यक्ति को उसका विरोध करने का नैतिक हक नहीं होगा. क्योंकि वे अब भी नेहरू की उस राय के खिलाफ न बोलते हैं और न ही लिखते हैं. कुछ साल पहले यूपी के पूर्व डीजीपी प्रकाश सिंह ने एक रिसर्च के हवाले से कहा था कि ‘जब एक हत्यारे को फांसी होती है तो हत्या करने के लिए उठे अन्य सात हाथ अपने आप रुक जाते हैं.’
कश्मीर पर सुप्रीम कोर्ट की राय : 17 दिसंबर, 2016 को सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि जम्मू-कश्मीर की भारतीय संविधान के बाहर और अपने संविधान के अंतर्गत रत्ती भर भी संप्रभुता नहीं है. उसके नागरिक सबसे पहले भारत के नागरिक हैं.
सर्वोच्च अदालत ने जम्मू कश्मीर हाईकोर्ट के एक तत्संबंधी निष्कर्ष को पूरी तरह गलत करार देते हुए यह टिप्पणी की. हाईकोर्ट ने कहा था कि राज्य को अपने स्थायी नागरिकों की अचल संपत्तियों के संबंध में उनके अधिकार से जुड़े कानूनों को बनाने में पूर्ण संप्रभुता है.
न्यायमूर्ति कूरियन जोसेफ और न्यायमूर्ति आरएफ नरीमन के पीठ ने कहा कि जम्मू-कश्मीर को भारतीय संविधान के बाहर और अपने संविधान के तहत रत्ती भर भी संप्रभुता नहीं है. राज्य का संविधान भारत के संविधान के अधीनस्थ है. पीठ ने कहा कि उसके निवासियों का खुद को एक अलग और विशिष्ट के रूप में बताना पूरी तरह गलत है.
जेटली की सदाशयता : किडनी प्रत्यारोपण के बाद नयी दिल्ली के एम्स से लौटे अरुण जेटली ने वहां के रेजिडेंट डाॅक्टरों को व्यक्तिगत पत्र लिख कर उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट की. किसी मंत्री ने अपने इलाज के बाद किसी सरकारी अस्पताल के डाॅक्टरों के प्रति ऐसी कृतज्ञता जाहिर की है, यह मैंने पहली बार सुना. शायद मंत्री समझते हैं कि डाॅक्टरों की तो यह ड्यूटी ही है. पर, जेटली से व्यक्तिगत पत्र पाकर रेजिडेंट ने कैसा महसूस किया होगा, उसकी कल्पना कीजिए.
मेरी तो राय है कि कोई सामान्य मरीज भी किसी सरकारी या गैर सरकारी अस्पताल से चंगा होकर निकले तो उसे घर जाकर अस्पताल को एक पत्र लिख देना चाहिए. इससे चिकित्सकों का मनोबल और आत्मविश्वास बढ़ेगा और वे और भी अधिक तत्पर रहने की कोशिश करेंगे. ऐसा नहीं है कि चिकित्सक इलाज में लापरवाही या गड़बड़ियां नहीं करते. पर अनेक चिकित्सक अपने काम बहुत अच्छे ढंग से करते हैं.
‘टिस’ की सराहनीय भूमिका : ‘टिस’ यानी टाटा इंस्टीट्यूट आॅफ सोशल साइसेंस. मुम्बई के इस प्रतिष्ठित संस्थान की आॅडिट रिपोर्ट में यह बताया गया था कि मुजफ्फरपुर स्थित बालिका गृह में यौन हिंसा और शोषण जारी है.
शासन ने उस रिपोर्ट के आधार पर कार्रवाई की. बालिका गृह के संरक्षणकर्ता सहित कई जेल भेजे गये. मुकदमे कायम किये गये. लगता है कि उससे पहले सब कुछ ऊपरी मेलजोल या अनदेखी से हो रहा था. इस देश में ‘टिस’ जैसे कुछ संगठन अब भी बचे हैं, जहांं के लोगों पर आप जिम्मेदारी देंगे तो वे विपरीत परिस्थितियों में भी अपने काम ईमानदारी व निर्भीकतापूर्वक करेंगे.
और अंत में : उत्तर प्रदेश में सिपाही भर्ती परीक्षा, 2018 में पास कराने के लिए बिहार से ‘साॅल्वर’ बुलाये गये थे. वे पकड़े गये. पता नहीं, उन्हें यूपी में सजा हो पायेगी या नहीं. पर बिहार सरकार चाहे तो उन्हें राज्य में प्रवेश करने से रोक ही सकती है.
यदि इस संबंध में कोई नियम नहीं है तो बनाना चाहिए. यदि अपराधियों को ‘जिला बदर’ किया जा सकता है तो परीक्षा नकल के माफियाओं को राज्य से बाहर क्यों नहीं किया जाना चाहिए? यह कचरा बाहर ही रहे तो बिहार को ठीक-ठाक करने में सुविधा होगी.
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