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डॉक्टर हेडगेवार, जिन्हें प्रणब मुखर्जी ने कहा ”भारत मां का महान सपूत”

‘हिंदू संस्कृति, हिंदुस्तान की धड़कन है. इसलिए ये साफ़ है कि अगर हिंदुस्तान की सुरक्षा करनी है तो पहले हमें हिंदू संस्कृति को संवारना होगा’ ‘ये याद रखा जाना ज़रूरी है कि ताक़त संगठन के ज़रिए आती है. इसलिए ये हर हिंदू का कर्तव्य है कि वो हिंदू समाज को मज़बूत बनाने के लिए हरसंभव […]

‘हिंदू संस्कृति, हिंदुस्तान की धड़कन है. इसलिए ये साफ़ है कि अगर हिंदुस्तान की सुरक्षा करनी है तो पहले हमें हिंदू संस्कृति को संवारना होगा’

‘ये याद रखा जाना ज़रूरी है कि ताक़त संगठन के ज़रिए आती है. इसलिए ये हर हिंदू का कर्तव्य है कि वो हिंदू समाज को मज़बूत बनाने के लिए हरसंभव कोशिश करे.’

‘संघ इसी लक्ष्य के लिए काम कर रहा है. देश का मौजूदा भाग्य तब तक नहीं बदल सकता, जब तक लाखों नौजवान इस लक्ष्य के लिए अपना जीवन नहीं लगाते. इसी के प्रति युवाओं की सोच को बदलना संघ का परम लक्ष्य है.’

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) की वेबसाइट पर जब आप उसका विज़न और मिशन जानने जाएंगे तो वेब पेज पर सबसे ऊपर यही लिखा है.

और ये बात किसके हवाले से कही गई है? जवाब है आरएसएस के संस्थापक डॉक्टर हेडगेवार बलिराम हेडगेवार.

ये वो नाम है जो कुछ दिनों से ख़ास चर्चा में चल रहा है. वजह? पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी का पहले संघ के कार्यक्रम में जाने का न्योता स्वीकार करना और फिर वहां भाषण देना.

प्रणब ने क्या लिखा?

गुरुवार शाम प्रणब ने भाषण से पहले डॉ हेडगेवार के निवास का दौरा किया और विज़िटर बुक में लिखा, ‘मैं आज यहां भारत मां के महान सपूत डॉ के बी हेडगेवार को श्रद्धांजलि देने आया हूं.’

जैसे ही उन्होंने ये लिखा, ये पन्ना सोशल मीडिया पर वायरल हो गया. इसके बाद प्रणब के भाषण की भी काफ़ी चर्चा हुई.

लेकिन उसके बारे में काफ़ी बातें हो चुकी हैं. यहां बात उस शख़्स की, जिनके निवास पर पूर्व राष्ट्रपति गए और जिन्होंने संघ को खड़ा किया.

डॉ केशव बलिराम हेडगेवार कौन थे, कहां से आते हैं, उन्होंने संघ को कैसे खड़ा किया, उनके मुताबिक इसकी क्या ज़रूरत थी, इन सभी सवालों के जवाब तलाशने ज़रूरी हैं.

इस कहानी की शुरुआत 22 जून 1897 को होती है. इस तारीख़ को रानी विक्टोरिया की ताजपोशी की 60वीं सालगिरह थी. लेकिन आठ साल का एक बच्चा शांत, दुखी था.

उस बालक ने समारोह में हिस्सा नहीं लिया और घर लौट गया. घर पहुंचकर मिठाई फेंकी और एक कोने में बैठ गया.

वो बचपन का किस्सा

बड़े भाई ने पूछा, ‘केशव, क्या तुम्हें मिठाई नहीं मिली.’

जवाब आया, ‘मिली थी. लेकिन इन अंग्रेज़ों ने हमारे भोंसले ख़ानदान को ख़त्म कर दिया. हम इनके समारोह में कैसे हिस्सा ले सकते हैं?’

इस किस्से का ज़िक्र एक किताब डॉ हेडगेवार, द एपक मेकर में किया गया है. ये बायोग्राफ़ी बी वी देशपांडे और एस आर रामास्वामी ने तैयार की और संपादन किया है एच वी शेषाद्री ने.

हेडगेवार परिवार मूल रूप से तेलंगाना के कांडकुर्ती गांव का रहने वाला था, लेकिन. 1 अप्रैल, 1889 को जब केशव बलिराम हेडगेवार का जन्म हुआ तो वो नागपुर में बसा था. उन्हें आगे चलकर डॉक्टरजी भी कहा गया.

साल 1925 में संघ की नींव रखने वाले डॉक्टर हेडगेवार का जन्म बलिराम पंत हेडगेवार और रेवती के घर हुआ. परिवार कोई ख़ास समृद्ध नहीं था.

जब केशव 13 बरस के थे, तो प्लेग की वजह से उनके माता-पिता का निधन हो गया. उनके बड़े भाई महादेव पंत और सीताराम पंत ने उनकी पढ़ाई-लिखाई का ख़्याल रखा.

पढ़ाई-लिखाई कहां से हुई?

ऐसा बताया जाता है कि जब वो पुणे में हाई स्कूल की पढ़ाई कर रहे थे तो वंदेमातरम गाने की वजह से उन्हें निकाल दिया गया था क्योंकि ऐसा करना ब्रिटिश सरकार के सर्कुलर का उल्लंघन था.

मैट्रिक के बाद उन्हें साल 1910 में मेडिकल की पढ़ाई के लिए कलकत्ता भेज दिया गया. 1914 में परीक्षा देने के बाद साल भर की अप्रेंटिसशिप की और साल 1915 में वो डॉक्टर के रूप में नागपुर लौट आए.

संघ के मुताबिक, ‘शासकीय सेवा में प्रवेश के लिये या अपना अस्पताल खोलकर पैसा कमाने के लिये वे डॉक्टर बने ही नहीं थे. भारत का स्वातंत्र्य यही उनके जीवन का ध्येय था. उस ध्येय का विचार करते करते उनके ध्यान में स्वतंत्रता हासिल करने हेतु क्रांतिकारी क्रियारीतियों की मर्यादाएं ध्यान में आ गई.’

‘दो-चार अंग्रेज अधिकारियों की हत्या होने के कारण अंग्रेज यहाँ से भागनेवाले नहीं थे. किसी भी बड़े आंदोलन के सफलता के लिये व्यापक जनसमर्थन की आवश्यकता होती है. क्रांतिकारियों की क्रियाकलापों में उसका अभाव था. सामान्य जनता में जब तक स्वतंत्रता की प्रखर चाह निर्माण नहीं होती, तब तक स्वतंत्रता प्राप्त नहीं होगी और मिली तो भी टिकेगी नहीं, यह बात अब उनके मनपर अंकित हो गई थी.’

‘अत: नागपुर लौटने के बाद गहन विचार कर थोड़े ही समय में उन्होंने उस क्रियाविधि से अपने को दूर किया और काँग्रेस के जन-आंदोलन में पूरी ताकत से शामिल हुये. यह वर्ष था 1916. लोकमान्य तिलक जी मंडाले का छ: वर्षों का कारावास समाप्त कर मु़क़्त हो गये थे. स्वतंत्रता मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और उसे मैं प्राप्त करके ही रहूँगा, उनकी इस घोषणा से जनमानस में चेतना की एक प्रबल लहर निर्माण हुई थी.’

संघ की स्थापना

‘अंग्रेज सरकार के खिलाफ उग्र भाषण भी देने लगे. अंग्रेज सरकार ने उनपर भाषणबंदी का नियम लागू किया. किन्तु डॉक्टर जी ने उसे माना नहीं. और अपना भाषणक्रम चालू ही रखा. फिर अंग्रेज़ सरकार ने उनपर मामला दर्ज किया और उनको एक वर्ष की सश्रम कारावास की सज़ा दी. 12 जुलाई 1922 को कारागृह से वे मुक्त हुए.’

साल 1923 में भड़के हिंदू-मुस्लिम दंगों ने उन्हें राष्ट्र-निर्माण के दूसरे ‘विकल्प’ की ओर अग्रसर किया. साल 1925 में विजयदशमी के दिन संघ की स्थापना की. साल 1936 में इसकी महिला इकाई बनाई गई.

उनके शुरुआती अनुयायियों में भइयाजी दानी, बाबासाहेब आप्टे, बालासाहेब देवरस और मधुकर राव भागवत थे. संघ की नींव महाराष्ट्र के नागपुर में रखी गई और धीरे-धीरे इसका शहर और उसके आसपास बढ़ने लगा.

डॉ हेडगेवार ने दूसरे प्रांतों का दौरा कर अपने उद्देश्य को लेकर कई भाषण दिए और लोगों को जोड़ने की कोशिश की. उन्होंने अपने स्वयंसेवकों के काशी और लखनऊ तक भेजा ताकि संघ के लक्ष्यों की जानकारी वहां तक पहुंचाई जा सके और साथ ही वहां शाखाएं लगाई जा सकें.

आलोचकों का कहना है कि साल 1925 में संघ की नींव रखने के बाद डॉ हेडगेवार ने उसे ब्रिटिश विरोधी आंदोलनों से दूर रखने का फ़ैसला किया.

संघ वृक्ष के बीज: डॉ केशव राव हेडगेवार किताब में लिखा गया है, ‘संघ की स्थापना करने के बाद डॉक्टर साहब अपने भाषणों में हिंदू संगठन की बात कहते थे. सरकार पर सीधी टिप्पणी न के बराबर होती थी.’

देहांत कब हुआ

ये भी कहा जाता है कि दिसंबर, 1929 में जब कांग्रेस ने पूर्ण स्वराज प्रस्ताव पारित किया और सभी से 26 जनवरी, 1930 को स्वतंत्रता दिवस मनाने की अपील की तो डॉ हेडगेवार ने आरएसएस शाखाओं को इस दिन भगवा ध्वज फहराकर ये दिन मनाने के लिए कहा.

महात्मा गांधी ने जब ब्रिटिश सरकार के ख़िलाफ़ सत्याग्रह शुरू किया तो डॉक्टर हेडगेवार में इसके शामिल होने की बात कही जाती है लेकिन व्यक्तिगत रूप से, न कि आरएसएस के रूप में.

इसका कारण ये बताया जाता है कि वो चाहते थे कि संघ किसी भी तरह के राजनीतिक घटनाक्रम से ख़ुद को दूर रखे.

दूसरी तरफ़ संघ कहता है कि ‘साल 1940 में वीर सावरकर ने पुणे प्रांतिक बैठक को संबोधित किया और श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने डॉक्टरजी से मिलकर बंगाल के हिंदुओं की दुर्दशा पर चिंता व्यक्त की. 9 जून को डॉक्टरजी ने नागपुर तृतीय वर्ष शिक्षार्थियों को समापन पर संबोधित किया.’

‘सुभाषचंद्र बोस से 19 जून को डॉक्टरजी की भेंट पर डॉक्टरजी के बीमार अवस्था के कारण दर्शन करके वापसी और 21 जून, 1940 में डॉक्टरजी का देहावसान हो गया.’

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