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विशेष दर्जे की मांग और बिहार!

II केसी त्यागी II राष्ट्रीय प्रवक्ता, जदयू kctyagimprs@gmail.com विशेष राज्य के दर्जे की मांग को लेकर बिहार एक बार फिर चर्चा में है. 15वें वित्त आयोग के गठन हेतु सांदर्भिक शर्तें यानी ‘टीओआर’ में विशेष दर्जे का प्रावधान शामिल नहीं किये जाने की वजह से दो माह पूर्व भी यह मुद्दा सुर्खियों में था. इस […]

II केसी त्यागी II
राष्ट्रीय प्रवक्ता, जदयू
kctyagimprs@gmail.com
विशेष राज्य के दर्जे की मांग को लेकर बिहार एक बार फिर चर्चा में है. 15वें वित्त आयोग के गठन हेतु सांदर्भिक शर्तें यानी ‘टीओआर’ में विशेष दर्जे का प्रावधान शामिल नहीं किये जाने की वजह से दो माह पूर्व भी यह मुद्दा सुर्खियों में था.
इस बीच दुर्भाग्यपूर्ण रहा कि इसी मांग को लेकर आंध्र प्रदेश में टीडीपी का एनडीए से पुराना गठबंधन भी समाप्त हो गया. वित्त आयोग द्वारा सभी राज्यों से मांगे गये सुझावों में भी बिहार सरकार ने अपनी आर्थिक-सामाजिक असहजता का हवाला दे विशेष दर्जे की मांग का मुद्दा प्रारंभिक सुझाव में रखा था.
अफसोसजनक है कि नये वित्त आयोग के ‘टर्म्स आॅफ रेफरेंस’ में 14वें वित्त आयोग की ही तरह विशेष दर्जे का प्रावधान दूर रखा गया. वाईवी रेड्डी की अध्यक्षता वाले इस आयोग द्वारा दिसंबर 2014 में आयोग की सिफारिशों के जरिये विशेष राज्य का दर्जा दिये जाने की व्यवस्था पर पाबंदी लगा दी गयी थी, जो आज केंद्र सरकार का शस्त्र और बिहार, आंध्र प्रदेश व अन्य राज्यों के लिए मुसीबत बनी हुई है.
इसकी अनुशंसा के तहत राज्यों के अंतरण यानी ‘टैक्स ट्र्ांसफर’ को 32 फीसदी से बढ़ाकर 42 फीसदी पर लाया गया था. समझने योग्य तथ्य है कि अंतरण में वृद्धि से राज्य के हिस्से में ‘टैक्स’ का आकार जरूर बढ़ा, लेकिन वह बढ़ी हुई हिस्सेदारी केंद्र सरकार द्वारा केंद्रीय व केंद्र प्रायोजित योजनाओं के आवंटन में कटौती के कारण लाभकारी न बनकर लगभग पहले जैसी ही बनी रही. राज्यवार अंतरण प्रणाली निर्धारित किये जाने के बाद तो बिहार का हिस्सा पहले से भी कम हुआ है.
आंकड़ों के अनुसार 13वें वित्त आयोग के दौरान बिहार को 10.917 फीसदी की प्राप्त हिस्सेदारी 14वें वित्त आयोग में घटकर 9.665 प्रतिशत पर आ गयी. महत्वपूर्ण है कि पिछले चार वित्त आयोग की अनुशंसाओं में कुल देय कर राजस्व में बिहार की हिस्सेदारी निरंतर घटती रही है.
चूंकि आगामी वित्त आयोग की शर्तें भी पिछले आयोग द्वारा विशेष दर्जे की व्यवस्था पर लगी रोक में कोई परिवर्तन नहीं करती हैं, मांग की दिशा में संघर्षरत राज्यों की प्रतिक्रिया प्रासंगिक और तर्कसंगत भी है. ऐसे में नीतीश कुमार द्वारा राज्य हेतु विशेष दर्जे की मांग न राजनीतिक पहल है और न ही अवसरवादिता.
वर्ष 2000 में राज्य के विभाजन के बाद बिहार में सरकारी व निजी निवेश पर प्रतिकूल असर पड़ा. राज्य के अधिकार से टाटा, बोकारो, धनबाद, झरिया, कोडरमा आदि जैसे औद्योगिक-खनिज संपन्न शहर बाहर हो गये. इस दौरान केंद्र सरकार द्वारा कोई विशेष मदद नहीं मिली.
बिहार पुनर्गठन अधिनियम 2000 में एक प्रावधान के तहत विभाजन से राज्य को होनेवाली वित्तीय कठिनाईयों से जुड़े एक विशेष प्रकोष्ठ की संस्तुति की गयी थी, जो राज्य की जरूरतों को पूरा करनेवाला था. यह विशेष प्रकोष्ठ कुछ हद तक कारगर जरूर रहा, लेकिन अब नीति आयोग की भी जिम्मेदारी है कि बिहार को विभाजन से हुई वित्तीय क्षति के कारण आगे और पिछड़ेपन का तमगा न ढोना पड़े.
गत 10 वर्षों में बिहार विकास की पटरी पर जरूर आया है, लेकिन संसाधन व आर्थिकी की अनुपलब्धता के कारण अभी तक यह आर्थिक-सामाजिक सूचकांकांे के निचले पायदान पर ही है. 90 के दशक में इसकी आर्थिक संरचना एकदम नष्ट हो चुकी थी और जीएसडीपी निगेटिव में रहा.
मौजूदा शासन में राष्ट्रीय औसत से अधिक व राज्यों के बीच सर्वाधिक विकास दर की उपलब्धि के बावजूद बिहार प्रति व्यक्ति आय, शिक्षा, स्वास्थ्य, सामाजिक व आर्थिक सेवाओं पर प्रति व्यक्ति व्यय में निम्नतम स्थान पर है. प्रति वर्ष बिहार में बाढ़ से जान-माल की बड़ी क्षति होती है, जिससे भौतिक व सामाजिक आधारभूत संरचना को हुए नुकसान की भरपाई में राज्य को अतिरिक्त वित्तीय भार उठाना पड़ता है.वर्ष 2009 में पहली बार मुख्यमंत्री नीतीश कुमार द्वारा उठायी गयी यह मांग केंद्रीय अवहेलना की शिकार होती रही है.
इस मांग को लेकर वर्ष 2013 में सत्तासीन जदयू ने दिल्ली में एक बड़ी रैली भी की थी, जिसके बाद केंद्र की यूपीए सरकार ने तत्कालीन मुख्य आर्थिक सलाहकार रघुराम राजन की अध्यक्षता में एक कमेटी बनायी, जिसने राज्यों को अल्पविकसित, कम विकसित और अपेक्षाकृत विकसित की श्रेणियों में बांटने का सुझाव दिया था.
इसमें बिहार समेत उड़ीसा व आठ अन्य राज्य ‘सबसे कम विकसित’ श्रेणी में अंकित हुए थे. इस सूरत में बिहार की अनदेखी केवल राज्य विशेष को पीछे रखेगी, बल्कि राष्ट्र के सामाजिक-आर्थिक मापदंडों को भी प्रभावित करती रहेगी.
बिहार समेत अन्य राज्यों की इस मांग पर सरकार वित्त आयोग की सिफारिशों का हवाला दे विशेेष दर्जे के प्रावधान को नकार अन्य राज्यों के लिए विशेष राहत की पेशकश भी करती रही है, परंतु विशेष दर्जा व गैर-विशेष दर्जा प्राप्त राज्यों की आर्थिकी में बड़ा अंतर होता है.
साल 1969 में पांचवें वित्त आयोग द्वारा गडगिल फाॅर्मूले के तहत जम्मू-कश्मीर, नागालैंड व असम को विशेष राज्य का दर्जा दिया गया. इन्हीं आधारों पर अरुणाचल, मणिपुर, मिजोरम, सिक्किम, त्रिपुरा, हिमाचल और उत्तराखंड को इस श्रेणी में शामिल किया गया. इसके बाद से इन राज्यों को केंद्र सरकार द्वारा दी जानेवाली राशि में 90 फीसदी अनुदान और 10 फीसदी राशि गैर-ब्याज ऋण के रूप में दिये जाने की व्यवस्था हुई.
गैर-विशेष दर्जे वाले राज्यों को केंद्र सरकार की 30 प्रतिशत राशि बतौर अनुदान एवं शेष 70 फीसदी ऋण के रूप में दिये जाने का प्रावधान है. इसके अलावा विशेष दर्जे वाले राज्यों को एक्साइज, कस्टम, काॅरपोरेट, इनकम टैक्स आदि में छूट की सुविधा होती है.विशेष राज्यों को अन्य की तुलना में लगभग चार गुना प्रति व्यक्ति आय सहायता मिलती है.
चूंकि बिहार विशेष राज्य की सभी शर्तों को पूरा करता है, इसकी मांग बिहार अस्मिता का प्रतीक बन चुका है और लंबे अंतराल के बाद यह सटीक मौका है, जब केंद्र व राज्य में एक ही गठबंधन की सरकार है, तो अब इसे पूरा किया जाना अपेक्षित है. इससे केंद्रीय योजनाओं में राज्य की देनदारी घटेगी. इस सुविधा से राज्य में अतिरिक्त संसाधनों की उपलब्धता के साथ निवेश आकर्षण की दिशा में ‘टैक्स’ रियायत की गुंजाइश बढ़ेगी.
इस बाबत प्रति व्यक्ति आय, शिक्षा, स्वास्थ्य व मानव विकास के सूचकांकों पर राष्ट्रीय औसत से काफी पीछे बिहार समेत अन्य जरूरतमंद राज्यों को ‘विशेष’ श्रेणी में शामिल कर उन्हें विकास की मुख्य धारा में लाया जाना जरूरी है. इस पहल से पिछड़े राज्यों की आर्थिक-सामाजिक दशा में बदलाव के बाद ही ग्लोबल इंडेक्स में भारत की स्थिति मजबूत होगी.

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