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शाह-उद्धव मुलाकात और 2019 की चुनौती : क्या एनडीए को अब चाहिए एक अदद संयोजक?

नयी दिल्ली : भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह आज मुंबई में शिवसेना प्रमुख उद्धवठाकरे से उनके आवास पर शाम छह बजे मुलाकात करेंगे. शिवसेना भारतीय जनता पार्टी की सबसे बड़ी व पुरानी सहयोगी पार्टी है. और सबसे नाराज भी. अमित शाह ने नरेंद्र मोदी सरकार के चार साल पूरे होने के बाद […]

नयी दिल्ली : भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह आज मुंबई में शिवसेना प्रमुख उद्धवठाकरे से उनके आवास पर शाम छह बजे मुलाकात करेंगे. शिवसेना भारतीय जनता पार्टी की सबसे बड़ी व पुरानी सहयोगी पार्टी है. और सबसे नाराज भी. अमित शाह ने नरेंद्र मोदी सरकार के चार साल पूरे होने के बाद चुनावी वर्ष में संपर्क फॉर समर्थन के तहत विभिन्नहस्तियों से मुलाकातोंका कार्यक्रम तय किया है. शाह संपर्क फॉर समर्थन के तहत समाज के प्रभावशाली लोगों से मुलाकात कर रहे हैं. इसकेसाथ ही उन्होंने राजनीतिक साथियों से मुलाकातों का सिलसिला भी शुरू किया है.

पहले यह समझा जा रहा था कि 2019 का आम चुनावभारतीय जनता पार्टी के तरफ झुका हुआ होगा. लेकिन अब विपक्षी एकता भाजपा के लिए चुनौती खड़ी करती दिख रही है. कर्नाटक में विपक्षी दलों के साझा प्रयास सेजनता दल सेकुलर-कांग्रेस की सरकार बनने व उपचुनाव मेंभाजपा की हार से विरोधी खेमा उत्साहित है. उधर, राष्ट्रीय जनतांत्रिक गंठबंधन के अंदर भीसीटोंके बंटवारे को लेकर सवाल उठने शुरू हो गये हैं.

वाजपेयी-आडवाणी युग का एनडीए

सहयोगी दलों नेभाजपा पर अभी से अधिक सीटोंके लिए दबाव बनाना शुरू कर दिया है.ऐसा मौके की नजाकत को भांपते हुएकिया जा रहा है. ऐसे में एक बड़ा सवालउठता है कि क्या एनडीए को एक अदद संयोजक की जरूरत है जो संतुलन कायम रख सके? अटल बिहारी वाजपेयी केजमाने में जार्ज फर्नांडीस एनडीए के संयोजक होते थे औरसरकार चलाने में उनका अहम योगदान व हस्तक्षेप होता था. वाजपेयी उन्हें हर फैसले में काफी अहमितय देते थे. बाद में लालकृष्ण आडवाणीएनडीए के अध्यक्ष बनाये गये तो शरद यादव को उसकासंयोजक बनाया गया. हालांकि 2009 के चुनावों में इन प्रयासों के बावजूद एनडीए चुनावहार गया.

2013-14मेंभारतीयजनतापार्टी की केंद्रीय राजनीति में नरेंद्र मोदी का उदय हुआ. पहले उन्हें चुनाव अभियान समिति का प्रमुख बनाया गया और फिर प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार. मोदी भाजपा के एक बेहद मजबूत नेता साबित हुए और सबकुछ उनके आसपास केंद्रित हो गया. उन्होंने अपने दम पर पहली बार भाजपा को बहुमत दिलाया, हालांकि सरकार भाजपा के नेतृत्व में एनडीए की ही बनायी गयी. भाजपा की बढ़ी ताकत के बाद एनडीए शब्द एक तरह से कम महत्व का हो गया. विरोधी दलों ने भी भाजपा और उससे भी अधिक मोदी-शाह की जोड़ी पर हमले शुरू किये. भाजपा के दूसरे नेताओं को भी विपक्ष ने कम ही या यदा-कदा निशाना बनाया.

बदलती परिस्थितियां व तीन राज्यों पर नजर

परिस्थितियां बदली हैं. 2014 के लोकसभा चुनाव में 282 सीटें जीतने वाली भाजपाज्यादातर लोकसभा उपचुनाव में हारी है. इस परिणाम से विरोधियों का उत्साह बुलंद हुआ है. ऐसे में सहयोगी दलों ने भीभाजपा पर अधिक सीटोंके लिए दबाव बनाया है. उत्तरप्रदेश व गुजरात जैसे राज्य में दलित हिंसा से भाजपा के दलित सांसदों में भी नाराजगी है. ये सब स्थितियांभाजपा के लिए प्रतिकूल माहौल बनाती हैं.

आने वाले महीनों में राजनीति और तेज होगी. सबकी नजरें अब मध्यप्रदेश, राजस्थान व छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव पर है. यहां भाजपा सत्ता में है. अगर इन राज्यों से विपक्षी खेमे के लिए कोई अच्छी खबर आती है तो विरोधी दलों का मनोबलऔर बढ़ेगा. वहीं, एनडीए के घटक दल भी इसे अपने लिए मोल-भाव के अवसर के रूप में लेंगे. यह भी हो सकता है कि कुछ दल अपने राज्यकी स्थिति के अनुसार, चौंकाने वाले फैसले ले लें.

जाहिर है, परिस्थितियां अधिक विपरीत होने पर एनडीए को एक अदद संयोजक की जरूरत पड़ सकती है.ऐसा शख्स जिसका राष्ट्रीय राजनीति में ऊंचा कद हो, सभी पार्टियों में पहुंच व स्वीकार्यता हो और जिसकी बात दूसरे दल गंभीरता से सुनें. हालांकि इस बात का संकेत या संभावना नहीं दिखती है कि भाजपा किसी सहयोगी नेता को संयोजक का दर्जा देगी, जिससे उस शख्स का राजनीतिक कद और बड़ा हो जाये. अमित शाह खुद सहयोगी दलों को मजबूती से साथ रखने व साथ लाने की कवायद में जुट गये हैं.

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