केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने 2018-19 के एकेडेमिक वर्ष के लिए 82 मेडिकल कॉलेजों को नये प्रवेश देने की मंजूरी नहीं दी है. इसके साथ 68 नये कॉलेजों को भी मान्यता नहीं दी गयी है. इस फैसले से करीब 20 हजार सीटें कम उपलब्ध होंगी.
अपनी सीटें 50 से बढ़ाकर 100 करने के नौ कॉलेजों के आवेदन को भी खारिज किया गया है. मंत्रालय के यह निर्णय भारतीय चिकित्सा परिषद के सुझावों पर आधारित हैं, जिनमें कहा गया था कि इन कॉलेजों में शिक्षकों समेत समुचित संसाधनों की कमी है.
परिषद मेडिकल शिक्षा और नैतिकता की निगरानी करनेवाली सर्वोच्च संस्था है. जिस प्रकार से देश में बड़ी संख्या में इंजीनियरिंग शिक्षा के संस्थानों में शिक्षकों, प्रयोगशालाओं और भवनों का अभाव है, उसी तरह से अनेक मेडिकल कॉलेजों में बेहतर अध्ययन-अध्यापन के लिए पर्याप्त सुविधाएं नहीं हैं. मेडिकल कॉलेजों के साथ अस्पताल का होना एक जरूरी शर्त है, जहां निश्चित संख्या में मरीजों का इलाज होता हो. इस मानक पर भी अनेक कॉलेज खरे नहीं उतरे हैं.
इन तथ्यों की रोशनी में स्वास्थ्य मंत्रालय का निर्णय उचित माना जा सकता है, क्योंकि कमतर संसाधनों में प्रशिक्षित चिकित्सक देश के हित में नहीं हैं. उम्मीद की जानी चाहिए कि ये संस्थान सरकार और परिषद के साथ मिलकर अपनी बेहतरी की पुरजोर कोशिश करेंगे. मेडिकल कॉलेजों में प्रवेश के लिए हर साल सात लाख से अधिक छात्र आवेदन करते हैं.
उनके लिए यह निश्चित रूप से एक निराशाजनक खबर है, क्योंकि फिलहाल लगभग 54 हजार सीटें ही उपलब्ध होंगी. इस संदर्भ में कुछ और सवाल प्रासंगिक हैं. केंद्र सरकार ने 2019 तक जिला अस्पतालों के साथ 58 मेडिकल कॉलेज स्थापित करने की योजना बनायी है. इसके अलावा 2021-22 तक 24 और सरकार द्वारा वित्त-पोषित कॉलेज बनाये जाने हैं.
इसके साथ ही 15 सरकारी कॉलेजों में 15 सुपर स्पेशियलिटी सुविधाएं मुहैया कराने की भी घोषणा की गयी थी. हालिया फैसलों की रोशनी में इन योजनाओं का पूरा हो पाना बहुत मुश्किल लगता है, क्योंकि राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति में 2025 तक स्वास्थ्य के मद में सरकारी खर्च को कुल घरेलू उत्पादन के 2.5 फीसदी के स्तर तक लाने का भी महत्वाकांक्षी लक्ष्य रखा गया है, परंतु इस साल के बजट में इस मद में बढ़ोतरी सिर्फ पांच फीसदी ही की गयी, जबकि जरूरत आगामी सात सालों तक हर साल 20 फीसदी बढ़ाने की है. देशभर के मौजूदा तकरीबन 10 लाख एलोपैथिक डॉक्टरों में एक लाख से कुछ ही ज्यादा सरकारी अस्पतालों में कार्यरत हैं.
ग्रामीण क्षेत्रों में 20 फीसदी डॉक्टर ही मान्यताप्राप्त हैं. करीब 90 हजार नागरिकों पर औसतन एक सरकारी अस्पताल है, तो दो हजार मरीजों के लिए एक बिस्तर उपलब्ध है. निजी स्वास्थ्य सेवाएं गरीब और निम्न आयवर्ग के लिए बहुत महंगी हैं. ऐसे में यदि मेडिकल कॉलेजों की संख्या और सीटों में लगातार बढ़ोतरी को सुनिश्चित नहीं किया जायेगा, तो स्वस्थ राष्ट्र होने की हमारी आकांक्षाएं अधूरी ही रह जायेंगी.