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आगामी आम चुनावों की चुनौतियां

II पवन के वर्मा II लेखक एवं पूर्व प्रशासक pavankvarma1953@gmail.com बीते 31 मई को जब देश के विभिन्न भागों में संपन्न उपचुनावों के परिणाम आ चुके, तो एक टीवी कार्यक्रम में मैंने कहा कि इनमें भाजपा द्वारा पिछड़ने से तीन सबक लिये जाने चाहिए. पहला, भाजपा संभवतः विपक्षी एकता की संभावना को कमतर आंक रही […]

II पवन के वर्मा II
लेखक एवं पूर्व प्रशासक
pavankvarma1953@gmail.com
बीते 31 मई को जब देश के विभिन्न भागों में संपन्न उपचुनावों के परिणाम आ चुके, तो एक टीवी कार्यक्रम में मैंने कहा कि इनमें भाजपा द्वारा पिछड़ने से तीन सबक लिये जाने चाहिए. पहला, भाजपा संभवतः विपक्षी एकता की संभावना को कमतर आंक रही है.
दूसरा, इस पार्टी के लिए यह आवश्यक है कि वह एनडीए के कुनबे को सुव्यवस्थित होने में सहायता पहुंचाते हुए अपने सहयोगी पार्टियों से बेहतर व्यवहार करे. और तीसरा यह कि आबादी के विभिन्न हिस्सों में जमीनी स्तर पर एक वास्तविक तथा व्यापक असंतोष तथा आक्रोश है, जिसे भाजपा अपने विनाश की कीमत पर ही नजरअंदाज कर सकती है.
अभी तक तो भाजपा नेताओं तथा प्रवक्ताओं की प्रतिक्रिया विपक्षी एकता अथवा यहां तक कि उनके किसी रणनीतिक गठबंधन के किसी विचार तक का मजाक उड़ाने की ही रही है. पर कई हालिया चुनावों और सबसे स्पष्टतः यूपी के कैराना में हमने विपक्षी एकता के द्वारा भाजपा को पराजित किये जाते हुए देखा है. ऐसे में क्या भाजपा की ऐसी सोच बुद्धिमत्तापूर्ण कही जा सकती है?
संभव है, भाजपा की सोच सही हो, पर सियासत का मतलब संभावनाओं का खेल होता है और जो संभावित है, वह तब प्रायः करणीय बन जाता है, जब उसका कोई अन्य विकल्प उपलब्ध न हो. भाजपा को यह भलीभांति पता है कि वह अब तक के अधिकतर चुनाव इसलिए जीतती रही है कि विपक्षी मत विभाजित रहे हैं.
उसी तरह यह विपक्ष को भी मालूम है. यदि वर्तमान जनभावना भाजपा के विरुद्ध है और विपक्ष को यह विश्वास है कि वह इस सत्ता-विरोध को सिर्फ साथ आकर ही साध सकता है, तो भाजपा के लिए मुश्किल हो सकती है.
यह सही है कि भाजपा का एक भरोसेमंद विकल्प साबित होने का भार विपक्ष पर ही है. उसके द्वारा अपनी पिछली कटुताएं और यहां तक कि आपसी शत्रुताएं भुलाकर एक ऐसा मजबूत मंच मुहैया करने हेतु, जो न केवल चुनावी जीतें हासिल करे, बल्कि प्रभावी प्रशासन भी पेश कर सके, एक विराट संगठनात्मक तथा वैचारिक निश्चय की जरूरत होगी. पिछले अनुभवों के आधार पर भाजपा को यह भरोसा है कि यह कार्य इतना कठिन है कि संभव ही न हो सकेगा, क्योंकि विपक्ष विसंगतियों से भरा है.
एक अहम बदलाव यह है कि कांग्रेस अपनी राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाओं से समझौता कर स्थानीय गठबंधनों के पक्ष में आती प्रतीत होती है, जिसमें स्थानीय रूप से प्रभावी पार्टी को वरीयता दी जाती है. कर्नाटक के चुनावों में यह साफ नजर आया, जहां बड़ी पार्टी होते हुए भी कांग्रेस ने मुख्यमंत्री का पद जद (एस) को देकर अपने चरित्र के विपरीत परिपक्वता प्रदर्शित की. यही रणनीति अन्य राज्यों में भी अपनायी जा सकती है.
इसकी भी खबरें हैं कि जहां भी ऐसा संभव हो, कांग्रेस चुनाव-पूर्व के गठबंधन करने की पहलकदमी कर रही है. यदि यह सत्य है, तो यह भाजपा के लिए एक अतिरिक्त चिंता की वजह बन सकती है, क्योंकि चुनाव-पश्चात के गठबंधन अनिश्चित, अंतर्विरोधी तथा अस्थिर हुआ करते हैं.
यदि चुनाव-पूर्व गठबंधनों को शासन के ऐसे सर्वसम्मत कार्यक्रमों का साथ मिल जाये, जो लोगों की जरूरतें पूरे करते हों, जो मतदाताओं के समक्ष पहले ही प्रस्तुत किये जा चुके हों और जो उन्हें यह भरोसा दिला सकें कि सचमुच ही एक टिकाऊ विकल्प उपलब्ध है, तो ऐसी दशा में विपक्षी एकता को खारिज कर पाना और भी कठिन हो जा सकता है.
दूसरी चीज यह कि भाजपा को सहयोगी बनाने तथा उनसे बरताव करने के अपने ही इतिहास पर आत्ममंथन करना चाहिए. यह सहज ही समझा जा सकता है कि जब किसी पार्टी को अपने ही बूते पूर्ण बहुमत हासिल हो और सहयोगी केवल एक अतिरिक्त और ऐच्छिक लाभ देते-से लगते हों, तब उनसे किये जानेवाले व्यवहार में एक अकड़ आ ही जाती है.
पर एक ऐसे वक्त, जब भाजपा बहुमत से पीछे रह जा सकती हो, उसे सहयोगियों की आवश्यकता होगी. संभवतः कुछ सहयोगी येन-केन-प्रकारेण पटा लिये जा सकते हों, पर एनडीए के वर्तमान सहयोगियों में से अपने-अपने क्षेत्रों में खासा प्रभाव रखती अधिकतर पार्टियां, जिनकी वैचारिक अवधारणाएं तथा विश्व-दृष्टि किसी सौदेबाजी की भेंट चढ़ने से इनकार करती हों, अवश्य ही सम्माननीय हैं.
दुर्भाग्य से कभी-कभी भाजपा प्रवक्ता ऐसी छवि प्रस्तुत कर देते हैं, मानो 2014 के बाद कुछ भी नहीं बदला हो एवं एनडीए में बाकी सभी अनिवार्यतः भाजपा दरबार की शोभा बढ़ानेवाले ही हों.
अंतिम बिंदु यह है कि भाजपा अपने चार वर्षीय शासन के प्रति लोगों में पैदा असंतोष से आंखें मूंद पड़ी नहीं रह सकती. देश में चारों ओर एक व्यापक कृषि संकट विद्यमान है. मंदसौर में विरोध व्यक्त करते किसानों पर निंदनीय गोलीकांड की पहली बरसी पर कई प्रमुख राज्यों में हुए किसान हड़ताल इसके सबूत देते हैं.
जॉब का सृजन अपनी अपेक्षाओं से बहुत पीछे रह गया है. तेल की बढ़ती कीमतों ने देशव्यापी आक्रोश की एक नयी लहर पैदा कर रखी है. विभिन्न समुदायों के बीच नफरत तथा विभाजन को बढ़ावा देने की कोशिशों ने क्षेत्रीय सामाजिक अस्थिरताओं को जन्म देकर मतों की बजाय नाराजगी ही हासिल की है. विभिन्न योजनाओं की नारेबाजियों के बीच ऐसा लगता है कि भाजपा अपनी अंतहीन रूप से दोहरायी जानेवाली दावेदारियों की एक वास्तविक समीक्षा करना जैसे भूल गयी है.
लोगों को वादों और उपलब्धियों, नारों एवं वास्तविकताओं के बीच एक खाई-सी दिखती है. नये चुनावों के मुहाने पर खड़ी एक पार्टी द्वारा रचनात्मक सलाहों समेत सभी आलोचनाओं को पूर्वाग्रही, अप्रासंगिक एवं विरोधी कहकर खारिज कर देने से उसका कोई भी हित नहीं सधेगा.
भारतीय राजनीति की विकास गाथा में 2019 तेजी से एक विभाजक वर्ष के रूप में उभर रहा है. भाजपा को अब भी एक नेता, एक वैचारिक आधार- भले ही विपक्ष उससे सहमत न हो- तथा एक कैडर की शक्ति हासिल है.
दूसरी ओर, विपक्ष के सामने विराट चुनौतियां मौजूद हैं. क्या विपक्ष का बरताव भाजपा द्वारा अपेक्षित तौर-तरीके का ही होगा या वह भाजपा को हैरत में डाल सकेगा? संभावनाएं भविष्य के गर्भ में छिपी हैं. पर एक बात तो निश्चित है कि लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं की पक्षहीनता में पूर्ण विश्वास तो होना ही चाहिए. और उसके लिए सभी पार्टियों द्वारा इस पर गंभीर विचार करने की जरूरत है कि क्या इवीएम की बजाय मतपत्रों की ओर लौटने की जरूरत है?
(अनुवाद: विजय नंदन)

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