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झारखंड के नायकों को भूल गया इतिहास, सूरज व सोना मांझी को कालापानी, हतिराम मुंडा को कर दिया था जिंदा दफन
II अनुज कुमार सिन्हा II प्रधानमंत्री नरेंद्र माेदी झारखंड की धरती पर आये हैं. स्वागत. यह वीराें की धरती है. बिरसा मुंडा, सिदो-कान्हू, तिलका मांझी, जतरा भगत, नीलांबर-पीतांबर जैसे वीराें की धरती. भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास बताता है कि अंगरेजाें काे अगर देश में किसी क्षेत्र में सबसे ज्यादा विराेध (खास कर सशस्त्र संघर्ष) […]
II अनुज कुमार सिन्हा II
प्रधानमंत्री नरेंद्र माेदी झारखंड की धरती पर आये हैं. स्वागत. यह वीराें की धरती है. बिरसा मुंडा, सिदो-कान्हू, तिलका मांझी, जतरा भगत, नीलांबर-पीतांबर जैसे वीराें की धरती. भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास बताता है कि अंगरेजाें काे अगर देश में किसी क्षेत्र में सबसे ज्यादा विराेध (खास कर सशस्त्र संघर्ष) का सामना करना पड़ा, वह क्षेत्र झारखंड ही है.
यहां के आदिवासियाें ने अंगरेजाें से जम कर लाेहा लिया. हजाराें शहीद भी हुए. लेकिन पीछे नहीं हटे, झुके नहीं. अंगरेजाें का जमकर सामना किया. दुर्भाग्य की बात यह है कि इनमें से स्वतंत्रता संग्राम के अधिकांश ऐसे नायकाें काे इतिहास में जगह नहीं मिली. हां, भगवान बिरसा मुंडा, सिदाे-कान्हू, तिलका माझी जैसे 15-20 नायकाें काे ही इतिहास ने जगह दी. दरअसल उस समय के इतिहासकाराें ने सैकड़ाें-हजाराें वीर आदिवासियाें के साथ घाेर अन्याय किया. ऐसे नायक गुमनाम ही रह गये. कहीं-कहीं, सरकारी दस्तावेजाें में इनमें से कई के नाम का सिर्फ उल्लेख है, लेकिन वह भी बहुत खाेजने पर मिलता है.
ऐसे नायकाें काे उनके गांव-पंचायत के लाेग भी शायद नहीं जानते. प्रधानमंत्री ने झारखंड समेत कुछ आदिवासी बहुल राज्याें में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के नायकाें के लिए आदिवासी म्यूजियम बनाने का फैसला किया है. लेकिन डर इस बात का है कि इस म्यूजियम में कहीं ऐसे गुमनाम नायक छूट न जाये.
संशय इसलिए है, क्याेंकि झारखंड में ऐसे नायकाें का दस्तावेज बनाया ही नहीं गया. जाे थाेड़े दस्तावेज बने भी हाेंगे, वे नष्ट हाे गये हाेंगे. झारखंड में ऐसे दस्तावेज हैं ही नहीं. इसलिए सबसे बड़ी चुनाैती है कि ऐसे नायकाें काे खाेजा जाये. अगर ट्राइबल म्यूजियम में भी ऐसे नायकाें के बारे में जानकारी नहीं मिलेगी, ताे यह म्यूजियम अधूरा ही रहेगा. देश-दुनिया के कई बेहतरीन लाइब्रेरी, अभिलेखागार में कुछ दस्तावेज इस संदर्भ में हैं, लेकिन झारखंड में नहीं. ऐसे दस्तावेजाेें काे विदेशाें से भारत (उसके बाद झारखंड) लाना हाेगा.
यह काम केंद्र सरकार ही कर सकती है. कुछ जानकारी आदिवासी समाज के गीताें से भी मिल सकती है. देश आैर झारखंड अपने वीर नायकाें की वीरता की कहानी पढ़ना चाहता है, सुनना चाहता है, उन्हें सम्मान देना चाहता है, लेकिन जानकारी मिले तब न. सरकारी दस्तावेजाें में कहीं-कहीं सिर्फ ऐसे नायकाें के नाम का उल्लेख है. वे किस गांव के थे, यह बताना, उनकी याद में कार्यक्रमाें का आयाेजन करना भी बड़ा धर्म है आैर ऐसे नायकाें प्रति सम्मान हाेगा.
भगवान बिरसा मुंडा काे पूरा देश जानता है. उनके बारे में लाेगाें काे जानकारी है. लेकिन कई जानकारियां विदेशाें में हैं. उन दिनाें मिशनरी से जुड़े लाेग जर्मन से आया करते थे. उन्हाेंने बिरसा मुंडा के आंदाेलन पर काफी कुछ लिखा. उन जानकारियाें पर शाेध करने की जरूरत है. यहां बात हाे रही है, गुमनाम नायकाें की. पहले दाे नायकाें की बात करें. सूरज मांझी आैर साेना मांझी के बारे में पूरे झारखंड में पता कर लीजिए. शायद ही काेई हाेगा जाे बता पायेगा. संभव है कि उनके गांव में भी लाेग इन दाेनाें के बारे में नहीं जानते हाेंगे. ताे जानिए.
सूरज मांझी आैर साेना मांझी दाेनाें वृहत झारखंड के थे. सूरज मांझी विद्राेहियाें के नेता थे. उन पर अंगरेजाें ने भाषण के माध्यम से उत्तेजना फैलाने का आराेप लगाया था. 13 नवंबर 1857 काे उन्हें उम्र कैद की सजा दी गयी. उन्हें कालापानी की सजा हुई थी.
3 सितंबर 1858 काे उन्हें अलीपुर जेल से अंडमान जेल भेजा गया. 14 अक्तूबर काे उन्हें अंडमान जेल में बंद किया गया था. इसी प्रकार साेना मांझी पर भी इसी प्रकार का आराेप था. 13 अप्रैल 1858 काे उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनायी गयी. कालापानी की सजा देने के बाद उन्हें 14 अक्तूबर 1858 काे अंडमान जेल पहुंचाया गया. उसके बाद क्या हुआ, किसी काे पता नहीं.
बिरसा के उलगुलान के दाैरान एक बड़ी घटना घटी थी. तत्कालीन रांची जिला के गुटूहड़ निवासी मंगन मुंडा के पुत्र हतिराम मुंडा काे अंगरेजाें ने जिंदा दफन कर दिया था. भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में जिंदा दफन करने का शायद ही काेई दूसरा उदाहरण हाे.
लेकिन आज झारखंड के लाेग हतिराम मुंडा की वीरता की कहानी काे नहीं जानते. लाेग यही जानते हैं कि 1855 में भाेगनाडीह में संताल विद्राेह (नेतृत्वकर्ता : सिदाे-कान्हू, चांद-भैरव) हुआ था. 1857 में सिपाही विद्राेह. लेकिन 1855 आैर 1857 के बीच यानी 1856 में संथालाें ने हजारीबाग, खड़गडीहा, बेरमाे के आसपास बड़ा विद्राेह कर दिया था. इन्हें एक साल पहले हुए संताल विद्राेह से प्रेरणा मिली थी. इनमें से कई ऐसे संथाल थे, जाे 1855 के विद्राेह में शामिल हुए थे.
हजारीबाग के आसपास हुए संताल विद्राेह के नेता थे रुपु मांझी,अर्जुन मांझी. यह विद्राेह गाेला, चितरपुर, पेटरवार आैर पुरुलिया तक फैल गया था. अंगरेजाें आैर उनके पिछलग्गू जमींदाराें-महाजनाें ने संतालाें आैर इनके नेता रुपु मांझी के घर काे फूंक दिया था. आज न रुपु मांझी की चर्चा हाेती है आैर न ही अर्जुन मांझी की.
इसी प्रकार गुलाबी मांझी (कुसमडीह, संताल परगना), चंद्रा मरांडी (सिंधाटांड,संतला परगना), कान्हू मरांडी (गारका, संताल परगना), रातू मरांडी (रिवजुरिया, संताल परगना), सुंदर मरांडी (सरसाबाद, संताल परगना), धेरेया मुंडा (डेमखानेल, रांची), हरि मुंडा (गुटुहड़, रांची), माल्का मुंडा (सिंहभूम), नरसिंह मुंडा (जनुमपिरी, रांची), साेंब्राय मुंडा (रांची), सुखाराम मुंडा (चक्रधरपुर), बाजू मुर्मू (डुमरिया, संताल परगना), मंगल मुर्मू (नारायणपुर, संताल परगना) जैसे सैकड़ाें ऐसे आदिवासी रहे हैं, जिन्हाेंने स्वतंत्रता संग्राम में जान गवांयी है. चाहे पुलिस की गाेलियाें से मारे गये या फिर जेल में बंद कर इन्हें इतनी यातनाएं दी गयीं कि उनकी जान चली गयी. ये सभी ट्राइबल म्यूजियम में जगह पाने के हकदार हैं आैर सरकार के लिए सबसे बड़ी चुनाैती यही है कि कैसे ऐसे नायकाें काे खाेज निकाला जाये.
यह सही है कि झारखंड क्षेत्र में आदिवासियाें ने अंगरेजाें के खिलाफ लगातार संघर्ष किया आैर जान भी दी. लेकिन यह भी सच है कि अंगरेजाें के खिलाफ लड़नेवालाें में गैर-आदिवासी भी थे. ऐसे नायकाें काे भी उचित स्थान इतिहास में मिलना चाहिए. झारखंड में काेई ऐसी जगह नहीं है, जहां सभी शहीदाें की प्रतिमा हाे या स्मारक हाे.
इस पर विचार हाेना चाहिए. रांची जेल में ही भगवान बिरसा मुंडा की माैत हुई थी, उलिहातू में उनका जन्म हुआ था, डाेंबारी में उन्हाेंने अंतिम लड़ाई लड़ी थी, बंदगांव के पास से उन्हें गिरफ्तार किया था, रांची के काेकर में उन्हें जलाया गया था. ये सभी एेतिहासिक स्थल हैं. इनका सर्किट बना कर इन सभी का विकास कर इसे संरक्षित किया जा सकता है. झारखंड में साठ के दशक में जनजातीय शाेध संस्थान खुला था. आज स्थिति देख लीजिए. साधन के अभाव में शाेध कार्य बंद हैं. किसी तरह यह संस्थान जिंदा है.
बेहतर हाे, विशेष केंद्रीय सहायता से इसे विकसित किया जाये, झारखंड में राष्ट्रीय स्तर का अभिलेखागार बने, जहां से देश-दुनिया से शाेध करने आये शाेध छात्र खाली हाथ लाैट कर न जायें. इतनी उम्मीद ताे झारखंड अपने प्रधानमंत्री से कर ही सकता है.
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