क्षमा शर्मा
वरिष्ठ पत्रकार
यह एक एसी का विज्ञापन है. इसमें एक लड़की काजल पेंसिल से पहले काजल लगाना चाहती है, लेकिन फिर बिंदी लगाती है.पिछले एक दशक से बिंदी महिलाओं के माथे से गायब हो गयी है. इसका एक कारण तो शायद यह है कि अब नौकरी करनेवाली अधिकतर लड़कियां पश्चिमी वेशभूषा पहनती हैं.
पैंट-शर्ट के साथ बिंदी का योग कहीं नहीं बैठता. इसके अलावा शादी के जो भी प्रतीक चिह्न हैं, उनसे इन लड़कियों-महिलाओं की दूरी हो गयी है. पहले एक तरीके से विवाहित और अविवाहित महिलाओं की ब्रांडिंग थी. सिंदूर, बिंदी आदि को विवाहित महिला से जोड़कर देखा जाता था.
इसके अलावा रात-दिन जो लड़कियां और महिलाएं रोल माॅडल की तरह आम लड़कियों-महिलाओं को दिखायी देती हैं, वे हैं अभिनेत्रियां, टीवी धारावाहिकों- विज्ञापनों में काम करनेवाली स्त्रियां, टीवी पर रात-दिन प्रोग्राम करती महिलाएं या पैनल बहसों में भाग लेती स्त्रियां.
इनमें से अधिकांश के माथे पर बिंदी दिखायी नहीं देती. जो दिखता है सो बिकता है की तर्ज पर ही जब बिंदी दिखती ही नहीं, वह सुंदर दिखने का मानक भी नहीं रही, तो आम नौकरीपेशा या शादीशुदा लड़की भी उसे क्यों लगाये. इसके अलावा शादीशुदा होने की पहचान भी वह नहीं रही है. हालांकि, विधवा स्त्रियों के माथे पर बिंदी लगाना वर्जित रहा है. जिसका भारी विरोध भी होता रहा है.
लेकिन, पिछले दिनों से कई माॅडल बिंदी लगाये दिखती हैं. कई टीवी एंकर्स के माथे पर भी अब बिंदी सजने लगी है. अभिनेत्रियां भी जब भारतीय परिधान पहनती हैं, तो बिंदी लगाती हैं.
पहले क्यों बिंदी गायब हुई थी, इस पर कोई शोध नहीं हुआ. विज्ञापनों में कई बार दिखायी देता है कि बिंदी, चूड़ी, सिंदूर में भी लोगों ने सामाजिक हैसियत खोज ली है.
घर की मालकिन अक्सर कटे बाल और पैंट-शर्ट पहने दिखती है, जबकि घरेलू स्त्री चूड़ी, बिंदी, सिंदूर लगाये और साड़ी पहने दिखती है. पहनावे के आधार पर समाज को बांटना, हमारे भीतर छिपे अहंकार और झूठी छवियों के निर्माण के प्रति हमारी दिलचस्पियों को भी बताता है.
अब तक जो छवियां सायास गढ़ी गयी थीं, वे काफी पुरानी पड़ गयी हैं. अब कुछ नया करके दिखाना है और इस नये के नाम पर अपने उत्पादों को बेचना है. वे उत्पाद कोई एसी, फ्रिज, वाशिंग मशीन हों या कोई धारावाहिक या फिल्म. इसलिए नये के नाम पर आजकल बिंदी को उन माथों पर सजाया जा रहा है, जो कल तक इसे पिछड़ेपन की निशानी मानती रही हैं.
लोगों के जीवन में व्यापार का यह हस्तक्षेप बताता है कि वे जैसे स्वयं कुछ चुनने के लायक ही नहीं. बाहर के लोग ही फैसला कर रहे हैं कि वे क्या पहनें, कैसे पहनें, कब बिंदी लगाएं और कब उसे नाक-भौं सिकोड़कर अपने से दूर कर दें.
स्त्री या पुरुष क्या पहनना चाहता है, कैसे रहना चाहता है, यह खुद उसका चुनाव होना चाहिए. लेकिन अरसे से लोग पहनने, खाने, रहने में उन बातों का चुनाव करते हैं, जैसा कि चमक-दमक की नकली दुनिया उन्हें करने को कहती है.