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रेप की घटनाओं पर कुछ नोट्स

मनोज कुमार झा युवा कवि व अनुवादक छोटी-छोटी बच्चियों के साथ जिस तरह से बलात्कार की खबरें आ रही हैं, वह हिला देनेवाली हैं. चारों ओर इसका विरोध हो रहा है, पर विरोध के बाद भी प्रशासनिक सवाल बना रह जाता है कि आखिर यह सिलसिला कब रुकेगा. बलात्कारियों को जल्द से जल्द सजा मिलनी […]

मनोज कुमार झा

युवा कवि व अनुवादक

छोटी-छोटी बच्चियों के साथ जिस तरह से बलात्कार की खबरें आ रही हैं, वह हिला देनेवाली हैं. चारों ओर इसका विरोध हो रहा है, पर विरोध के बाद भी प्रशासनिक सवाल बना रह जाता है कि आखिर यह सिलसिला कब रुकेगा. बलात्कारियों को जल्द से जल्द सजा मिलनी चाहिए, पर क्या इससे ये घटनाएं रुक जायेंगी?

क्या इस विषय पर समाजशास्त्रियों और मनोविदों के किये गये और भविष्य में किये जानेवाले शोधों से लाभान्वित होने की जरूरत प्रशासकों को नहीं है? क्या प्रशासन के पास इन घटनाओं को समझे जाने की इच्छा है?

क्या पोर्न सामग्रियों के अतिशय प्रसार से इसका कोई संबंध है? पोर्न सामग्रियां बलात्कार को बढ़ाती हैं, इस पर विद्वानों में मतैक्य नहीं है. पोर्न सामग्रियां यौनिक रूप से उत्तेजित तो करती हैं, किंतु ये बलात्कार को प्रेरित करती हैं, इसमें लोगों को संदेह है.

क्या बलात्कार का संबंध गरीबी और बेरोजगारी से भी है? हो सकता है! कहने का आशय यह नहीं कि अमीर बलात्कार नहीं करते. वे आसाराम जैसे सुनियोजित छल और कास्टिंग काउच जैसी जुगतों द्वारा पीड़िताओं को लाभान्वित कर बलात्कार करते हैं. कोरियोग्राफर सरोज खान तथा कांग्रेस की रेणुका चौधरी के बयानों से इसको समझा जा सकता है.

प्रसिद्ध चिंतक जॉर्ज सिमेल ने कहा है कि एक ही तरह की घटनाओं को देखते-देखते हम बेरुखीयुक्त दृष्टि के शिकार हो जाते हैं. फिर हेट रेप का भी सवाल आता है, जिसमें लोग किसी समुदाय से घृणा के चलते इस कुकृत्य को अंजाम देते हैं.

ब्रिटेन के प्रसिद्ध जंतु वैज्ञानिक एवं चिंतक डेसमंड मॉरिस की साल 1967 में आयी किताब ‘नेकेड एप (नग्न लंगूर)’ बहुत चर्चित हुई. इसमें इन्होंने दिखाया है कि जीवों की जैविक निर्मित्ति सभ्यता को कैसे प्रभावित करती है.

साल 1969 में इनकी किताब आयी ‘ह्यूमन जू (मनुष्यों का चिड़ियाघर)’. इसमें डेसमंड मॉरिस ने शहर के निवासियों की तुलना चिड़ियाघर में रहनेवाले जानवरों से की है. इन्हें जिंदगी की जरूरतें तो पूरी हो जाती हैं, लेकिन वह कुदरती परिवेश से कट जाता है, जिससे इन्हें स्वस्थ सामाजिक संबंधों को सहेजने में दिक्कतें आती हैं.

प्रसिद्ध उत्तर-आधुनिक नारीवादी चिंतक गायत्री चक्रवर्ती स्पिवाक भी ग्राम्यता (रुरलटी) के ह्रास को समकालीन सभ्यता की एक चिंताजनक प्रवृत्ति बताती हैं.

हम शहरों से दूर नहीं जा सकते, यह एक सच्चाई है; बल्कि अब गांव भी एक शहर है. लेकिन हमें सोचना तो होगा. जॉन जरजन जैसे कुछ अराज्यवादी चिंतक तो जंगलों में लौट जाने की बात करते हैं. इतनी बड़ी जनसंख्या आरण्यक संस्कृति में नहीं लौट सकती. जंगल में रहनेवाले को जंगली कहने से पहले हमें सोचना चाहिए कि इनसे हम क्या सीख सकते हैं.

बलात्कार सिर्फ नैतिक और कानूनी वृत्त के भीतर का मामला नहीं है, बल्कि यह बहुत ही जटिल और बहुपरतीय मामला है, जिससे हमें ईमानदारी के साथ जूझना होगा.

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