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किस काम के हैं ये रंग अनुदान?

राजेश चंद्र, वरिष्ठ रंगकर्मी सरकार जब स्कूल, अस्पताल, सड़क या बिजली के लिए पैसे खर्च करती है, तो उसका फायदा सीधे जनता को मिलता है. पर जो पैसे वह रंगमंच पर खर्च करती है अनुदानों या अन्य तरीकों से, उससे समाज के पास क्या पहुंच रहा है? ज्यादातर मामलों में यह पैसा कुछ खास लोगों […]

राजेश चंद्र, वरिष्ठ रंगकर्मी
सरकार जब स्कूल, अस्पताल, सड़क या बिजली के लिए पैसे खर्च करती है, तो उसका फायदा सीधे जनता को मिलता है. पर जो पैसे वह रंगमंच पर खर्च करती है अनुदानों या अन्य तरीकों से, उससे समाज के पास क्या पहुंच रहा है?
ज्यादातर मामलों में यह पैसा कुछ खास लोगों की जेबें भरने के अलावा और किसी काम नहीं आ रहा. कम से कम अभिनेता और नाटककार के पास तो कुछ भी नहीं पहुंच रहा. यह एक बड़ी वजह है कि आज हिंदी रंगमंच में ऐसे बहुतेरे निर्देशक या आयोजक हैं जो मालामाल हैं, रंगमंच का मजदूर अभिनेता अधिकांशतः लाचार और फटेहाल है तथा उपेक्षा का मारा नाटककार उदासीन है, उसे नाटक लिखना एक अनुत्पादक काम लगता है.
आज यह जांचना जरूरी है कि अब तक जो अनुदान में सैकड़ों करोड़ रुपये रंगमंच में दिये गये, उनसे रंगमंच का कोई भला क्यों नहीं हुआ? कुछ ही उदाहरण हैं कि रंगकर्मियों ने अनुदान के पैसों का बेहतर उपयोग किया है. आम मान्यता है कि अनुदान केवल सिफारिश और लाॅबिंग के आधार पर मिलते हैं. इस व्यवस्था में आज बहुत सारे ऐसे लोगों को भी अनुदान मिल रहा है, जिन्होंने कभी रंगकर्म नहीं किया.
साफ है कि अनुदान ने रंगमंच पर नकारात्मक प्रभाव डाला है. अनुदान लेनेवाले रंगकर्मियों का ध्यान नाटक के लिए विषय-वस्तु का चुनाव करने या उसकी गुणवत्ता बढ़ाने की तरफ कम होता है. वे उनके प्रति जवाबदेह होने की कोशिश करते हैं, जो उन्हें ग्रांट देते हैं.
अनुदानों से कुछ विशिष्ट लोगों का व्यक्तिगत विकास भले होता हो, रंगमंच के विकास से इसका कोई लेना-देना नहीं है. वरना क्या कारण है कि साल-दो साल नाटक करने के बाद ही हर रंगकर्मी एक बैनर बनाने की कवायद शुरू कर देता है?
देश के छोटे-बड़े शहरों में आज जितने महोत्सव होते हैं, उनमें किन लोगों के नाटक बुलाये जाते हैं? किसी भी एक राष्ट्रीय नाट्य महोत्सव के नाटकों की सूची को देखिये. दस नाटक आमंत्रित किये गये होंगे, तो उनमें से दो या तीन नाटक एनएसडी के सबसे प्रभावशाली और सत्ता-केंद्रों से जुड़े निर्देशकों के होंगे. फिर देखा जायेगा कि कौन-सा निर्देशक भारंगम की, फेलोशिप और ग्रांट की कमिटियों में, संगीत नाटक अकादमी में प्रभाव रखता है. उसका एक-एक नाटक बुला लो.
सारी कवायद विषय के संभावित लाभों को ध्यान में रखकर ही की जाती है. वह भविष्य में मिल सकनेवाले बड़े लाभ के लिए एक निवेश होता है.
महोत्सवों के नाम पर संस्कृति विभाग भी पैसे देता है. कुछ खर्च संगीत नाटक अकादमी या कोई जोनल कल्चरल सेंटर उठा ही लेता है. यह जांचने की कोई व्यवस्था नहीं है कि जो अनुदान दिया जा रहा है, उसका कैसा उपयोग हुआ.
सरकारों का काम अनुदान बांटना नहीं है. उसका काम है ऐसा माहौल बनाना, जिसमें कलाओं को संरक्षण और बढ़ावा मिले. पर सरकारें कोई ढांचा नहीं बनातीं, वे महोत्सव कराती हैं, पद, पैसे और पुरस्कार बांटती हैं.
रंगकर्मी को कैसे सही प्रशिक्षण मिले, पूर्वाभ्यास और प्रस्तुति की कैसे समुचित व्यवस्था होे, इससे सरकारों को सरोकार नहीं है. तमाम लोक-कलाएं विलुप्ति की कगार पर हैं, पर सरकार उनका म्यूजियम बनाने में या तमाशा आयोजित करने में अधिक रुचि लेती है.
अनुदान के लिए हमारे देश में कोई नीति तक नहीं है. किसको अनुदान देना है, किसको नहीं, यह केवल संबंधित अधिकारियों और पार्टियों द्वारा मनोनीत समिति के सदस्यों की निजी राय पर ही निर्भर है. सरकार रंगकर्मियों को आश्रित बनाने के लिए अनुदान देती है. वह ऐसा रास्ता नहीं बनाती, जिस पर चलकर वे अपने संसाधन खुद निर्मित करें, आत्मनिर्भर हों.

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