13.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

कार्ल मार्क्स और हमारी खुशी का रास्ता

II कृष्ण प्रताप सिंह II वरिष्ठ पत्रकार आज ही के दिन जर्मनी में जन्मे वैज्ञानिक समाजवाद के प्रणेता दार्शनिक, अर्थशास्त्री, समाजविज्ञानी और पत्रकार कार्ल मार्क्स को याद करने का अब, कम से कम इस देश में, एक खास नया संदर्भ है. भूमंडलीकरण के चोले में थोप दी गयी पूंजीवादी अर्थनीति के जुनून और उसकी बिना […]

II कृष्ण प्रताप सिंह II
वरिष्ठ पत्रकार
आज ही के दिन जर्मनी में जन्मे वैज्ञानिक समाजवाद के प्रणेता दार्शनिक, अर्थशास्त्री, समाजविज्ञानी और पत्रकार कार्ल मार्क्स को याद करने का अब, कम से कम इस देश में, एक खास नया संदर्भ है.
भूमंडलीकरण के चोले में थोप दी गयी पूंजीवादी अर्थनीति के जुनून और उसकी बिना पर देश में स्वर्ग उतर आने के विभिन्न सरकारों के दावों के बावजूद पिछले दिनों जारी कई सूचकांकों के मुताबिक इस दौरान सच्ची खुशी हमसे लगातार दूर होती गयी है. कई मायनों में आम भारतवासी पड़ोसी पाकिस्तानियों व बांग्लादेशियों जितने भी खुश नहीं हैं.
कारण यह कि खुशी का सीधा संबंध हृदय से होता है, जबकि संविधान की भूमिका में वर्णित समाजवादी समाज निर्माण का संकल्प छोड़कर हम जिस तरह का पूंजीपरस्त समाज बनाने चल पड़े हैं, उसमें सब कुछ उस पूंजी की मुट्ठी में केंद्रित होता जा रहा है, जिसका मनुष्यमात्र को हृदयहीन बनाने का पुराना इतिहास है.
अब जब मनुष्य की खुशियों की दुश्मन इस पूंजी को हमारे राष्ट्र-राज्य की शक्तियों के अतिक्रमण से बरजनेवाला भी कोई नहीं है, याद आता है कि कार्ल मार्क्स ने 1844 में ही चेता दिया था, ‘पूंजी जैसी निर्जीव वस्तु सजीवों-खासकर मनुष्यों-को संचालित करेगी, तो उन्हें हृदयहीन बना देगी.’
दार्शनिक के तौर पर उनका मानना था कि लोगों की खुशी के लिए पहली आवश्यकता ‘धर्म का अंत’ है. लेकिन उन्होंने मनुष्यता के इतिहास में धर्म द्वारा निभायी गयी भूमिका को कभी भी एकतरफा तौर पर खारिज नहीं किया.
उन्होंने कहा था, ‘धर्म दीन प्राणियों का विलाप है, बेरहम दुनिया का हृदय है और निष्प्राण परिस्थितियों का प्राण है. मानव का मस्तिष्क जो न समझ सके, उससे निपटने की नपुंसकता है. यह लोगों की अफीम है और उनकी खुशी के लिए पहली आवश्यकता इसका अंत है.’
वे कहते हैं, ‘अमीर गरीबों के लिए कुछ भी कर सकते हैं, लेकिन उनके ऊपर से हट नहीं सकते. जमींदार, किसानों के विपरीत, वहां से काटना पसंद करते हैं, जहां उन्होंने कभी बोया ही नहीं.’ निश्चित रूप से इसी कारण वे इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि ‘जीवन एक लगातार चलता रहनेवाला संघर्ष है, जबकि क्रांतियां इतिहास की इंजन.’ इसी तरह, ‘कंजूस एक पागल पूंजीपति है, जबकि पूंजीपति एक तर्कसंगत कंजूस.’
लेखकों के बारे में उनकी राय है, ‘जीने और लिखने के लिए लेखक को पैसा कमाना चाहिए. लेकिन किसी भी सूरत में पैसा कमाने के लिए जीना और लिखना नहीं चाहिए. लेखक इतिहास के किसी आंदोलन को शायद बहुत अच्छी तरह से बता सकता है, लेकिन निश्चित रूप से वह उसे बना नहीं सकता.’
मार्क्स अपनी विचारधारा को कुछ सरल सूत्रों में समझाते हैं, ‘साम्यवाद के सिद्धांत को एक वाक्य में अभिव्यक्त किया जा सकता है- सारी निजी संपत्ति को खत्म किया जाये. हर किसी से उसकी क्षमता के अनुसार काम लिया जाये और हर किसी को उसकी जरूरत के अनुसार दाम दिया जाये.
माना जाये कि नौकरशाहों के लिए दुनिया महज हेरफेर करने की वस्तु है.’ यहां मजदूरों के संदर्भ में उनके इस प्रसिद्ध कथन को भी याद रखा जाना चाहिए कि उनके पास खोने को सिर्फ जंजीरें हैं, जबकि जीतने को सारी दुनिया.
मार्क्स लोगों के विचारों को उनकी भौतिक स्थिति के सबसे प्रत्यक्ष उद्भव बताते हैं, जबकि लोकतंत्र को समाजवाद तक जाने का रास्ता मानते और कहते हैं कि महिलाओं के उत्थान के बिना कोई भी महान सामाजिक बदलाव असंभव है.
उनके शब्दों में ‘सामाजिक प्रगति महिलाओं की सामाजिक स्थिति देखकर ही मापी जा सकती है.’ दिलचस्प यह भी कि एक समय उन्होंने कहा था कि ‘अगर कोई एक चीज निश्चित है, तो यह कि मैं खुद मार्क्सवादी नहीं हूं.’

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें

ऐप पर पढें