भोजपुर (जगदीशपुर) : बिहार में भोजपुर के जगदीशपुर में आयोजित बाबू वीर कुंवर सिंह के 160वें विजयोत्सव के राजकीय समारोह को संबोधित करते हुए उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी ने कहा कि 1857 में हुई आजादी की पहली लड़ाई में जहां हिंदू-मुस्लिम साथ मिल कर ईस्ट-इंडिया कंपनी के खिलाफ लड़े थे, वहीं समाज के दलितों, पिछड़ों की भी इसमें भरपूर भागीदारी रहीं. दुसाध समाज के लोग बड़ी संख्या में बाबू वीर कुंवर सिंह की सेना में सिपाही थे. नाथू दुसाध बाबू कुंवर सिंह के सिपहसलार थे तथा परछाई की तरह हमेशा उनके साथ रहते थे. बाबू कुंवर सिंह की अदालत में सवर्ण और अवर्णों के साथ सामान न्याय होता था, जिसके कर्ताधर्ता द्वारिका माली थे.
सुशील मोदी ने कहा, बगवां के 29 दुसाध अंग्रेजों के साथ लड़ाई में शहीद हुए. जबकि, दावां गांव के दरोगा नट को शिवपुर घाट पर बाबू कुंवर सिंह को बचाने के क्रम में अपनी जान गंवानी पड़ी थी. कुंवर सिंह के गांव दिलीपपुर के आस-पास के मीठहां, बलुआही, देवाढ़ी, शिवपुर आदि दर्जनों गांवों के दुसाध समाज के लोग उनकी सेना में शामिल थे. समाज के कमजोर वर्गों के प्रति बाबू कुंवर सिंह के लगाव का प्रतीक देवचना गांव है, जहां एक महिला को बहन मान कर उन्होंने 251 बीघा जमीन खोंइचा में दिया था, जो आज दुसाधी बघार के नाम से जाना जाता है. अपने लड़ाके सैनिकों की जान उनके लिए कितनी कीमती थी कि सभी सैनिकों को गंगा पार उतारने के बाद अंतिम किस्ती पर खुद सवार हुए. जिसके कारण उन्हें अंग्रेजों की गोली का शिकार होना पड़ा.
उपमुख्यमंत्री ने कहा, बाबू कुंवर सिंह हिंदू-मुस्लिम एकता के भी प्रतीक हैं. उन्होंने शिवाला बनवाया तो आरा, जगदीशपुर में मस्जिदें भी बनवायी. पीरो के नूर शाह फकीर को 5 बीघा तो नोनउर के बकर शाह फकीर को 10 बीघा लगान मुक्त जमीन दी. धरमन बीबी की बहन करमन के नाम पर आरा में करमन टोला बसाया. 1857 में बाबू कुंवर सिंह जैसे वीर बांकुड़ों के संग्राम का ही नतीजा रहा कि कंपनी बहादुर सरकार (ईस्ट इंडिया कंपनी) को महज डेढ़-दो वर्षों में ही अपनी बोरिया बिस्तर समेट कर भारत छोड़ना पड़ा. आजादी की इस पहली लड़ाई ने 1947 की नींव रखी जिसके परिणामस्वरूप आज हम आजाद है.