जिस देश में हर घंटे दुष्कर्म की चार घटनाएं होती हों और महिलाओं के विरुद्ध औसतन 39 अपराध घटित होते हों, क्या उसे अपनी अन्य उपलब्धियों पर गर्व करने का नैतिक अधिकार है? अदालतों में बेशुमार पीड़ित इंसाफ के इंतजार में हैं, जिनमें बच्चों की तादाद भी बहुत है. कागजों पर कानून तो हैं, पर अदालती रवैया लचर है.
सुरक्षा और जांच के लिए जवाबदेह पुलिस या तो लापरवाह है या फिर अक्सर वह अपराधियों के बचाव में खड़ी दिखती है. आलम अब यह है कि वकील से लेकर मंत्री-विधायक और नेता पीड़ितों के पक्ष में खड़े होने के बजाय बलात्कारियों का साथ देने लगे हैं. अनेक नेता और निर्वाचित प्रतिनिधि भी बलात्कारियों की भाषा बोलने लगे हैं.
उन्नाव, कठुआ और सासाराम की घटनाओं ने हमारे सामने कुछ जरूरी सवाल खड़े कर िदये है़ क्या यह भयानक सिलसिला बदस्तूर चलता रहेगा या फिर समाज और सरकार की चिंता में कोख से कफन तक महिलाओं के सम्मान और सुरक्षा को प्राथमिकता मिलेगी? इन सवालों के कटघरे में हम सब खड़े हैं, जहां बच्चियों-महिलाओं की चीखें, कराहें और सिसकियां हमारे खिलाफ गवाही दे रही हैं.
भयावह समय के अिभशप्त साक्षी हम
मैं जो बात कहूंगी, तो लोग कहेंगे कि यह एक पुरानी अवधारणा है, देश में लोकतंत्र है और हम बहुत आधुनिक हो गये हैं. लेकिन, सच्चाई यह है कि यह पुरानी धारणा अब एक नये रूप में आ गयी है और पुराने समय से भी ज्यादा हिंसक और बर्बर हो गयी है. इसका एक ठोस कारण है- धर्म और राजनीति का गंदा गठजोड़. वह अवधारणा यह है कि हमारा समाज एक पुरुष सत्तात्मक समाज है, जिसमें महिलाओं को हमेशा से एक ‘सेक्स ऑब्जेक्ट’ के रूप में देखा जाता रहा है.
इस अवधारणा के तहत किसी भी तरह की नफरत का सबसे पहला शिकार महिलाएं ही होती हैं. इसी सोच के कारण महिलाओं के प्रति शारीरिक और मानसिक हिंसाएं होती हैं, उनका बलात्कार और फिर नृशंस हत्या होती है. इस सोच पर अंकुश लगाने और हिंसा को रोकने के लिए कानून और न्याय की व्यवस्था तो है, जिसको लागू करने की जिम्मेदारी भी राजनीति की है. लेकिन, चूंकि राजनीति इतने गंदे स्तर पर उतर चुकी है, जहां इंसान को इंसान नहीं समझा जाता, और धर्म भी इसमें एक खास भूमिका निभाता है, जो नफरत की राजनीति को जन्म देता है, इसलिए हमारा पूरा समाज आज बहुत बुरे दौर से गुजर रहा है.
बहुत अफसोस और दुख की बात है कि हमारे देश में छोटी-छोटी अबोध बच्चियों से बलात्कार हो रहा है. ऐसी घटनाओं को सुनकर ही दिल एक क्षोभ और टीस से भर जाता है, और हम सोचने लगते हैं कि क्या हम इंसान भी हैं! हैवानियत की सारी हदें पार करके कुछ लोगों ने समाज को बद से बदतर हालात में पहुंचा दिया है. बीते दिनों बलात्कार की जितनी भी घटनाएं हुई हैं, चाहे वह कठुआ में आठ साल की बच्ची के साथ हुआ हो या फिर सासाराम में छह साल की बच्ची के साथ, इससे हैवान भी शर्मसार हो गया है.
एक छोटी सी बच्ची को मंदिर में सप्ताहभर तक बंधक बनाकर कई लोगों द्वारा लगातार उसका बलात्कार किया जाना तो यही दर्शाता है कि अब लोग जघन्यता और असंवेदनशीलता की सारी हदें पार करने लगे हैं. तो क्या सचमुच हम आदिम जमाने के बर्बर दौर में चले गये हैं? अब इसके बाद क्या बच जाता है कुछ कहने को? सचमुच, बहुत भयावह दौर के हम साक्षी बन रहे हैं.
राजनीति में संवेदनशीलता और मानवीयता का लोप
आज इस हिंसक समय में तमाम जागरूक और बौद्धिक लोगों को एक साथ आना होगा और ऐसे बर्बर लोगों को समाज से बिल्कुल अलग-थलग करना पड़ेगा. दिन-प्रतिदिन जिस तरह से हालात बेकाबू होते जा रहे हैं, उसे काबू में करने की जिम्मेदार नागरिक समाज को सबसे पहले लेनी होगी. यह कितनी बड़ी विडंबना है कि हमारे प्रधानमंत्री को ऐसे मसलों पर बोलने में एक लंबा वक्त लग जाता है. जब उनको चुनाव जीतना था, तो उन्होंने भाषण में जनता से कहा था कि जब तुम वोट देने जाना,
तो यह ध्यान में रखना कि निर्भया के साथ क्या हुआ. जनता ने तो यह ध्यान में रखा और उन्हें सत्ता सौंप दिया. लेकिन, अब इनके शासन में जिस तरह की बर्बर घटनाएं घटी हैं, उस पर वे तो चुप रहते ही हैं, उनकी पार्टी के नेता लोग ऐसे कुतर्क से भरे बयान देते हैं, जिन्हें सुनकर लगता है कि सचमुच राजनीति में संवेदनशीलता और मानवीयता जैसी चीजें नहीं रह गयी हैं. बच्चियों के साथ दुष्कर्म को ये नेता अगर हिंदू-मुसलमान के चश्मे से देखते हैं, निश्चित रूप से हम एक भयावह दौर में जी रहे हैं और इस भयावहता का जिम्मेदार धर्म और राजनीति का गठजोड़ ही है. जहां कहीं भी धर्म और राजनीति का गंदा गठजोड़ होता है, वहां के समाज असंवेदनशील और जघन्य हो जाते हैं. दुनियाभर में इसकी अनेकों मिसालें हैं. यह गठजोड़ समाज को सांप्रदायिक बनाता है और तब लोग हिंसा करके भी खुश होते हैं और उनके बचाव में लोग खड़े हो जाते हैं.
पुलिस की जिम्मेदारी
कानून व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने की जिम्मेदारी पुलिस की है. लेकिन, ऐसे मामलों में पुलिस की जो सहभागिता नजर आयी है, वह अपराध को बढ़ावा देनेवाली है और न्याय के तंत्र को अन्याय के तंत्र में बदलनेवाली है. जिस पुलिस का काम बर्बरता रोकने का हो, वही अगर बर्बर हो जाये, तो फिर हम कह सकते हैं कि रक्षक बने भक्षक वाली व्यवस्था मजबूत हो रही है और लोकतंत्र में सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं है, ऐसी व्यवस्था बन रही है.
पैसे के लालच में हमारे देश की पुलिस अगर कुछ भी कर गुजरने और निम्न स्तर पर उतरने के लिए तैयार है, तो फिर न्याय तो यहीं दम तोड़ देगा और एक लाचार नागरिक अपनी बदकिस्मती का रोना रोकर घुट-घुटकर जियेगा. देशभर में हो रहे रोजाना दर्जनों बलात्कार की घटनाओं में अधिकतर गरीब, दलित, वंचित, अल्पसंख्यक और हाशिये के लोग ही शिकार होते हैं. विडंबना तो यह है कि इन्हें न्याय पाने में बड़ी मुश्किल का सामना करना पड़ता है.
इसका अर्थ है कि कानून और न्याय व्यवस्था को भी खित्ते में बांट दिया गया है, यह लोकतंत्र के लिए बहुत घातक है. किसी भी परिस्थिति में शातिर अपराधी बचकर न निकल पाये, इसकी मजबूत व्यवस्था बननी ही चाहिए. एक अपराधी का बच जाना एक पीड़ित के दर्द को न केवल बढ़ा देता है, बल्कि इससे अपराध को भी बढ़ावा मिलता है और अपराधियों की सोच बलवती होती है कि उनका कोई कुछ बिगाड़ नहीं पायेगा.
अत्याचारों से डटकर लड़ना जरूरी
निर्भया मामले से लेकर आसिफा मामले तक जिस तरह से कुछ जागरूक और संवेदनशील लोगों ने अपराधियों और सांप्रदायिक ताकतों के खिलाफ न केवल आवाज उठाते रहे हैं, बल्कि सड़कों पर उतरते रहे हैं, यही चीज हमारी संवेदनशीलता को बचाये रख सकती है. ऐसी आवाजें ही धर्म-राजनीति के गठजोड़ को तोड़ सकती हैं और अपराधियों को सजा दिलवा सकती हैं. न्याय का यह तकाजा भी है कि अन्याय के खिलाफ आवाज बुलंद हो.
बड़े से बड़े पद-प्रतिष्ठा वाले रसूखदारों के पास कानून को अपने हाथ में लेने और उसके साथ खिलवाड़ करने का अधिकार नहीं होना चाहिए. विवेकशील, संवेदनशील, न्यायप्रिय नागरिकों का एक साथ खड़े होना बड़ी-से-बड़ी सांप्रदायिक ताकत को मात दे सकता है. इस एकता में धर्म-जाति, ऊंच-नीच, अमीर-गरीब जैसी बांटने वाली सोच नहीं होनी चाहिए, बल्कि लोकतंत्र को बचाने के लिए और न्याय की व्यवस्था को कायम करने के लिए इन सब चीजों से परे जाकर मानवीयता की शरण लेनी चाहिए,
जो हर व्यक्ति को बराबर समझती है. महिलाओं की गरिमा के लिए हम सबको देशभर में उनके खिलाफ हो रहे अत्याचारों से डटकर लड़ना इसलिए जरूरी है, क्योंकि हमारे घर में भी बेटियां और महिलाएं हैं. जहां भी हिंसा की बात हो, वहां महिला को उसके धर्म-जाति, अमीर-गरीब में बांटकर न देखें. ऐसा भेदभाव हमारे लोकतंत्र के बुनियादी स्वरूप को खत्म करने जैसा होगा. हमें अपने लोकतंत्र को बचाना है, तो सबसे पहले महिलाओं के प्रति हो रही हिंसा की दर को शून्य करना होगा.
(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)
निर्भया मामले के फैसले का भी नहीं हो रहा असर
पिछले एक वर्ष के दौरान देशभर में दुष्कर्म की अनेक ऐसी घटनाएं हुई हैं, जो यह दर्शाती हैं कि निर्भया मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिये गये फैसले से हम कुछ सीख नहीं पाये हैं. वर्ष 2017 में निर्भया कांड के फैसले के दौरान उस सप्ताह की घटनाओं पर ही गौर करें, तो देशभर में दुष्कर्म के अनेक घिनौने मामले सामने आये, जिससे यह पता चलता है कि बलात्कारियों की मंशाओं को रोक पाना आसान नहीं है.
15 मई : गुरुग्राम में सिक्किम की एक 22 वर्षीय महिला के साथ चलती कार में दुष्कर्म के बाद उसे फेंक दिया गया. तीन दरिंदों ने उसके साथ सामूहिक दुष्कर्म किया और करीब 20 उसे कार में घुमाया गया.
14 मई : हरियाणा के राेहतक में 20 साल की महिला का सामूहिक दुष्कर्म करने के बाद हत्या कर दी गयी. इसमें उसका प्रेमी और दोस्त शामिल थे. हत्या के बाद उसके सिर को कुचल दिया गया. पोस्टमार्टम से यह भी पता चला कि उसके निजी अंगों को भी व्यापक तरीके से नुकसान पहुंचाया गया.
13 मई : हरियाणा में एक सौतेले पिता ने अपनी 10 वर्ष की बेटी से कई बार दुष्कर्म किया, नतीजतन वह गर्भवती हो गयी. जांच में पता चला कि वे उस लड़की को धमकाता था, ताकि वह इस बारे में किसी से बता नहीं सके.
11 मई : गाजियाबाद में 45 वर्षीय स्कूल संचालक को अपनी ही बेटी के साथ पिछले सात सालों से यौन उत्पीड़न के जुर्म में गिरफ्तार किया गया.
10 मई : दिल्ली के गांधी नगर इलाके में 40 साल के एक दरिंदे ने 21 माह की एक मासूम को अपनी हवश का शिकार बनाया. वह दरिंदा उस मासूम के पिता का परिचित था और अक्सर उसके साथ खेलता था.
10 मई : वाराणसी में 25 साल के एक सख्स ने पांच वर्ष की एक श्रवणबाधित दिव्यांग बच्ची को अपनी हवश का शिकार बना डाला. इस दरिंदे ने एक दिन पहले रात को अपने पड़ोस में एक दूसरी बच्ची का अपहरण करना करने का प्रयास किया. इसमें कामयाबी नहीं मिलने पर उसने दूसरे दिन इस घिनौने काम को अंजाम दिया.
8 मई : लुधियाना में एक महिला ने अपने पति का किसी अन्य महिला से संबंध होने के शक में उसे सबक सिखाने के लिए अपनी ही 16 साल की बेटी का दो पुरुषों से दुष्कर्म कराया. पांच माह तक यह सिलसिला चलता रहा, और उस बच्ची के गर्भवती होने पर मामला सामने आया.
6 मई : दिल्ली के आनंद पर्वत इलाके में तीन साल की एक बच्ची का उसके पड़ोसी दरिंदे ने दुष्कर्म किया. 22 साल के इस दरिंदे को बच्ची के माता-पिता ने रंगे हाथों पकड़ लिया. बच्ची की दशा बेहद खराब थी, लिहाजा उसे सर्जरी के लिए एक बड़े अस्पताल में भर्ती करना पड़ा.
ज्यादातर मामलों में परिचित होते हैं आरोपी
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो 2015 के आंकड़े बताते हैं कि दुष्कर्म के 95 प्रतिशत मामलों में आरोपी पीड़िता का परिचित था. इन परिचितों में 27 प्रतिशत पड़ोसी शामिल थे, जबकि 22 प्रतिशत मामलों में शादी का वादा करने के बाद अपराधी ने ऐसे कृत्य को अंजाम दिया था, वहीं नौ प्रतिशत कृत्य में परिवार के सदस्य और रिश्तेदार शामिल थे. इस आंकड़े के मुताबिक,दुष्कर्म की कुल घटनाओं में तकरीबन दो प्रतिशत में लिव-इन पार्टनर या पति (पूर्व पार्टनर या पूर्व पति) शामिल थे, जबकि 1.6 प्रतिशत घटनाएं नियोक्ता या सहकर्मियों और 33 प्रतिशत अन्य परिचित सहयोगियों द्वारा अंजाम दिये गये थे.
हर 15 मिनट में दुष्कर्म की एक घटना
5 से ज्यादा महिलाएं औसतन प्रतिदिन दुष्कर्म का शिकार हुईं, दिल्ली में वर्ष 2017 में. ज्यादातर मामलों में आरोपी परिचित था.
2,049 दुष्कर्म की घटनाएं सामने आयी थीं दिल्ली में वर्ष 2017 में, जबकि 2016 में ऐसी 2,064 घटनाएं दर्ज की गयी थीं यहां.
3,273 उत्पीड़न की घटनाएं संज्ञान में आयी थीं, वर्ष 2017 में, वहीं 4,035 मामले संज्ञान में आये थे वर्ष 2016 में.
621 छेड़खानी के मामले हुए थे वर्ष 2017 में, 2016 के 894 मामलों की तुलना में.
92 प्रतिशत दुष्कर्म के मामले पुलिस ने हल किये वर्ष 2017 में, जबकि 2016 में 86 प्रतिशत मामले ही हल किये जा सके थे.
96.63 प्रतिशत बलात्कार के मामलों में आरोपी पीड़िता का परिचित था और 38.99 मामलों में ऐसी घटना को अंजाम देने वालों में दोस्त या पारिवारिक दोस्त शामिल थे.
19.98 प्रतिशत मामलों में पड़ोसी और 14.20 प्रतिशत मामलों में रिश्तेदारों ने ही इस कृत्य को अंजाम दिया था.
(स्रोत : दिल्ली पुलिस के आंकड़ेे)
38,947 महिलाओं के साथ दुष्कर्म के मामले दर्ज हुए वर्ष 2016 में, जबकि वर्ष 2015 में 34,651 मामले दर्ज किये गये थे.
12.4 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गयी वर्ष 2016 में इस अपराध में.
81.9 प्रतिशत सामूहिक दुष्कर्म के मामले संज्ञान में आये थे 19 शहरों में वर्ष 2016 में, महिलाओं के खिलाफ होने वाले कुल अपराध की तुलना में.
75.2 प्रतिशत कुल दुष्कर्म के मामले दर्ज किये गये 19 शहरों में, महिलाओं के खिलाफ होने वाले कुल अपराध के मुकाबले, वर्ष 2016 में.
95 दुष्कर्म की घटनाएं प्रतिदिन, चार प्रति घंटे और एक घटना प्रति 15 मिनट दर्ज की गयी वर्ष 2015 में देशभर में.
(स्रोत : एनसीआरबी)
किस राज्य में कितने मामले
राज्य कितनी महिलाएं
बनीं शिकार
मध्य प्रदेश 4,391
महाराष्ट्र 4,144
राजस्थान 3,644
उत्तर प्रदेश 3,025
ओड़िशा 2,251
दिल्ली 2,199
केरल 1,256
बिहार 1,041
नोट : वर्ष 2015 के आंकड़े , (स्रोत : एनसीआरबी)
सामूहिक दुष्कर्म के मामले
दिल्ली 79
मुंबई 14
जयपुर 13
नागपुर 9
बेंगलुरु 7
(स्रोत : एनसीआरबी) वर्ष 2016 के आंकड़े
दुष्कर्म के मामले
स्थान घटनाएं
दिल्ली 1,996
मुंबई 712
पुणे 354
जयपुर 330
बेंगलुरु 312
(स्रोत : एनसीआरबी) वर्ष 2016 के आंकड़े
किशोर भी अपराध में शामिल
1,903 दुष्कर्म के मामलों में देशभर में 2,054 किशोरों को गिरफ्तार किया गया.
126 के करीब दुष्कर्म के मामलों में किशोरों की संलिप्तता पायी गयी थी वर्ष 2016 में, उत्तर प्रदेश में, जबकि 442 किशोर मध्य प्रदेश में, 258 महाराष्ट्र में, 159 राजस्थान में, 155 दिल्ली में और 148 किशोर छत्तीसगढ़ में शामिल रहे दुष्कर्म की घटनाओं में.
16-18 आयु वर्ग के किशोरों के दुष्कर्म जैसे जघन्य अपराध में शामिल होने के बहुत ज्यादा मामले सामने आये वर्ष 2016 में. इस वर्ष दुष्कर्म की घटनाओं में शामिल किशोरों में 76 प्रतिशत इसी आयु वर्ग के थे.
62 प्रतिशत 16-18 आयु वर्ग के किशोर 2015 में, जबकि 69.4 प्रतिशत किशोर 2014 में इस कृत्य में शामिल रहे थे.
चार प्रतिशत दुष्कर्म जैसे अापराधिक कृत्य किशोरों द्वारा अंजाम दिये गये थे वर्ष 2016 में, जबकि वर्ष 2015 में इसका प्रतिशत 3.1 था.
विभन्न मामलों में किशोरों की गिरफ्तारी
आयु वर्ग घटनाएं
12 वर्ष से कम 29
12-16 वर्ष 464
16-18 वर्ष 1,561
आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम, 2013
16 दिसंबर, 2012 को दिल्ली में हुए निर्भया प्रकरण के बाद आपराधिक कानून में संशोधन किया गया और मार्च, 2013 में इसे संसद द्वारा पारित किया गया. इस सूची में एसिड हिंसा और घृणा के संबंध में भी सजा का प्रावधान किया गया. वहीं, अपराध की गंभीरता देखते हुए अपराधी को मौत की सजा का प्रावधान किया गया और जेल की अवधि में भी वृद्धि की गयी. वहीं मई 2017 में किशोर न्याय कानून में बड़ा बदलाव किया गया. इसके तहत जघन्य अपराध की घटनाओं में शामिल 16 साल या इससे अधिक उम्र के किशोर पर भी वयस्क की तरह मुकदमा चलाया जा सकता है.
दुष्कर्म के बढ़ते मामलों के प्रमुख कारण
‘यत्र नार्यस्तु पूज्यंते
रमंते तत्र देवता:’
का श्लोक रटनेवाले देश का एक विरोधाभास देखिए कि उसी देश में महिलाओं के साथ बड़ी संख्या में दुष्कर्म भी हो रहे हैं. क्या हैं इनकी वजह :
घरेलू क्रूरता की स्वीकार्यता
भारतीय समाज में पुरुष का वर्चस्व रहा है और वह जब चाहे महिलाओं पर अपनी मर्जी थोप सकता है. भारत में जब हम दुष्कर्म की बात करते हैं, तो इसमें वैवाहिक दुष्कर्म भी शामिल है. यानी जब कोई पुरुष अपनी पत्नी के साथ जबरन संबंध कायम करता है, तो उसे इसी श्रेणी में रखा गया है. हमारी संस्कृति में महिलाओं को यह पढ़ाया जाता है कि उन्हें अपने पति की इच्छाओं का आदर करना चाहिए. हालांकि, भारतीय कानून में इसकी उम्र 15 वर्ष दी गयी है, लेकिन इसमें सुधार करने की जरूरत है.
मनोवैज्ञानिक तर्क
क्रिकेट को हमारे में देश में राष्ट्रीय खेल की तरह समझा जाता है, जबकि वास्तव में वह एक अंतरराष्ट्रीय खेल है. इसी तरह से, अपनी संस्कृति में हमने अनेक पश्चिमी चीजों को अपना लिया है, लेकिन जब भारतीय लड़कियां द्वारा पश्चिमी पहनावे को अपनाने की बात आती है, तो लोगों को उन्हें देखने का नजरिया बदल जाता है. ड्रेस से किसी के चरित्र को नहीं समझा जा सकता. भारत में दुष्कर्म की घटनाओं के बढ़ने का एक बड़ा मनोवैज्ञानिक कारण यह भी है, जिसमें पहनावे को इसके लिए उकसाने का कारण बताया जाता है.
आत्मरक्षा की कमी
देश में 90 फीसदी से अधिक महिलाएं आत्मरक्षा से जुड़े तरीकों से अनभिज्ञ हैं, जिसके जरिये वे बुराइयों से लड़ने में सक्षम हो सकती हैं. इस संबंध में अनेक अभियान चलाये जा रहे हैं, लेकिन इसमें अब तक अधिक कामयाबी इसलिए भी नहीं मिल पा रही है, क्योंकि भारतीय समाज में अधिकांश महिलाओं का मानना है कि उन्हें घर में ही रहना चाहिए.
विवाह के रूप में समाधान
देश के कई इलाकों में अक्सर ऐसा देखा जाता है कि किसी लड़की के साथ दुष्कर्म की दशा में दुष्कर्मी के साथ विवाह करने का समझौता करना पड़ता है. इससे किसी लड़के को मनपसंद लड़की साथ शादी करने की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिलता है, और खासकर जब लव मैरेज का विकल्प उस लड़के के लिए खत्म हो जाता है, तो कई बार वह इस तरह की गतिविधि को अंजाम देता है. ग्रामीण इलाकों में ऐसी घटनाएं अधिक देखने में आती हैं. दुष्कर्म की घटना किसी परिवार के लिए शर्मिंदगी का विषय बन जाती है, लिहाजा वह आसानी से इस तरह का समझौता करने को तैयार हो जाते हैं.
अदालतों की लचर कार्यप्रणाली
भारत में दुष्कर्म के मामलों की सुनवाई में काफी वक्त लगता है. निर्भया मामले से इसे बेहतर तरीके से समझा जा सकता है. न्यायाधीशों का भी अभाव है. पूर्व मुख्य न्यायाधीश टीएस ठाकुर ने लंबित मामलों के निबटारे के लिए 70,000 न्यायाधीशों की नियुक्ति की मांग की थी.
यौन शिक्षा का अभाव
इस मामले में इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि हम कितने विकसित हो चुके हैं. यौन शिक्षा भारत में अभी भी एक ऐसा पहलू है, जिस बारे में लोग समाज में खुल कर बात करने से बचते हैं. इसे ऐसा विषय माना जाता है, जिसके बारे में सार्वजनिक चर्चा नहीं की जा सकती और व्यक्ति उसे स्वयं से समझने की कोशिश करता है. स्कूल या परिवार के स्तर पर यौन शिक्षा के अभाव से किशोर उम्र में लड़के-लड़कियां अपने शरीर के भीतर होने वाले बदलावों और भावनाओं को सही तरीके से नहीं समझ पाते हैं. ऐसे में कई बार वे अपनी इच्छाओं को पूरा करने के लिए अनैतिक तरीका अख्तियार करते हैं, जो उन्हें यौन अपराध की ओर ले जाता है.